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तालिबान बदला है या नहीं?

हाल फिलहाल में भले ही यह दिख रहा हो कि बिना किसी खून खराबे के ही तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया है, लेकिन हकीकत यह कि पिछले 20 साल में उसका इतिहास खून-खराबे का रहा है। मीडिया में खबर छप रही है कि तालिबानी, अफगान लोगों के घर के दरवाजे खटखटा रहे हैं, और उन लोगों को खोज रहे हैं जिन्होंने अफगान सरकार और अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठान की मदद की..
तालिबान बदला है या नहीं?

भारत का सार्वजनिक विमर्श ऐसा हो चला है कि दुनिया की गहरी और बीहड़ परेशानियों को हम हिंदू-मुस्लिम खांचे में देखने के आदी हो चुके हैं. इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि हम सही सवाल पूछने और सही जवाब खोजने से बहुत दूर भटक जाते हैं। तालिबान के मसले पर भी यही हो रहा है। इस मसले पर भी आम लोगों से सवाल पूछे जा रहे हैं। जबकि यह मसला दुनिया के मुल्कों और अफगानी समाज से अधिक जुड़ा हुआ है। इतिहास से लेकर अब तक की अफगानी यात्रा से निकला क्रूर सच यही है कि तालिबान अफगानिस्तान पर हुकूमत करने जा रहा है। इसलिए हम चाहे या ना चाहे सबसे जरूरी सवाल यही है कि तालिबान का रवैया क्या रहने वाला है? क्या वह 20 साल पुराने तालिबान से कुछ बदला है या नहीं? तो चलिए इसी सवाल के जवाब में अफगान मसले से जुड़े जानकारों की राय से रूबरू होते हैं-

कार्टर मालकशियन संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व सलाहकार हैं। तालिबान के रुख पर मीडिया में उनका बयान छपा है। वह कहते हैं कि तालिबान एक अबूझ पहेली है। वह क्या करेगा, क्या नहीं करेगा इसका अनुमान लगाना मुश्किल है? लेकिन जो एक चीज उसके जन्म से लेकर अब तक उसके साथ चली आ रही है, वह है इस्लामिक कानून पर भरोसा। उसे किसी भी तरह से लागू करवाने की इच्छा। अपनी संस्कृति, प्रथा और परंपराओं के प्रति पूरी तरह से अंधभक्ति। यह अब भी उनका केंद्रीय तत्व है। पूरा तालिबान समूह कठोर रुख अपनाने वाले धार्मिक विद्वानों से संचालित होता है। दुनिया में वह अपनी छवि बदलने की बात भले ही कर रहे हों और दुनिया भी इस उम्मीद में हो कि उनकी छवि बदल रही है लेकिन हकीकत यही है कि उनका केंद्रीय तत्व इस्लामिक नियम कानून ही है।

साल 1996 से लेकर 2001 तक तालिबान के शासन काल में अफगानिस्तान से बुनियादी मानव अधिकारों तक को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया था। बच्चियों को पढ़ने की इजाजत नहीं थी। औरतों को काम करने की इजाजत नहीं थी। औरतों को अकेले घर से बाहर निकलने की इजाजत नहीं थी। वह तब ही घर से बाहर निकल सकती थीं जब उनके साथ कोई ऐसा मर्द हो जिससे उनका खून का रिश्ता हो। सबको एक खास लंबाई तक दाढ़ी रखने का आदेश दिया गया था। सजा के तौर पर घोड़े मारना और पत्थर मारना बिल्कुल आम बात थी। चोरी करने पर हाथ काट दिया जाता था। टेलीविजन, सिनेमा, फोटोग्राफी, चित्रकारी और यहां तक की पतंगबाजी सब कुछ बंद था।

इसके पीछे की वजह उनकी कट्टर इस्लामिक मान्यताएं थीं, जिसमें उनका भरोसा ये है कि अगर लोग उनकी बताई हुई बातों से अलग चलेंगे तो अपवित्र हो जाएंगे। इन मान्यताओं में बदलाव के कोई मजबूत प्रमाण अब तक नहीं दिखे हैं। हाल फिलहाल में भले ही यह दिख रहा हो कि बिना किसी खून खराबे के उन्होंने काबुल पर कब्जा कर लिया हो, लेकिन हकीकत यह कि पिछले 20 साल में उनका इतिहास खून-खराबे का रहा है। मीडिया में खबर छप रही है कि तालिबानी, अफगान लोगों के घर के दरवाजे खटखटा रहे हैं, वह उन लोगों को खोज रहे हैं जिन्होंने अफगान सरकार और अमेरिकी सैन्य प्रतिष्ठान की मदद की। इसके पीछे बदले की मंशा है। जबकि तालिबान के प्रवक्ता कह रहे हैं कि वह अफगानिस्तान के लोगों को बिल्कुल परेशान नहीं करेंगे। इसी डर की वजह से जब काबुल पर तालिबान ने कब्जा किया तो राष्ट्रपति भाग गए और कुछ लोग भी किसी भी तरह से देश छोड़ने के लिए परेशान दिखे। एयरपोर्ट पर इधर-उधर भागते हुए लोगों का दृश्य तालिबान के इसी डर को दिखा रहा था।

लंदन के रॉयल यूनाइटेड सर्विस इंस्टीट्यूट के सदस्य एंटोनियो ग्युस्टेजी का मानना है कि जो नेता तालिबान की तरफ से इस समय विश्व बिरादरी से बात कर रहे हैं, वह थोड़े नरम मिजाज के लोग हैं। अपने व्यवहार से ठीक-ठाक भविष्य की उम्मीद पैदा कर रहे हैं। लेकिन तालिबान के जो बड़े नेता हैं, वह बहुत अधिक विवादास्पद हैं। बहुत अधिक अतिवादी हैं। विश्व बिरादरी भी उन्हें आतंकवाद, अतिवाद और कट्टरपंथ से जुड़ा हुआ मानती है।

इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप और यूनाइटेड स्टेट इंस्टीट्यूट ऑफ पीस जैसी संस्थाओं की रिपोर्ट नए तालिबान के उभार के बारे में बात करती हैं। इन रिपोर्टों के मुताबिक तालिबान अपने रुख में नरम हुआ है। खुद को अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार से जुड़े नियम कानूनों के अंदर लाने की कोशिश में भी है। अपनी प्रथाओं परंपराओं को लेकर नरमी भी बरतने को तैयार हो रहा है। औरतों के मसले पर थोड़ा उदार हो रहा है।

शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में  एनजीओ के साथ मिलकर काम की करने की योजना बना रहा है। साल 1990 में विदेश नीति के मातहत उसने यह गलती की थी कि उसे सिर्फ पाकिस्तान, यूनाइटेड अरब, अमीरात और सऊदी अरेबिया से ही मान्यता मिली और उसने दूसरे देशों की परवाह नहीं की। बल्कि इस बार वह हर देश से बात करने को तैयार हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि साल 2014 के बाद से तालिबान संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिकारियों से इस विषय पर बातचीत करते आया है कि किस तरह से नागरिकों को कम से कम नुकसान हो और मानवता के आधार पर अधिक से अधिक फायदा पहुंचाया जा सके।

ब्रुकिंग यूनिवर्सिटी की सीनियर फेलो वंदा फेलब्राउन का मानना है कि भले ही तालिबान इस्लामिक कानून को मानता हो लेकिन अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग तरह के नियम कानून है। जिनका अलग-अलग व्याख्याओं के आधार पर संचालन होता है। उनके पास कोई जस्टिस सिस्टम नहीं है। इसलिए इंसाफ और न्याय के नाम पर बहुत भयानक कृत्य किए जाते हैं।

अफगानिस्तान पर किताब लिखने वाले लेखकों का कहना है कि अफगानिस्तान मूलतः एक मर्दवादी समाज है। जिसमें औरतों की कोई खास इज्जत नहीं है। स्कूलों में नायक के तौर पर जिन्हें प्रेरणा के लिए इस्तेमाल किया जाता है वे सभी मर्दवादी किस्म के नायक हैं। स्त्री द्वेष को एक गुण के तौर पर बरता जाता है। हद तो यह है कि यह सारी बातें सिखाई जाती हैं। संस्कृति और प्रथा के नाम पर अपनाई जाती हैं। इस मामले में न तो शहरी अफगानी और न ही गांव देहात के इलाकों के अफगानी में किसी भी तरह का अंतर है। अच्छे से अच्छे और संभ्रांत परिवारों में औरतों को लेकर द्वेष है।

तालिबान के प्रवक्ता मीडिया में यह बयान दे रहे हैं कि अचानक से ऊपर से सबकुछ लागू कर समाज को पूरी तरह से नहीं बदला जा सकता। हर इलाके की अपनी मान्यताएं परंपराएं हैं। ऊपर से दबाव डालकर इसका असर खतरनाक हो सकता है। धीरे-धीरे इसमें सुधार किया जाएगा।

जबकि अफगानिस्तान के मामलों पर पकड़ रखने वाले सिंगापुर के रिसर्चर अब्दुल बासित का बयान इंडियन एक्सप्रेस में छपा है। अब्दुल बासित का कहना है कि तालिबान ने अब तक ऐसा कोई लिखित विजन या विचारधारा पेश नहीं की है कि वह अफगानिस्तान को किस तरह से चलाएगा। जबकि इसी तालिबान ने साल 2004 में अफगानिस्तान सरकार के जरिए बने संविधान को खारिज कर दिया था।

ऐसा क्यों है? इसका जवाब यही निकलता है कि तालिबान इस्लामिक कानून से हटने वाला नहीं है। वह दुनिया के सामने ऐसा कोई दस्तावेज पेश नहीं करने वाला है जिससे उसकी जिम्मेदारी तय हो। जो भी कुछ हो रहा है वह तालिबान के जरिए दुनिया के सामने पेश किया जा रहा बाहरी दिखावा है। अगर वह सचमुच गंभीर होता तो अपना एक विजन जरूर पेश करता। इस्लामिक कानून के अलावा सब कुछ बुरा मानता है। तालिबान में कोई मॉडरेट नहीं है, बल्कि बहुत अधिक हार्डलाइनर किस्म के नेता हैं और थोड़ा कम हार्डलाइनर किस्म के नेता हैं जो मुख्यतः इस्लामिक कानून से संचालित होते हैं। इसी के जरिए लोगों से ताकत हासिल करते हैं। यही उनकी शक्ति का सबसे केंद्रीय पहलू है। इसे वह नहीं छोड़ सकते।

अफगानिस्तान की महिला अधिकार कार्यकर्ता महबूबा सिराज इंडिया टुडे से बात करते हुए कहती हैं कि यह बड़ा गंभीर सवाल है कि तालिबान बदला है या नहीं। 20 साल पहले जब अफगानिस्तान की कमान तालिबान के हाथ में आई थी तो वह बहुत ही दर्दनाक और खतरनाक दौर था। अगर तालिबानियों को 20 साल पहले की अपनी क्रूरता की याद हो तो उन्हें जरूर बदलना चाहिए। अगर लोगों के मन में तालिबान को लेकर नफरत रहेगा तो वह कभी भी अफगानिस्तान पर राज नहीं कर पाएंगे। दुनिया के मुल्कों ने अफगानिस्तान के साथ बहुत बुरा किया है। अफगानिस्तान के लोग अशरफ गनी और हामिद करजई से कोई मोहब्बत नहीं करते थे। और तालिबान को अगर लोगों के मन में अपने लिए भरोसा पैदा करना है तो उन्हें लोगों की भलाई करके दिखानी पड़ेगी। एक अफगानी होने के नाते मैं यही उम्मीद करूंगी कि मेरे देश के साथ अच्छा हो।

'हर अफ़ग़ानिस्तान' नामक संस्था से जुड़ी मरियम वारदाक कहती है कि अफगानिस्तान के बुरे हालात के लिए केवल अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि अफगानिस्तान की जनता और अफगानी सरकार भी बहुत अधिक जिम्मेदार है। जब यह पता था कि जब तालिबान आएगा तो सबसे अधिक हमला औरतों के अधिकार पर होगा इसलिए औरतों के मसले पर भी तालिबान से पहले बातचीत करने की जरूरत थी। हम बहुत पहले से कहते आ रहे थे कि दोहा में तालिबान के साथ जो बातचीत हो रही थी तो उनसे बातचीत करने के लिए अधिक से अधिक औरतों के दल को भी भेजा जाए। इस्लामिक धार्मिक ग्रंथों की विद्वान औरतों को तालिबान से बातचीत करने के लिए भेजा जाए। क्योंकि अगर ऐसी औरतें तालिबान से बातचीत करती हैं तो उनके सामने इस्लामिक ग्रंथों में औरतों के अधिकार से जुड़े तर्क रख पातीं।

अफगानिस्तान में लर्न नामक पढ़ाई लिखाई से जुड़ी गैर सरकारी संगठन की निदेशक पछताना दुर्रानी एनडीटीवी से बातचीत करते हुए कहती हैं कि 20 साल पहले जब तालिबान की हुकूमत आई थी तब भी उन्होंने कहा था कि औरतों को पढ़ने लिखने की आजादी मिलेगी। लेकिन हमें केवल धार्मिक किताबें पढ़ाई जाने लगीं। बहुत सारे बंधनों में रहकर इनसे अलग किताबें पढ़ने की हमें इजाजत नहीं थी। तालिबानी हाल-फिलहाल फिर से कह रहे हैं कि औरतों को पढ़ने लिखने की आजादी मिलेगी। लेकिन सवाल ये है कि हमें क्या पढ़ाया जाएगा? धार्मिक किताबें तो सबको पढ़नी पड़ती हैं। यह पहले से चला रहा है। लेकिन क्या हम प्रोफेशनल विषय पढ़ेंगे? क्या हमें प्रोफेशनल काम करने की इजाजत मिलेगी?

मैं अफगानिस्तान के कंधार से आती हूं। तालिबानियों ने यहां पर काम करने वाली औरतों को कहा है कि वह काम करना बंद कर दें। उनकी जगह पर उनके परिवार के किसी मर्द सदस्य को उनकी नौकरी मिल जाएगी। अफगान सरकार भी मर्दों से भरा हुआ था और तालिबान भी मर्दों से भरा हुआ है। इन दोनों की आपसी लड़ाई में अफगानिस्तान की औरतें पिस रही हैं। औरतों को बिना उनके अधिकार दिए तालिबान अफगानिस्तान पर हुकूमत नहीं कर सकता है। अफगानिस्तान कोई सऊदी अरब नहीं है कि तेल के दम पर चल जाए। इसे चलाने के लिए उन 50 फ़ीसदी महिलाओं की भी जरूरत पड़ेगी जिन्हें तालिबान काम करने से रोकता है।

राजनयिक मामलों के जानकारों का कहना है कि 20 साल पहले का तालिबान अपने भीतर ही सीमित था। आज का तालिबान ऐसा है जो दिखावटी ही सही लेकिन अपने कामकाज से दुनिया के दूसरे मुल्कों में बनने वाली अपनी छवि को लेकर ज्यादा सावधान है। काबुल पर कब्जा करने के बाद तालिबान की प्रेस कॉन्फ्रेंस से यही लग रहा था। फिर भी तालिबान बदला है या नहीं इस सवाल का सबसे पुख्ता जवाब तो तभी मिलेगा जब तालिबान दुनिया के सामने अफगानिस्तान को संभालने का प्रशासकीय ढांचा पेश करेगा। यही वह बुनियाद होगी जो यह तय करेगी कि तालिबान अफगानिस्तान को कौन सी दिशा देना चाह रहा है?

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