एनआरसी मॉडल को अन्य राज्यों में लागू किए जाने की बात कितनी उचित है?

आज केंद्र सरकार के मंत्रियों और विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्रियों द्वारा राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी : नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न) जैसी व्यवस्था को पूरे देश में लागू किए जाने की बात को पूरे आत्मविश्वास के साथ जोर शोर से कहा जा रहा है। सत्तारूढ़ दल के अलावा अन्य विभिन्न संगठनों और राजनीतिक पार्टियों द्वारा भी असम जैसी एनआरसी की व्यवस्था को लागू किए जाने की मांग भी लगातार हो रही है। ऐसी परिस्थिति में असम में जारी एनआरसी के प्रभाव का आकलन और अपीलीय फोरम -फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के कार्य पद्धति को तथ्यों के आधार पर ठीक से समझ लिया जाना आवश्यक हो गया है।
एनआरसी का इस्तेमाल केवल राजनीतिक गुगली के रूप में नहीं होना चाहिए। सैद्धांतिक रूप से एनआरसी का विरोध नहीं किया जा सकता है, लेकिन इसका प्रयोग केवल राजनीतिक निहितार्थ के लिए भी नहीं होना चाहिए। किसी भी अन्य राज्य में एनआरसी जैसी व्यवस्था को लागू किए जाने के पूर्व असम के पूरे मॉडल का अध्ययन किया जाना आवश्यक है। एक बात तो तय है कि असम में लागू एनआरसी ने जवाब से ज्यादा सवाल खड़े कर दिए हैं। एनआरसी जिस मकसद से बनाई गई थी, वह मकसद पूरा हुआ कि नहीं वह तो आज भी अनुत्तरित है।
माननीय उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देश में अंतिम रूप से 31 अगस्त 2019 को एनआर सी को ऑनलाइन जारी कर दिया गया है।
एनआरसी को जारी करते हुए अंतिम रूप से 19.06 लाख लोगों को बाहर कर दिया गया है, उस में गड़बड़ी की खबरें भी लगातार प्रकाश में आ रही है। जिन लोगों का नाम एनआरसी से हटा दिया गया है, उन्हें अब 120 दिन की समय सीमा के अंदर फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में अपील करनी है।ऐसे लोग जो अनपढ़ है साथ ही गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे है, मज़दूर हैं और महिलाएं हैं जिनका नाम एनआरसी से हटा दिया गया है, उनके लिए फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में निश्चित समय सीमा में अपील करना और अपनी बात को ठीक तरीके से रखना भी एक बड़ी समस्या है।
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एनआरसी को अद्यतन करने की बात को वर्ष 1985 में हुए असम समझौते में एक मुख्य बिंदु के रूप में शामिल किया गया था। इस समझौते में यह शर्त रखी गई की जो लोग 24 मार्च 1971 के मध्यरात्रि तक भारत में आ गए हैं , उन्हें भारत का नागरिक माना जाएगा। एक गैर सरकारी संस्था असम पब्लिक वर्क्स (एपीडब्ल्यू ) द्वारा 2009 में दायर याचिका का संज्ञान लेते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2013 में केंद्र सरकार को आदेशित किया था कि नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न की प्रक्रिया को पूरा करते हुए अद्यतन (अप-टू-डेट, संशोधित) सूची जारी किया जाए।
एनआरसी को असम में लागू किए जाने में संसाधनों का अपव्यय !
जहां तक मुझे लगता है कि लगभग 55,000 कर्मचारियों की 4 वर्ष की कड़ी मशक्कत और 1220 करोड़ रुपये से अधिक खर्च करने के बाद भी असम में नागरिकता संबंधी विवाद और अधिक जटिल हो गया है। एनआरसी को लागू करने में सरकारी मशीनरी ने किस गहनता (intensity) के साथ कार्य किया है और यह प्रक्रिया कितनी कठिन है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि असम में 17 फरवरी 2018 से लेकर 6 जून 2018 तक तकरीबन सवा नौ लाख परिवारों की पुश्तैनी विरासत (Family Legacy Tree) की सुनवाई एनआरसी सेवा केंद्रों पर हुई जिसे 6,241 जांच अधिकारियों और उनके सहयोगियों द्वारा संचालित किया गया। इसके बाद 2 अप्रैल 2018 से लेकर 7 जुलाई 2018 तक लगभग 27.6 लाख विशेष जांच जो विवाहित महिलाओं से संबंधित थी को क्रियान्वयन में लाया गया, जिसके अंतर्गत पंचायत सेक्रेटरी या सर्किल अफसर द्वारा जारी किए गए विवाह प्रमाण पत्र का सत्यापन किया गया। जिन स्थानों पर प्रमाण पत्रों का सत्यापन किया जाता था वह गांव से काफी दूर होते थे, अतः स्वाभाविक रूप से गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों, महिलाओं और मज़दूरों को इसके लिए बेवजह का खर्च और परेशानियों का सामना भी करना पड़ा, जिसका उनके सामान्य जीवन के ऊपर व्यापक असर भी पड़ा।
फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल का गठन और उसके आदेश की अपील:
भारत के संविधान के अनुच्छेद 323 B में जिन विषयों का निस्तारण ट्रिब्यूनल के माध्यम से हो सकता है उनकी एक सूची दी गयी है, लेकिन उसमें नागरिकता संबंधी कोई उपबंध नहीं है। भारत के संविधान के अनुसार ट्रिब्यूनल का गठन संसद या विधान मंडल द्वारा विधि बना करके ही किया जा सकता है। फॉरेनर एक्ट, 1946 की धारा 3 में यह स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि केंद्र सरकार आदेश (आर्डर )द्वारा विदेशियों के भारत में प्रवेश को निषिद्ध या विनियमित या प्रतिबंधित कर सकती है। इसी धारा 3 में दी गई शक्तियों का प्रयोग करते हुए ही भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने 23 सितंबर 1964 को फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल ऑर्डर 1964 जारी किया था। इसी आदेश के प्रावधान संख्या दो में फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के गठन की व्यवस्था दी गई है। इस प्रकार फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल की स्थापना गृह मंत्रालय के एक प्रशासनिक आदेश से हुई है, यदि इसका गठन भी यदि अन्य ट्रिब्यूनलो की तरह संसद द्वारा कानून बनाकर कर ही हुआ होता तो विधिवेत्ताओं द्वारा इस पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जाता।
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फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल ऑर्डर 1964 के अनुसार फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल जो भी आदेश/ राय देता है उसकी अपील का कोई प्रावधान नहीं है, परंतु एल चंद्र कुमार बनाम यूनियन ऑफ इंडिया(1997) में उच्चतम न्यायालय की 7 सदस्य संविधान पीठ ने यह निर्णय दिया था की ट्रिब्यूनल में निस्तारित मामलों की जांच हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच द्वारा संविधान के अनुच्छेद 226/ 227 के अंतर्गत हो सकती है। इस प्रकार अब एल. चंद्र कुमार केस (1997)के बाद यह सुनिश्चित हो गया है की फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के आदेश के विरुद्ध भी उच्च न्यायालय उत्प्रेषण रिट जारी कर सकता है। लेकिन जैसा कि हम सभी जानते हैं उत्प्रेषण रिट जारी करने की उच्च न्यायालय की शक्ति यहां पर्यवेक्षणीय है, और वह केवल क्षेत्राधिकार या नैसर्गिक न्याय के पालन न होने की दशा में ही जारी किया जाता है।
फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल द्वारा मामलों का निस्तारण तथा बॉर्डर पुलिस द्वारा अन्वेषण
फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल के पास दो तरह के मामले आते हैं पहला इलेक्शन कमीशन की तरफ से तथा दूसरा बॉर्डर पुलिस की तरफ से। वर्ष 1997 से इलेक्शन कमीशन ने नागरिक नागरिकता संबंधी दस्तावेजों के आधार पर व्यापक छानबीन शुरू करके डी वोटर (डाउटफुल वोटर) श्रेणी में डालना शुरू कर दिया है। वर्ष 1997 में ही लगभग 3 लाख लोगों को डी वोटर की श्रेणी में घोषित किया गया था।
जहां तक बॉर्डर पुलिस का सवाल है तो इसकी स्थापना 1962 में पाकिस्तान से होने वाली घुसपैठ को रोकने के लिए की गई थी, यह असम पुलिस की ही एक विशेष शाखा है। बॉर्डर पुलिस को यह अधिकार है कि वह किसी भी व्यक्ति से नागरिकता संबंधी दस्तावेज की मांग कर सकती है। बॉर्डर पुलिस किसी भी व्यक्ति का फिंगरप्रिंट तथा उसका फोटोग्राफ भी ले सकती है उसको यह अधिकार असम सरकार के ही एक शासनादेश से वर्ष 2009 में मिला था।
संदेहास्पद व्यक्ति यदि उचित समय सीमा के अंदर बॉर्डर पुलिस को नागरिकता संबंधी दस्तावेज प्रस्तुत नहीं करता है तो इस प्रकार के प्रकरण को वह फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल को संदर्भित कर देती है। यह लगातार प्रकाश में आता रहा है की बॉर्डर पुलिस गरीबी रेखा के नीचे निवास करने वाले लोगों , दैनिक मजदूरों, रिक्शा चलाने वाले लोगों और भिखारियों को अवैध घुसपैठ के चक्कर में संदेहास्पद घोषित करके सादे पेपर पर अंगूठे का निशान ले लेती है, इनमें से ज्यादातर लोग ऐसे होते है जो लिखना पढ़ना भी नहीं जानते है। यह भी प्रकाश में आता रहा है कि बॉर्डर पुलिस बिना अन्वेषण (Investigation) के ही प्रकरण को फारनर्स ट्रिब्यूनल में भेज देती है। बॉर्डर पुलिस के घूस लेकर छोड़ने और विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की खबरें भी लगातार प्रकाश में आती रही हैं।
बॉर्डर पुलिस और फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल से ही संबंधित प्रकरण में गुवाहाटी हाई कोर्ट की 3 जजों की बेंच ने स्टेट ऑफ असम बनाम मुस्लिम मंडल (2013) के बाद में यह निर्धारित किया था कि उचित अन्वेषण और उचित ट्रायल किसी भी व्यक्ति का आधारभूत मौलिक/मानव अधिकार है और इसका सीधा संबंध भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 से है। अतः बॉर्डर पुलिस द्वारा किसी भी व्यक्ति के प्रकरण को बिना उचित अन्वेषण के फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में नहीं भेजना चाहिए। परंतु दु:ख की बात है कि न्यायालय के आदेश के बाद भी ऐसा होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है।
अभी हाल ही में गुवाहाटी हाई कोर्ट ने अनियमितता की एक शिकायत के बाद फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल द्वारा दिए गए 232 आदेशों की जांच कराई थी जिनमें से 57 ऑर्डर्स में अनियमितता पाई गई। उच्च न्यायालय ने अपने दिनांक 19 सितंबर 2019 के आर्डर में लिखा है कि जिन मामलों में अनियमितता पाई गई है उनकी सुनवाई अब फिर से होगी। उच्च न्यायालय द्वारा कराई गई जांच में इतने बड़े पैमाने पर अनियमितता(irregularties)का पाया जाना ही फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल की कार्य पद्धति पर सवालिया निशान लगाता है।
नागरिकता सिद्ध करने का भार सदैव व्यक्ति विशेष पर
फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल में नागरिकता को सिद्ध करने का भार बॉर्डर पुलिस द्वारा अवैध अप्रवासी घोषित किए गए व्यक्ति पर ही होता है। इसलिए शक की स्थिति में किसी को अपनी नागरिकता साबित करना बहुत मुश्किल हो जाता है।
सर्बानंद सोनोवाल बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2005) के केस में आई एम डी टी एक्ट 1983 को असंवैधानिक घोषित किए जाने के बाद अवैध अप्रवासियों से संबंधित सभी मामलों को फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल को ही सौंप दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय के तीन सदस्य बेंच ने इस वाद में संविधान के अनुच्छेद 355 का सहारा लेते हुए आई एम डी टी एक्ट को निरस्त कर दिया और कहा कि नागरिकता को सिद्ध करने का भार सदैव व्यक्ति के ऊपर ही होगा न कि सरकार के ऊपर क्योंकि किसी व्यक्ति ने किस दिन भारत की सीमा में प्रवेश किया है, इसकी जानकारी व्यक्ति विशेष ही दे सकता है।
सर्बानंद सोनोवाल केस इसलिए भी महत्वपूर्ण है की इसी वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय ने फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल (संशोधन आदेश) 2006 को भी अनावश्यक और अयुक्तियुक्तक (unresonable) घोषित कर दिया था। इस संशोधन आदेश में यह प्रावधान था कि फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल प्रभावित पक्षकार को नोटिस तभी जारी करेगा, जब प्रभावित पक्षकार जिसे अवैध अप्रवासी घोषित किया गया है, वह फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल को प्रथम दृष्टया अपने पक्ष में संतुष्ट कर देगा।
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एनआरसी से कोई भी खुश नहीं फिर भी अन्य राज्यों में लागू करने पर सरकार आमादा क्यों?
असम में काम करने वाली कोई भी राजनीतिक पार्टी और न ही कोई सामाजिक संगठन जारी की गई एनआरसी की सूची से संतुष्ट हैं। सभी राजनीतिक पार्टी और संगठन अपने अपने तरीके से उसका विरोध भी कर रहे हैं। इसने राज्य में अंतर्विरोध और आपसी संघर्ष को और अधिक बढ़ा दिया है। असम में एनआरसी से हासिल क्या हुआ है वह तो अनुत्तरित है परंतु उसने निश्चित रूप से एक प्रकार के भय का वातावरण बनाने का कार्य तो किया ही है। अन्य राज्यों में एनआरसी जैसे मॉडल को लागू करके ध्रुवीकरण के राजनीति को हवा दी जा सकती है। असम में जारी एनआरसी से तो असम की सत्तारूढ़ भाजपा के नेता भी संतुष्ट नहीं है। फिर भी असम के एनआरसी मॉडल को पूरे देश में लागू करने का बयान केंद्र सरकार के मंत्री और भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री लगातार दे रहे हैं। किसी भी अन्य राज्य में असम के एनआरसी मॉडल को लागू करने के पहले इस बात पर गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है की इसको लागू किये जाने से हासिल क्या होगा? असम के एनआरसी मॉडल में व्याप्त खामियों, किये गए ख़र्च, सरकारी संसाधन का अपव्यय और उसके लागू किए जाने से उत्पन्न समस्याओं पर विमर्श करने के बजाय सरकार और उसके मंत्री एनआरसी को अन्य राज्यों में लागू करने पर ही क्यों आमादा है? यह समझ के परे है। कोई भी सरकार हो उसका मकसद समस्या का समाधान करना होना चाहिए न की समस्या को बढ़ाने वाला होना चाहिए।
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नागरिकता कोई सामान्य विषय नहीं है
सवाल यह भी है कि सीमावर्ती राज्य असम में घुसपैठियों की संख्या को लेकर इतना ज्यादा शोर मचाया जा रहा था परंतु वहां भी संख्या अनुमान से काफी कम रही है। जब एक सीमावर्ती राज्य में जहां घुसपैठ की बात आज़ादी के समय से ही हो रही है, कठिन जांच प्रक्रिया के बाद भी बहुत कुछ हासिल नहीं हो पाया है, तो अन्य राज्यों में उसका क्या हश्र होगा ? असम जैसे छोटे से राज्य में जब एनआरसी को ठीक प्रकार से लागू किए जाने में इतनी समस्याएं और अंतर्विरोध सामने आ रहे हैं तो अन्य बड़े राज्यों में इसे लागू करने में इसकी क्या स्थिति होगी, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार बिना उचित प्रक्रिया के किसी को भी अवैध अप्रवासी घोषित नहीं किया जा सकता है। उचित प्रक्रिया अपनाए जाने के बाद असम का मॉडल अब निश्चित रूप से जवाब से ज्यादा सवाल ही खड़ा कर रहा है, ऐसी स्थिति में अन्य राज्यों में इसे लागू करने से पहले बहुत ही गंभीरता से विचार किए जाने की आवश्यकता है।
नागरिकता एक ऐसा विषय है जो किसी भी व्यक्ति के विधिक, सामाजिक और राजनैतिक अस्तित्व को निर्धारित करता है। नागरिकता किसी भी व्यक्ति के गरिमामय जीवन का आधार स्तंभ है। किसी भी व्यवस्था के अंतर्गत किसी व्यक्ति या समूह की नागरिकता को जब नकारा जाता है तो उससे उस व्यक्ति का संपूर्ण मानवीय अस्तित्व ही हिल जाता है। अतः इस प्रकार के गंभीर विषय पर केवल विधिक और राजनीतिक तरीके से सोचना ही मानवता के अस्तित्व को छलना है। प्रक्रिया वही संपूर्ण है जो मनुष्य होने की गरिमा को पूर्णता के साथ कायम रखें। अतः सभी सरकारों के लिए मानवता का यह बिंदु नीति निर्धारण का केंद्रीय तत्व होना चाहिए।
( लेखक संवैधानिक मामलों की जानकार है तथा बरेली कॉलेज, बरेली के विधि विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
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