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प्रभात पटनायक की क़लम से: भारत जैसे देशों को ट्रंप के टैरिफ़ का जवाब कैसे नहीं देना चाहिए?

संक्षेप में यह कि हम विश्व पूंजीवाद का एक नया चरण देख रहे हैं और भारत जैसे देशों के लिए इसका स्वांग करना कि ऐसा कुछ नहीं है और सब ठीक-ठाक है मानकर आचरण करते रहना, बेतुकी बात होगी।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार

पिछले दिनों डोनाल्ड ट्रंप ने अपने प्रस्तावित टैरिफ नब्बे दिन के लिए टाल दिए। लेकिन, चाहे आज हो या नब्बे दिन के बाद, भारत जैसे देशों को ट्रंप के कदमों का जवाब तो देना ही पड़ेगा। ये कदम कोई अलग-थलग मामला नहीं हैं। ट्रंप साफ तौर पर अपने टैरिफों से ऐसे हरेक देश को धमका रहा है, जो ऐसा कुछ भी करने की जुर्रत करता है जो ट्रंप को पसंद नहीं आता हो। वह अमेरिका  के वर्चस्व का प्रदर्शन करने के लिए, टैरिफों को हथियार बना रहा है। इसके अलावा उनका इस्तेमाल आर्थिक उद्देश्यों के लिए तो कर ही रहा है, जैसे अमेरिका  में घरेलू आर्थिक गतिविधि को बढ़ाना और अमेरिका  के चालू खाता घाटे को नीचे लाना।

विश्व पूंजीवाद के नये चरण में

संक्षेप में यह कि हम विश्व पूंजीवाद का एक नया चरण देख रहे हैं और भारत जैसे देशों के लिए इसका स्वांग करना कि ऐसा कुछ नहीं है और सब ठीक-ठाक है मानकर आचरण करते रहना, बेतुकी बात होगी। 

‘‘सब ठीक-ठाक है’’ के चक्कर में तो जब नव-उदारवाद के सबसे अच्छे दिन थे तब भी देश के मेहनतकशों को भारी तकलीफें उठानी पड़ी थीं। नये हालात में उसी से चिपके रहना और ज्यादा तकलीफें बढ़ाएगा और अमेरिका   के फरमानों के  सामने और ज्यादा आधीनता का तकाजा करेगा।

‘‘सब ठीक-ठाक है’’ का मतलब था इस पूर्व-धारणा को स्वीकार कर के चलना कि विश्व बाजार तेजी से बढ़ रहा है और भारत जैसे देश तेजी से आगे बढ़ने जा रहे थे, अगर वे अपनी अर्थव्यवस्थाओं के दरवाजे खोलने और नियंत्रणात्मक रणनीति का त्याग करने के जरिए, जो वृद्धि बढ़ाने के लिए घरेलू बाजारों को बड़ा करने के लिए राजकीय हस्तक्षेप की रणनीति थी, इस मौके का फायदा उठाने के लिए आगे आते हैं। 

नव-उदारवाद के पीछे यही औपचारिक तर्क था और इस तर्क को, जो अपने सबसे अच्छे दिनों में भी बेतुका था (जिसके कारणों में हमें यहां जाने की जरूरत नहीं है) और जिसे अमेरिका   के ‘‘आवासन के बुलबुले’’ के फूटने के बाद से विश्व आर्थिक मंदी ने खासतौर पर गलत साबित कर दिया था, अब ट्रंप की युद्ध-प्रियता ने खुल्लमखुल्ला और प्रभावी तरीके से हवा में ही उड़ा दिया है। इसको नहीं पहचानना और नव-उदारवाद से चिपके रहना भारतीय जनगण के लिए, उनकी जिंदगियों के लिए और कड़े संघर्षों के बाद जीती गयी उनकी स्वतंत्रता के लिए, सत्यानाशी साबित होगा।

अमेरिकी बाज़ारों में अवसर की मरीचिका

किसी को यह लग सकता है कि चूंकि अब अमेरिका   तथा चीन टैरिफ युद्ध में उलझे हुए हैं, जो उनके बीच आपसी व्यापार को करीब-करीब असंभव बना देता है, यह भारत जैसे देशों के लिए इसका मौका है कि अमेरिका के बाजार में चीन की जगह ले लें और यह कि नव-उदारवादी रणनीति से परे हटने के बजाए, खासतौर पर अब उससे फायदा हासिल करना चाहिए। वास्तव में भारत में नव-उदारवादी प्रवक्ता इसी की ओर इशारा कर रहे हैं। 

लेकिन, अगर हम बहस की खातिर इस दलील को मान भी लें कि भारत अगर ट्रंप को खुश कर देता है, तो अल्पावधि में अमेरिका  के लिए उसके निर्यात बढ़ सकते हैं, तब भी यह तथ्य अपनी जगह रहता है कि ट्रंप का मकसद, अमेरिका  के व्यापार सहयोगियों के रूप में, चीन की जगह पर दूसरे देशों को बैठाना भर नहीं है। उसका मकसद अमेरिका  के चालू खाता घाटे को कम करना भी है और इसका अर्थ यह है कि चीन की कीमत पर निर्यातों में अगर कोई अल्पावधि बढ़ोतरी होती भी है, तो भी वह ज्यादा समय तक टिकने वाली नहीं है।

इतना ही नहीं यह अल्पावधि लाभ हासिल करने के लिए भी, जिससे दूसरे देश इस लाभ को झपट नहीं लें (वास्तव में देशों के बीच, अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन करने के जरिए, अमेरिकी बाजार का चीन का हिस्सा हथियाने के लिए, होड़ हो रही होगी), भारत के रुपए की विनिमय दर में कुछ अवमूल्यन हो रहा होगा। अब जबकि रुपए का पहले ही अवमूल्यन हो रहा है, यह अवमूल्यन और तेज हो जाएगा।

इस तरह, ट्रंप के टैरिफ लगाने के जवाब में भारत अगर अपनी ओर से टैरिफ लगाने के कदम नहीं उठाता है, जबकि अमेरिका  की तरफ से 10 फीसद का बुनियादी टैरिफ तो लगा ही रहेगा, तो भारत को विनिमय दर में और अवमूल्यन का सामना करना पड़ेगा। और हमारे अपने नव-उदारवादी प्रवक्ता तक इसी की पैरवी कर रहे हैं।

अवमूल्यन यानी मज़दूरों का और निचोड़ा जाना

अब विनिमय दर के अवमूल्यन के एक पहलू को आम तौर पर पूरी तरह से अनदेखा कर दिया जाता है और वह यह कि यह अवमूल्यन वास्तविक मजदूरियों को दबाने के जरिए ही काम करता है। 

एक उदाहरण से हमारी बात स्पष्ट हो जाएगी। मान लीजिए कि कोई देश 220 रुपये का माल पैदा करता है। इसमें 100 रुपये आयात लागत का हिस्सा है, 100 रुपये मजदूरी लागत का हिस्सा है और 20 रुपये मुनाफा है। अब अगर विनिमय दर में 10 फीसद अवमूल्यन हो जाता है, तो आयातित लागत की कीमत (जिसमें तेल के आयात शामिल हो सकते हैं) 10 फीसद बढ़कर, 110 रुपये हो जाएगी। अब अगर वास्तविक मजदूरी और मुनाफे के हिस्से जस के तस बने रहते हैं, तो रुपये में मजदूरी लागत 110 रुपये हो जाएगी और मुनाफा रुपये में 22 रुपये हो जाएगा यानी 10 फीसद बढ़ जाएगा। इस तरह कुल मिलाकर कीमत 242 रुपये हो जाएगी, जो पहले से 10 फीसद ज्यादा होगी। लेकिन, इसका अर्थ यह है कि चूंकि रुपये का 10 फीसद अवमूल्यन हो जाएगा, डालर में संबंधित माल का दाम जस का तस बना रहेगा। इसलिए, रुपया मूल्य में 10 फीसद के अवमूल्यन के बावजूद, विनिमय दर में कोई वास्तविक व्यावहारिक अवमूल्यन नहीं हुआ होगा। 

इसलिए, किसी मुद्रा के मूल्य में अवमूल्यन, विनिमय दर में वास्तविक व्यावहारिक अवमूल्यन तभी होता है, जब या तो वास्तविक मजदूरी घटायी जा रही हो या फिर मुनाफा घटाया जा रहा हो। अब चूंकि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में मुनाफा पूंजीपतियों द्वारा लागू कराया जाता है, वास्तविक व्यावहारिक विनिमय दर अवमूल्यन अनिवार्य रूप से इसका तकाजा करता है कि वास्तविक मजदूरी में गिरावट हो। दूसरी ओर टैरिफ चूंकि छांट-छांट कर लगाए जाते हैं, उनका इस तरह का असर नहीं होता है। उनसे अनिवार्य रूप से वास्तविक मजदूरी में गिरावट नहीं होती है, बशर्ते इन्हें आयातित लागत सामग्रियों पर या आयातित मजदूरी मालों पर नहीं लगाया जा रहा हो।

नव-उदारवादी प्रवक्ता जो चाहते हैं कि ट्रंप के टैरिफ लगाने के बावजूद ‘‘सब ठीक ठाक है’’ के अंदाज में धंधा चलता रहे और भारत जैसे देश उसके खिलाफ अपने टैरिफ में कोई बढ़ोतरी नहीं करें बल्कि के इसके बजाए अपनी मुद्रा का ही अवमूल्यन करें, बुनियादी तौर पर यही सुझा रहे होते हैं कि जान-बूझकर मजदूरों को और ज्यादा निचोड़ा जाए। वे चाहते हैं कि ट्रंप के टैरिफों के सामने भी, नव-उदारवाद तो जारी रहे, लेकिन वे चाहते हैं कि इसकी कीमत मजदूर ही चुकाएं। और अगर ट्रंप को चीनी निर्यातों की जगह लेने के लिए अन्य देशों के निर्यातों की जरूरत नहीं हो, तब तो भारत जैसे देशों में वास्तविक मजदूरियों में जो गिरावट हो रही होगी, उसके साथ आर्थिक गतिविधियों और रोजगार में उस तरह की बढ़ोतरी भी नहीं हो रही होगी, जिसकी उम्मीद लगायी जा रही है। (इससे तो रोजगार में कमी तक हो सकती है, अगर भारत के आयातों के विक्रेता, जो भारतीय मजदूरों की कीमत पर ज्यादा खुशहाल हो रहे होंगे, भारतीय मालों की खरीद के प्रति जितना झुकाव दिखाते हैं, भारतीय मजदूर उनके मालों को खरीदने के प्रति कहीं ज्यादा झुकाव दिखाते हैं)।

इतना ही नहीं अगर अमेरिका, चीन से आने वाले आयात की जगह, दूसरे देशों से आयात को नहीं लाना चाहता है, जबकि अन्य देश चीन द्वारा खाली किए गए अमेरिकी बाजार में से एक हिस्सा हासिल करने के लिए अपनी मुद्राओं का अवमूल्यन करते हैं, तो अवमूल्यन का यह सिलसिला तो चलता ही जाएगा, चलता ही जाएगा। और अगर सटोरिए, अवमूल्यन का पूर्वानुमान कर के, संबंधित देशों से पैसा बाहर ले जाना शुरू कर देते हैं, तब तो इससे संंबंधित मुद्रा का अवमूल्यन ही और बढ़ेगा, जो संबंधित देशों के मजदूरों की जिंदगी और मुश्किल बना देगा। 

नव-उदारवादी प्रवक्ता, जो ट्रंप के टैरिफों के जवाब में मुद्रा के अवमूल्य की वकालत करते हैं, या तो अवमूल्यन का मजदूरों की दशा पर क्या असर पड़ेगा इसे जानते ही नहीं हैं या उन्हें इसकी परवाह ही नहीं है।

नव-उदारवादी निज़ाम से बरी होने का मौक़ा

ट्रंप के टैरिफ वास्तव में इसका उपयुक्त मौका मुहैया कराते हैं कि समूची नव-उदारवादी व्यवस्था से बाहर निकला जाए, अमेरिका  के खिलाफ जवाबी टैरिफ लगाए जाएं, विनिमय दर को बनाए रखा जाए ताकि आयात के धक्के से पैदा होने वाली मुद्रास्फीति को रोका जा सके और भुगतान संतुलन की कठिनाइयां आने की सूरत में, व्यापार व पूंजी नियंत्रण लगाए जा सकें। इस सब के पूरक के तौर पर सरकारी खर्चों में बढ़ोतरी के जरिए और सबसे बढक़र ‘‘कल्याणकारी राज्य के कदमों’’ के जरिए, घरेलू आर्थिक गतिविधियों के स्तर तथा रोजगार को बढ़ाना होगा और इसके लिए संपदा पर कर लगाने के जरिए वित्त व्यवस्था करनी होगी, जबकि विडंबनापूर्ण है कि भारत में संपदा पर कर गायब ही हो गया है। इसका अर्थ होगा, घरेलू बाजार आधारित विकास के नियंत्रणात्मक निजाम की ओर वापस लौटना।

लेकिन, इस तरह की वापसी का कोई भी जिक्र,नव-उदारवाद के प्रवक्ताओं को भयभीत कर देता है। और उनके नजरिए का, जिसके पीछे आईएमएफ, विश्व बैंक तथा ऐसे ही अन्य संगठनों की ताकत है और जिसे इजारेदारी नियंत्रित मीडिया द्वारा आगे बढ़ाया जाता है, इतना जबर्दस्त असर है कि आम लोग तक, नियंत्रणात्मक दौर की ओर वापसी को किसी हद तक संशय की नजर से देखते हैं। 

बहरहाल, इस संदर्भ में तीन बातें दर्ज करने वाली हैं। पहली तो यह कि नियंत्रणात्मक निजाम में वृद्धि की दर बुनियादी तौर पर कृषि की वृद्धि की दर पर निर्भर करती है और कृषि की वृद्धि की दर में, जिसका गला कृषि की लाभकरता गायब होने के चलते नव-उदारवादी दौर में घोंटा ही जा रहा था, न सिर्फ नयी जान पड़ सकती है बल्कि अगर उपयुक्त कदम उठाए जाते हैं, तो वह पहले नियंत्रणात्मक दौर में जिस स्तर पर रही थी, उससे आगे निकल सकती है। दूसरे शब्दों में, नियंत्रणात्मक निजाम का मतलब पहले जो रहा था उसकी वापस लौटना भर नहीं होगा।

दूसरे, जहां तक बुनियादी खाद्यान्न उपभोग का सवाल है, पहले नियंत्रणात्मक दौर में जो कुछ रहा था, वह भी नव-उदारवाद के दौर में जो हासिल हुआ है, उससे तो बेहतर ही था। नव-उदारवाद के दौर में शुद्ध गरीबी, जिसे पोषणात्मक वंचितता से परिभाषित किया जाता है, पहले वाले दौर के मुकाबले बढ़ती ही गयी है। यह ग्रामीण भारत के संबंध में खासतौर पर सच है, जहां 2200 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन के आहार स्तर पर न पहुंच पाने वाली आबादी का अनुपात, 2017-18 में पूरे 80 फीसद पर पहुंच गया था।

तीसरे, पहले वाले नियंत्रणात्मक दौर में भी आय तथा संपदा की असमानता का स्तर, नव-उदारवादी दौर में जो रहा है, उससे कहीं कम रहा था। 

वर्ल्ड इनीक्वेलिटी डॉटाबेस के आंकड़े दिखाते हैं कि राष्ट्रीय आय में सबसे ऊपर की 1 फीसद आबादी का हिस्सा, 1982 तक घटाकर करीब 6 फीसद पर ले आया गया था (जबकि स्वतंत्रता प्राप्ति के समय पर यह करीब 12 फीसद था), यही हिस्सा अब बढ़कर 23 फीसद से ऊपर निकल गया है, जो असमानता में बहुत भारी बढ़ोतरी की ओर इशारा करता है। मेहनतकश जनता के अपनी नियति अपने हाथों में लेने एक आवश्यक शर्त यह है कि नव-उदारवाद को लांघा जाए और ट्रंप की आक्रामकता, हमें इसके लिए मौका देती है।           

(लेखक दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के आर्थिक अध्ययन एवं योजना केंद्र में प्रोफ़ेसर एमेरिटस हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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