सूचना का अधिकार : भारत की रैकिंग दूसरे स्थान से गिरकर अब 7वें पायदान पर

सूचना का अधिकार एक ऐसा क़ानून है, जिसने देश की आम जनता को सत्ता की व्यवस्था से सवाल करने का अधिकार दिया। भारत में 2005 में लागू हुए इस ऐक्ट को तमाम देशों की सराहना भी मिली, लेकिन केन्द्रीय आयोग की तुलना में राज्यों के सुस्त रवैये के कारण पूरे देश का रिपोर्ट कार्ड प्रभावित हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, आरटीआई के पालन को लेकर जारी वैश्विक रैकिंग में भारत की रैकिंग दूसरे स्थान से गिरकर अब 7वें पायदान पर पहुंच गई है।
11 अक्टूबर, शुक्रवार को आरटीआई दिवस की पूर्व संध्या पर ग़ैरसरकारी शोध संस्था ‘‘ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया’’ की रिपोर्ट जारी करते हुए संस्था के कार्यकारी निदेशक रमानाथ झा ने कहा कि वैश्विक रैंकिंग में जिन देशों को भारत से ऊपर स्थान मिला है, उनमें से ज़्यादातर देशों में भारत के बाद आरटीआई क़ानून को लागू किया गया है।
आरटीआई ऐक्ट बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा, "वैश्विक रैंकिंग का आंकलन मज़बूत आरटीआई क़ानून व्यवस्था पर निर्भर होता है लेकिन केंद्र सरकार बिना कारण इस क़ानून को कमज़ोर करने में लगी हुई है। संशोधन के बाद आने वाले दिनों में हमें और गिरावट देखने को मिल सकती है।"
इस रिपोर्ट में कई और हैरान करने वाले खुलासे भी हुए हैं। ऐक्ट के तहत वार्षिक रिपोर्ट अनिवार्य होने के बावजूद उत्तर प्रदेश ने 14 साल में एक भी वार्षिक रिपोर्ट पेश नहीं की है, जबकि बिहार सूचना आयोग की अब तक वेबसाइट भी नहीं बन पायी है।
इस संबंध में निखिल का कहना है, "जब सरकार पारदर्शिता लाने की बात करती है तो इसमें दो मुख्य किरदार सामने आते हैं। सबसे पहले सरकार है, जो यदि सभी जानकारियों को साझा कर दें तो गोपनीयता की संस्कृति खुलेपन में तब्दील हो जाएगी, लेकिन सरकारें इसे दबाना चाहती हैं। दूसरा किरदार आयोग का सामने आता है। उसका काम है कि जहां भी जानकारी ना मिल रही हो, उसे उपलब्ध कराना लेकिन आयोग अगर ख़ुद ही रिपोर्ट नहीं मुहैया कराएगा तो आपको जानकारी कैसे मिलेगी। ये बहुत ही अजीब बात है कि जिस पर सूचना देने का दायित्व है, वही उसे दबाने में लगा है।
उत्तर प्रदेश में कई सालोंं से सक्रिय आरटीआई कार्यकर्ता ओम प्रकाश ने न्यूज़क्लिक को बताया, "सूचना का अधिकार आज़ादी के बाद सरकार पर लोगों की निगरानी का एक बड़ा हथियार रहा है। इसने लोकतंत्र को मज़बूत करने में अहम भूमिका निभाई है। लेकिन जब सूचना आयोग द्वारा ही सहयोग नहीं मिलेगा तो इस क़ानून के लक्ष्य को प्राप्त करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। आयोग आख़िर वार्षिक रिपोर्ट क्यों नहीं जारी करता! ये समझना होगा की आयोग की भूमिका इस क़ानून में महत्वपूर्ण है, लेकिन आयोग इसे निभाने में अक्सर लाचार ही दिखाई देता है।"
रिपोर्ट में सूचना आयोगों में पदों की रिक्ति की ओर भी ध्यान आकर्षित किया गया है साथ ही आरटीआई की सक्रियता के लिये बाधक बताया गया है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद कुल 155 पदों में से 24 पद अभी भी रिक्त हैं और देश में केवल सात महिला सूचना आयुक्त कार्यरत हैं।
इस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2005 में आरटीआई क़ानून लागू होने के बाद 14 सालों में देश के कुल 3.02 करोड़ (लगभग 2.25 फ़ीसदी) लोगों ने ही आरटीआई का इस्तेमाल किया है।
रमानाथ झा ने इस अवसर पर कहा, "क़ानून बनने के बाद माना जा रहा था कि इससे भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी और सरकार की कार्यपद्धति में पारदर्शिता आएगी। लेकिन क़ानून लागू होने के 14 साल बाद भी सरकारी तंत्र में व्याप्त गोपनीयता की कार्य संस्कृति के कारण अधिकारियों की सोच में परिवर्तन की रफ़्तार धीमी है।"
हालांकि निखिल डे इस संख्या को सरकारी चुनौतियों के सामने कम नहीं मानते। उनके अनुसार "2.5 प्रतिशत कोई कम संख्या नहीं है। ये दुनिया के सामने एक बड़ा नंबर है। आरटीआई फ़ाइल करने के पीछे नागरिक की अपनी जागरुकता होती है। वो पूरे सिस्टम का सिरदर्द लेता है। आवेदन करने से लेकर फॉलोअप लेने तक डटे रहना आसान काम नहीं है। आज के दौर में जब इसे और कठिन किया जा रहा है, तो ऐसे में लोगों का रुझान इसके प्रति घटना लाज़मी है। लोग इससे अब थक रहे हैं।"
रिपोर्ट में आरटीआई आवेदनों के विश्लेषण के आधार पर कहा गया है कि देश में 50 फ़ीसदी से ज़्यादा आरटीआई आवेदन ग्रामीण क्षेत्रों से किये जाते हैं। इनमें भी राज्य सरकारों की तुलना में केन्द्र सरकार के विभागों से मांगी गयी जानकारी की हिस्सेदारी ज़्यादा है।
निखिल बताते हैं, "आज की तारीख़ में इस देश में 60 से 80 लाख लोग सूचना के अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं। अब तक 80 आरटीआई एक्टिविस्ट इसके लिए अपनी जान गंवा चुके हैं। जिस नोटबंदी के आंकड़े सरकार देने से मना करती रही या चुप्पी लगाए रही, उसकी सूचनाएं सिर्फ़ आरटीआई से बाहर आ पाईं। लेकिन सरकार आज उसी क़ानून को कमज़ोर कर अपना रास्ता आसान कर रही है।"
जम्म-कश्मीर का ज़िक्र करते हुए निखिल कहते हैं, "जो सरकार ने कश्मीर में किया है वो भारत के इतिहास में सूचना के अधिकार पर सबसे बड़ा हमला है। आज के दौर में किसी भी देश में ऐसा नहीं हुआ है कि किसी राज्य को आप सूचना के अधिकार से वंचित कर दें। सरकार ने वहां सभी सूचना के माध्यमों पर पाबंदी लगाकर लोगों को जानने के हक़ से दूर रखा है। ये बेहद नाकारात्मक है।"
रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2005 से 2017 के दौरान विभिन्न केन्द्रीय मंत्रालयों को 78,93,687 आरटीआई आवेदन प्राप्त हुए। इसके अनुसार आरटीआई के कुल आवेदनों की संख्या के आधार पर पांच अग्रणी राज्यों में महाराष्ट्र (61,80,069 आवेदन) पहले स्थान पर, तमिलनाडू (26,91,396 आवेदन) दूसरे और कर्णाटक (22,78,082 आवेदन) तीसरे स्थान पर है जबकि केरल एवं गुजरात चौथे और पांचवें पायदान पर हैं। तो वहीं, आरटीआई के सबसे कम प्रयोग वाले राज्यों में मणिपुर, सिक्किम, मिज़ोरम, मेघालय तथा अरुणाचल प्रदेश में आरटीआई का उपयोग कम हुआ है।
निखिल का कहना है, "राजस्थान सरकार ने जनसूचना पोर्टल के माध्यम से सभी उपलब्ध कराने की शुरुआत कर एक उदाहरण पेश किया है। इसमें राज्य सरकार ने क़रीब दस लाख सूचनाएं मुहैया करवाई है और क़रीब 2 लाख 70 हज़ार लोगों ने महीने भर के अंदर ही इस पोर्टल को देखा और इससे सूचना एकत्र की है। लेकिन अभी भी ये काफ़ी नहीं है, इसमें आगे बहुत कुछ करना बाक़ी है।"
आरटीआई के इस्तेमाल के आधार पर पकड़ में आए अनियमितताओं के मामलों में राज्य आयोगों द्वारा अब तक 15,578 जन-सूचना अधिकारियों पर जुर्माना लगाया गया है। उत्तराखंड सूचना आयोग ने पिछले 3 सालों में सबसे अधिक 8.82 लाख रुपये का अधिकारियों पर जुर्माना लगाया जबकि केन्द्रीय सूचना आयोग ने दो करोड़ रुपये जुर्माना लगाया।
निखिल बताते हैं कि आरटीआई ऐक्ट ऐसा पहला क़ानून है जो क़रीब डेढ़ दशक में ही एक जन आंदोलन बन गया और आम लोग ख़ुद को सशक्त महसूस करने लगे थे। लेकिन मौजूदा सरकार ने संशोधन के ज़रिये इस क़ानून की रीढ़ पर आक्रमण किया है और इससे पूरा क़ानून ही कमज़ोर होगा। सबसे बड़ा सवाल है कि एक कमज़ोर सूचना आयोग को सरकारी महकमे सूचना देने में कितनी तवज्जो देंगे।
ग़ौरतलब है कि एक लंबे संघर्ष के बाद 2005 में मनमोहन सरकार ने सरकारी कामकाज की जानकारी मांगने का अधिकार आम जनता को देने के लिए सूचना का अधिकार क़ानून (आरटीआई) बनाया था। यह क़ानून भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ लड़ाई में आम लोगों का बेहद कारगर हथियार भी साबित हो रहा है। हाल ही में इसके संशोधन को लेकर कड़ा विरोध भी देखने को मिला था, ऐसे में कार्यकर्ताओं का मानना है कि संशोधनों के बाद आरटीआई भारत में अपना अस्तिव खो देगा।
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