आह ग़ालिब, वाह ग़ालिब: हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें, खावेंगे क्या?

27 दिसंबर 1797 में आगरा में पैदा हुए शख़्स को शायद इल्म भी नहीं रहा होगा कि जिस दिल्ली को उसने इतनी मुहब्बत की, जहां 13 साल की उम्र में वो आगरा छोड़ कर गया, जिस दिल्ली को उसने बारहा दुत्कारे जाने के बाद भी नहीं छोड़ा, वही दिल्ली उसकी आँखों के सामने उजाड़ दी जाएगी। ये शख़्स था शायरों का शायर मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ान 'ग़ालिब', जिसने शायरी को वो आयाम दिये जिस पर उर्दू शायरी आज भी मौजूद है, और दिन ब दिन फल फूल रही है।
मिर्ज़ा ग़ालिब की मौत 1869 में दिल्ली में हुई, मगर जिस दिल्ली में ग़ालिब मरे, ये वो दिल्ली नहीं थी जिसमें वे जवान हुए थे, और बुढ़ापे तक का सफ़र तय किया था। इस दिल्ली में अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा, न क़िला था, न बहादुर शाह ज़फ़र का दरबार था, न मोमिन थे न ज़ौक़, और तो और ग़ालिब की ज़िंदगी में 7 बच्चे भी इसी दिल्ली में पैदा हुए मगर कोई 15 महीने से ज़्यादा न जी सका।
हम जब ग़ालिब की शायरी की बात करते हैं, तो वो सिर्फ़ एक पहलू है, ग़ालिब सिर्फ़ उर्दू के शायर नहीं हैं, ग़ालिब फ़ारसी के उस्ताद भी हैं, ग़ालिब ख़त भी लिखते हैं तो ऐसे लिखते हैं कि ख़त लिखना सीखने के लिए उन्हें आज भी पढ़ा जाता है। यही वजह है कि एक विदेशी शख़्स ने एक दफ़ा कहा था, कि 'अगर ग़ालिब अंग्रेज़ी में लिखते तो वो दुनिया के सबसे बड़े अदीब होते!' कहते हैं कि ग़ालिब बड़ा शायर है, मगर कितना बड़ा? इसका अंदाज़ा मैं नहीं मानता कि किसी को भी है। बहर ए हाल, बात हो रही थी 1857 के ग़दर की तो तसव्वुर कीजिये उस शाहजहानाबाद का, जहां के बल्लीमारों के महल्ले में एक हवेली है, जो इतनी जर्जर हालत में है कि बरसात में मेह 2 घंटे बरसे, तो छत 4 घंटे बरसती है। गली कासिम जान की उसी हवेली के बाहर अंग्रेज़ी फ़ौजी तैनात हैं, न कहीं शायर का शोर है, न वाह-वाह की आवाज़ें, बस एक बूढ़ा शायर है जो हवेली के ऊपर वाले कमरे में बैठा अपने दीगर दोस्तों को ख़त लिखा करता है। ख़त में ही बयान करता है दिल्ली का हाल, बताता है कि दिल्ली छावनी में तब्दील हो गई है, कहता है कि दिल्ली न रही और दिल्ली वाले आज भी उसे अपना शहर मानते हैं, मायूस हो कर लिखता है,
'आय दिल्ली, वाय दिल्ली,
भाड़ में
जाए दिल्ली!'
यही तो वो दिल्ली थी कि जिसे गुर्बत के दिनों में भी ग़ालिब ने नहीं छोड़ा था, जिसके बारे में कहा था,
'है अब इस मामूरे में क़हत ए ग़म ए उलफ़त 'असद',
हम ने ये
माना कि दिल्ली में रहें, खावेंगे
क्या?'
अपने ख़ुतूत में ग़ालिब कहते हैं, 'मेरे बच्चे मरे जाते हैं, मेरे हमउम्र मरे जाते हैं ऐसा लगता है कि जब मैं मरूँगा तो कोई कांधा देने वाला भी नहीं होगा...'
ग़ालिब ख़ुतूत के हवाले से एक बात का ज़िक्र करना अहम हो गया है। 1857 में जब अंग्रेज़ों का कभी न डूबने वाला सूरज हिंदुस्तान में तुलू हुआ, जब आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र को क़ैद कर लिया गया और लाल क़िले पर अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया था, ग़ालिब अंदर तक टूट गए थे। उन्हें यक़ीन नहीं था कि अपनी उम्र के आख़िरी पड़ाव पर ये दिन उन्हें देखने को मिल रहे हैं। ग़ालिब ने 11 मई 1857 के बाद से क़रीब डेढ़ साल तक किसी को ख़त नहीं लिखा, लिखा भी तो भेजा नहीं। फिर जब 1859 के आसपास ख़त ओ किताबत शुरू हुई, तो हर ख़त के इख्तिताम पर लिखा जाता, 'नजात का तालिब, ग़ालिब...'
मायूसी का
आईना थी ग़ालिब की ज़िंदगी, ऐसी मायूसी
कि लोग फ़ैज़ बनना चाहते हैं, जौन बनना
चाहते हैं, मोमिन बनना
चाहते हैं, मगर कोई
ग़ालिब नहीं बनना चाहता…
1857 के ग़दर ही के बारे में ग़ालिब ने एक नज़्म भी लिखी थी, अंत में आपको उसी नज़्म के साथ छोड़े जा रहा हूँ…
बस कि फ़ा'आलुम्मा-युरीद है आज
हर सिलह
शोर इंगलिस्ताँ का
घर से
बाज़ार में निकलते हुए
ज़ोहरा
होता है आब इंसाँ का
चौक जिस को कहें वो मक़्तल है
घर बना है
नमूना ज़िंदाँ का
शहर-ए-देहली का ज़र्रा ज़र्रा ख़ाक
तिश्ना-ए-ख़ूँ
है हर मुसलमाँ का
कोई वाँ से न आ सके याँ तक
आदमी वाँ न जा सके याँ का
मैं ने
माना कि मिल गए फिर क्या
वही रोना
तन ओ दिल ओ जाँ का
गाह जल कर
किया किए शिकवा
सोज़िश-ए-दाग़-हा-ए-पिन्हाँ
का
गाह रो कर कहा किए बाहम
माजरा
दीदा-हा-ए-गिर्यां का
इस तरह के
विसाल से यारब
क्या मिटे
दिल से दाग़ हिज्राँ का
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