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झारखंड: बेसराजारा कांड के बहाने मीडिया ने साधा आदिवासी समुदाय के ‘खुंटकट्टी व्यवस्था’ पर निशाना

निस्संदेह यह घटना हर लिहाज से अमानवीय और निंदनीय है, जिसके दोषियों को सज़ा दी जानी चाहिए। लेकिन इस प्रकरण में आदिवासियों के अपने परम्परागत ‘स्वशासन व्यवस्था’ को खलनायक बनाकर घसीटा जाना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं लगता है।
mob lynching
प्रतीकात्मक चित्र

हेमंत सोरेन की ‘अबुवा सरकार’ एक बार फिर ‘राजनीति विशेष के दर्शन’ को पूरी कट्टरता से अमल में लानेवाली ‘आदर्श मीडिया’ के निशाने पर उस समय आ गयी है, जब बीते मंगलवार यानि 4 जनवरी को सरेआम एक युवक को पीट-पीट कर जिंदा जलाने का कांड सामने आया। 

देर शाम से ही प्रिंट मीडिया, ऑनलाइन पोर्टलों की ख़बरों और स्थानीय चैनलों में सिमडेगा के आदिवासी गांव बेसराज़रा में ग्रामीणों द्वारा एक युवक को पीट-पीट कर जिंदा जला देने की सनसनीखेज़ खबर तेज़ी वायरल होने लगी। 

सिमडेगा में उत्तेजित ग्रामीणों की भीड़ ने संजू प्रधान नामक युवक की पिटाई करने के बाद उसे जिंदा जला दिया। लकड़ी चोरी के आरोप में भीड़ ने उसकी पिटाई कर उसे आग के हवाले कर दिया। “पूर्व माओवादी की मां व पत्नी के सामने पीट-पीट कर हत्या” .... “उत्तेजित भीड़ ने युवक को घर से खींचकर जिंदा जलाया” ... जैसे शीर्षकों वाली सभी ख़बरों में इसे ‘मॉबलिंचिंग’ बताकर हेमंत सरकार द्वारा हाल ही में लाये गए ‘मॉबलिंचिंग विरोधी कानून’ लागू करने की बात कही गयी। गौरतलब है कि इसी झारखंड में पिछली भाजपा साकार से लेकर अब तक दर्जनों भयावह ‘मॉबलिंचिंग काण्ड’ हो चुके हैं, लेकिन स्थापित मीडिया ने इस बार जैसी तत्परता कभी नहीं दिखाई। 

कांड के दूसरे दिन यानी 5 जनवरी को सभी प्रमुख अख़बारों में यह खबर सुर्ख़ियों के साथ प्रकाशित हुई, जिनमें से अधिकांश में घटना के ब्योरे से अधिक इस पहलू पर जोर दिया गया था कि कैसे उक्त काण्ड को आदिवासियों के ‘खुंटकट्टी कानून’ के तहत अंजाम दिया गया है। एक स्थापित अखबार विशेष ने तो इसे आदिवासियों का ‘तालिबानी फैसला’ ही करार दे डाला।

4 जनवरी की शाम ही राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने ट्वीट कर सिमडेगा डीसी को मामले की जांचकर कानून सम्मत कार्रवाई करने के निर्देश जारी कर दिया।

बताया जा रहा है कि सिमडेगा जिला स्थित बन्दरचुआं पंचायत के बेसराजारा गांव के लोगों ने वहीं के रहनेवाले संजू प्रधान को गांव के जंगल से बार-बार जबरन लकड़ी काटने से गुस्साकर बुरी तरह से पीटा और उसमें से कुछ लोगों ने उसे जिंदा जला दिया। इसके पहले लगभग 2 बजे दिन में गांव वालों ने ग्रामसभा की बैठक बुलाकर उस से पूछा कि गांव के जंगल से लकड़ी काटने पर प्रतिबन्ध होने के बावजूद वह क्यों बार-बार लकड़ी काटता और बेचता है? संजू प्रधान ने गांववालों की कोई बात नहीं मानी, तो वहां मौजूद गांववाले आपे से बाहर हो गए। इसी दौरान कुछ लोगों ने वहीं थोड़ी दूर पर रखे लकड़ियों के गट्ठर लाकर उसे जिंदा आग के हवाले कर दिया। 

लगभग सभी ख़बरों में यही बात आयी कि उक्त काण्ड करने के बाद वहां जुटे ग्रामीण इतने आक्रोशित थे कि घटना की जानकारी सुनकर वहां पहुंची स्थानीय पुलिस को भी खदेड़ दिया जिससे पुलिस को पीछे हटना पड़ा। लेकिन बाद में आस-पास के तीन-चार थानों  से अतिरिक्त पुलिस बल वहां पहुंचा तब पुलिस गांव में घुस पायी।

ख़बरों के अनुसार आक्रोशित ग्रामीणों ने आरोप लगाया है कि गांव सभा द्वारा जंगल से लकड़ी काटने पर  लगाए गए सार्वजनिक प्रतिबन्ध को संजू प्रधान द्वारा नहीं मानने पर बार-बार उसे काफी समझया गया था, लेकिन वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आया। तब स्थानीय वन विभाग को भी इसकी सूचना देकर रोक लगवाने की कोशिश की गयी थी। जब इसका कोई परिणाम सामने नाहीं आया तो कुपित गांव वालों के गुस्से का वह शिकार हो गया। मीडिया ख़बरों में बताया गया है कि संजू प्रधान पर गांव के ‘खुंटकट्टी कानून’ के उल्लंघन का आरोप है। 

उक्त काण्ड के बाद से पूरा इलाका अशांत है और पुलिस छावनी में तब्दील हो गया है।

निस्संदेह यह घटना हर लिहाज से अमानवीय और निंदनीय है, जिसके दोषियों को सज़ा दी ही जानी चाहिए।  लेकिन इस प्रकरण में आदिवासियों के अपने परम्परागत ‘स्वशासन व्यवस्था’ को खलनायक बनाकर घसीटा जाना, कहीं से भी तर्कसंगत नहीं लगता है, क्योंकि अमूमन आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ है कि झारखंड के आदिवासी इलाकों में ‘ग्राम सभा’ लगाकर किसी को जान से मार डालने और फिर जिंदा जला देने का फैसला लेने की परंपरा रही हो।

इस सन्दर्भ में आदिवासी मामलों के विशेषज्ञ और वरिष्ठ एडवोकेट रश्मि कात्यायान जी के विचार भी मीडिया द्वारा सामने लायी जा रहीं बातों के सर्वथा विपरीत हैं। उनके अनुसार झारखंड राज्य गठन के होने के बावजूद यहां के आदिवासियों को संविधान प्रदत्त ‘खुंटकट्टी स्वशासन परम्परा’ और उसे ज़मीनी स्वरुप देनेवाले पेसा कानून को धरातल पर लागू ही नहीं किया गया है। जिससे यहां के आदिवासी समाज के लोग काफी क्षुब्ध हैं। पिछले दिनों खूंटी में हुआ ‘पत्थलगड़ी’ प्रकरण भी इसी की ही अभिव्यक्ति थी।  

झारखंड ही नहीं देश और दुनिया के आदिवासी समुदाय के लोग अपनी पारंपरिक सामुदायिक-सामाजिक व्यवस्था लागू किये जाने की आवाज़ लगातार उठा रहें हैं। बाहरी दबावों और आघातों से आदिवासी समाज के लोग आज अपने अस्तित्व व पहचान के समाप्त हो जाने के भयावह संकटों से हर दिन जूझ रहें हैं। स्वाभाविक है कि इनके इलाकों में बाहर से आकर बसने वाले लोग इन्हें सहज स्वीकार्य नहीं हो रहें हैं, जो आये दिन की अप्रिय घटनाओं में भी परिलक्षित होती रहती ही है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि ये लोग हिंसक और आमानवीय होते हैं, जैसा कि सिमडेगा के बेसराजारा हत्याकांड मामले में दिखाया जा रहा है।

संजू प्रधान को ज़िंदा जलाए जाने की सन्न कर देने वाली घटना को लेकर पुलिस ने एफ़आईआर दर्ज़ कर ली है और मामले की गहन जांच भी शुरू कर दी है। पुलिस के आला अफसरों ने भी बयान दिया है कि दोषियों को बक्शा नहीं जाएगा।

फिलहाल पूरे क्षेत्र में उत्पन्न तनाव के कारण उक्त काण्ड के असली कारणों का खुलकर उजागर होना बाकी है, लेकिन फिलहाल यह सवाल तो बनता ही है कि क्या किसी भी समुदाय की अपनी सामाजिक व्यवस्था में ऐसी अमानवीयता को सही माना जाएगा

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