बिरसा मुंडा का सपना: सियासत के लिए बन गया है एक जटिल प्रश्न?

“भाइयो,बहनो और बच्चो / भागो एक आंधी आ रही है / हमारी पृथ्वी आंधी से ढंकी जा रही है / हमारे आकाश में कुहासा छा गया है / हमारा देश बहता जा रहा है…(बिरसा मुंडा ‘उलगुलान’ का गीत अंश)।
उक्त पंक्तियों के भाव आगाह कर रहे हैं कि आदिवासी समाज (हाशिये के सभी समाज भी) कितने संकटपूर्ण जटिल चुनौतियों-हमलों और दबावों से घिरा हुआ है। ‘बिरसाइत’ पंथ के लोगों द्वारा गाया जानेवाले उक्त गीत-अंश आज भी ज्वलंत प्रतीक बना हुआ है आदिवासी समाज के अंतहीन दर्द-गाथा का।
बहरहाल, एक बार फिर 9 जून को बिरसा मुंडा के शहादत-दिवस पर उनकी तस्वीर/प्रतिमा पर माल्यार्पण कर उनकी जय-जैकार की जा रही है। सभा-सेमिनारों में ‘उलगुलान’ की विषद चर्चा करते हुए ‘बिरसा मुंडा का सपना’ के महत्व पर प्रकाश डाला जायेगा। हमेशा की तरह जानकार-विद्वान वक्ताओं द्वारा ओजपूर्ण बयानों में “फिर से उलगुलान” खड़ा करने का आह्वान किया जाएगा। कई स्थानों पर इस अवसर पर मेले भी लगेंगे। जिनमें पारम्परिक आदिवासी पहनावे में ढोल-नगाड़ा-मांदर बजाते हुए सपरिवार ‘समूहिक नृत्य-गान’ होगा, इत्यादि।
सबसे विडंबनापूर्ण पहलू है केंद्र में काबिज़ सत्ता के आदिवासी विरोधी रवैये का। जिसमें एक ओर, बिरसा मुंडा की मूर्ति पर माल्यार्पण के और जयकारे से “जनजातीय गौरव और विकास” का चौतरफा शोर मचाया जा रहा है। तो दूसरी ओर, इस शोर की आड़ में फौज-फांटा लेकर आदिवासी समुदाय के हर विरोध को पूरी निर्ममता के साथ कुचलते हुए “कंपनी हित” में ‘हसदेव का जंगल’ भी कटवा रही है।
बस्तर से लेकर तमाम आदिवासी बाहुल्य इलाकों में “माओवाद-खात्मा” के नाम पर “फ़र्जी एनकाउंटर” में निहत्थे आदिवासियों को गोलियों का निशाना बनाने का सिलसिला जारी रखे हुए है। विकास का बुलडोज़र चलाकर आदिवासी समुदाय के विस्थापन-पलायन को लगातार बढ़ाये हुए है।
“NGO-कारोबार’ संचालित आदिवासी सवालों और भाषा-साहित्य-संस्कृति की संस्था-संगठनों द्वारा भी बिरसा मुंडा को याद किया जाता है। इधर देखने में आ रहा है कि अधिकांश के कार्यक्रमों में स्वघोषित जानकार-विशेषज्ञ-लेखक-बुद्धिजीवी गण, आदिवासी समाज की दुर्दशा और बिरसा मुंडा के सपनों को लेकर गहन चर्चा करते हैं और “टाटा लिटरली मीट” के आयोजनों की भी शोभा बढ़ाते हैं।
बाकी बचे आदिवासी समाज के लोग तो आज भी अपने जीवंत नायक बिरसा मुंडा को अपना आदर्श मानकर उन्हें याद करने का सिलसिला जारी रखे हुए हैं।
वैसे, काफी अरसा बीत चुका है कि लगातार जारी आदिवासी-विमर्शों से सबसे अधिक यही सवाल शिद्दत से उठता रहा है कि- ‘बिरसा मुंडा का सपना’ कब पूरा होगा! जिसका अभी तक तो कोई सम्यक जवाब सामने नहीं ही आया है अलबत्ता इस नाम पर कई जुगाड़ू “प्रायोजित क़वायदें” नित नए अंदाज़ में साक्षात् हैं। जिसकी एक बानगी है “टाटा कंपनी” इत्यादि के धन-बल से आदिवासी भाषा-संस्कृति और आदिवासियत केन्द्रित शोध-विमर्श-कार्यशाला कार्यक्रम का आयोजन! जिनमें आदिवासी-आदिवासियत की तबाही के सबसे बड़े कारण “सियासी सत्ता-कंपनी लूट” को निशाना बनना छोड़ “आदिवासी बनाम गैर आदिवासी” जैसे संवेदनशील मुद्दा उछाल कर मामले को डायवर्ट कर दिया जाना।
इसी प्रवृति का राजनीतिक इस्तेमाल कर “सरना बनाम ईसाई/आदिवासी धर्मांतरण” विवाद का ज़हर किस व्यापकता में फैलाया जा चुका है, आदिवासी बाहुल्य इलाकों जाकर देखा जा सकता है।
इस सबके बावजूद यह तो सोचना ही होगा कि असल पेच क्या है कि ‘बिरसा मुंडा के सपना’ पूरा करने की बातें तो खूब की जातीं हैं, लेकिन ज़मीनी धरातल पर इस जटिल चुनौती से टकराने का रिस्क कोई क्यों नहीं लेना चाहता है। जबकि हाईटेक संचार जगत में जिस अमेरिकन “AI” का जलवा हर ओर हावी बनाया जा रहा है, उसी के हवाले से भी ये स्पष्ट कहा जा रहा है कि- झारखंड में बिरसा मुंडा के सपनों का कितना पालन हुआ है, यह एक जटिल सवाल है। एक तरफ, कुछ लोग कहते हैं कि झारखंड में विकास के कई काम हुए हैं, लेकिन कुछ लोग यह भी मानते हैं कि आदिवासी समुदाय को अभी भी कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। यह सब एक बहस का विषय है।
‘पेसा कानून’ के ठोस कर्यान्वयन को लेकर भी ऐसी ही बहस है। जिसमें पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में परम्परागत ग्राम सभा व्यवस्था को मजबूती से लागू करने की बात काही जा रही है। हेमंत सोरेन सरकार द्वारा प्रस्तावित “पेसा नियमावली” पर सर्व सहमति बनाने की बजाय इसके विरोध में ही ज़्यादा आवाजें उठ रहीं हैं। जबकि इन्हीं आदिवासी आरक्षित इलाकों में सरकार द्वारा दो बार पंचायत चुनाव करवाकर सारे विकास कार्य इसी व्यवस्था के तहत चलाये जा रहे हैं। जिसकी तीखी जटिलता सामने है कि पंचायती-व्यवस्था के जीते हुए सभी आदिवासी जन प्रतिनिधियों का क्या होना है! दो टर्म हो चुके पंचायत चुनाव के कार्यकाल में जनहित में लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण से अधिक “संस्थाबद्ध भ्रष्टाचार” नीचे तक पहुंचाकर अधिकांश को इसका अभ्यस्त बनाया जा चुका है। क्या ये सभी इसे छोड़ना चाहेंगे?
सभा-सेमिनारों के बौद्धिक विमर्शों में आदिवासी अधिकारों को सुनिश्चित करनेवाले संवैधानिक प्रावधानों का हवाला देकर जितनी भी आदर्श बातें की जा रहीं हैं, ज़मीनी हकीक़त को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा है।
विगत दिनों रांची जिला स्थित तामाड़ के परासी समेत कई अन्य इलाकों में सोने के भण्डार मिले हैं। झारखंड की मौजूदा सरकार का दावा है कि इससे झारखंड कि जनता समेत आदिवासियों का काफी भला होगा।
प्राप्त सूचनाओं में अभी तक तमाड़ के परासी क्षेत्र में सोना-खनन का विधिवत कार्य शुरू नहीं हो सका है लेकिन स्थानी जनता का विरोध पूरी मुखरता के साथ जारी है। इस क्षेत्र के व्यापक आदिवासियों साफ़ कहना है कि- सोना-खनन से इस पूरे सघन जंगल क्षेत्र के पर्यावरण से लेकर इलाके के सभी लोगों की आजीविका पर भयानक असर पड़ेगा। कई तरह की ऐसी आर्थिक बुराइयों का बोलबाला हो जाएगा कि जिसका दंश सिर्फ इस क्षेत्र के लोगों को ही भुगतना पड़ेगा। कमोबेश अन्य सभी जगहों पर ऐसा ही स्थानीय विरोध हो रहा है। गौरतलब है कि सोना खनन के प्रस्तावित सभी इलाकों की पंचायती-व्यवस्थायें सिर्फ सरकार-प्रशासन के चाकर की ही भूमिका में सक्रिय है।
तत्काल सवाल बन जाता है कि झारखंड क्षेत्र में कोयला, बाक्साईट और यूरेनियम के खनन और खदानों से अब तक क्या कुछ हासिल हुआ है? आदिवासी समाज का कितना विकास और भला हुआ है? और सबसे बढ़कर ‘अबुवा दिसुम, अबुवा राज’ के बिरसा मुंडा के सपने को पूरा करने में ये कहाँ तक कारगर हुआ है?
एक अहम् सवाल यह भी है कि ग्रामीण-आदिवासी क्षेत्रों में किसी भी विकास के लिए “आधुनिक औद्योगीकरण” (विनिमेश आधारित) को ही विकास का एकमात्र रास्ता बताया जा रहा है। किसी भी झंडे की सरकार हो, इस पर ही अमल करने पर आमादा है।
अबतक के हासिल अनुभवों से सर्व प्रमुख सवाल यही उभर कर आ रहा है कि क्या विकास की “विनिवेश (निजीकरण) आधारित औद्योगीकरण संचालित तथाकथित मुख्य-धारा का प्रभावी रहना और ‘अबुवा दिसुम अबुवा राज’ केन्द्रित विकास का बिरसा मुंडा का सपना, दोनों एकसाथ संभव हैं?
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार, संस्कृतिकर्मी और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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