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ख़बरों के आगे–पीछे: भाजपा समर्थकों की बेचैनी और हताशा

वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन अपने साप्ताहिक कॉलम में जाति जनगणना, अमेरिका की टैरिफ़ वार के प्रति भारत के रुख़ और अन्य मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं।
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ईडी के मुंबई दफ़्तर में किसकी फ़ाइलें जलीं? 

प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के मुंबई वाले दफ्तर में पिछले सप्ताह लगी आग में कई फाइलें जल कर खाक होने की खबर है। ईडी दफ्तर में लगी आग का मुद्दा ज्यादा चर्चा में इसलिए है, क्योंकि इस दफ्तर में सत्तापक्ष और विपक्ष के कई नेताओं के मुकदमों से जुड़ी फाइलें हैं। लेकिन इससे भी ज्यादा चर्चा इस बात की है कि गुजरात के भगोड़े हीरा कारोबारियों मेहुल चोकसी और नीरव मोदी की फाइलें भी मुंबई के बालार्ड एस्टेट ईडी दफ्तर में ही हैं। 

गौरतलब है कि मेहुल चोकसी को पिछले दिनों बेल्जियम में गिरफ्तार किया गया है और उसे भारत लाने की कोशिश चलना बताया जा रहा है। मेहुल चोकसी और नीरव मोदी के अलावा महाराष्ट्र सरकार में शामिल अजित पवार की एनसीपी के नेता छगन भुजबल की फाइल भी ईडी के मुंबई दफ्तर में ही है और शरद पवार की पार्टी के दिग्गज नेता अनिल देशमुख की फाइल भी वहां है। हालांकि उम्मीद जताई जा रही है कि जरूरी और संवेदनशील मामलों की फाइलें बची होंगी या उन फाइलों की सॉफ्ट कॉपी कंप्यूटर में सुरक्षित होंगी। लेकिन कंप्यूटर आदि भी जलने की खबर है। 

जानकारों का कहना है कि जो मामले अदालत में होते हैं उनसे संबंधित दस्तावेजों की ओरिजिनल कॉपी अदालत में जमा होती है और ईडी कार्यालय में उनकी फोटोकॉपी रहती हैं। अगर ऐसा है तो इसका मतलब है कि लोगों की चिंता करने की जरुरत नहीं है। 

अपना घर ठीक कर रही है न्यायपालिका

राज्यपालों और राष्ट्रपति को राज्यों के विधेयकों पर एक निश्चित समय सीमा में फैसला करने का आदेश देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर सरकार ने आधिकारिक रूप से कुछ नहीं कहा है लेकिन उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और भाजपा के कई सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट पर जम कर हमला बोला और उसे हद में रहने की नसीहत दी। असल में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला तमिलनाडु के राज्यपाल के खिलाफ दायर राज्य सरकार की एक याचिका पर दिया था। इस फैसले की आलोचना में भाजपा के इकोसिस्टम की ओर से कहा गया कि अदालतों में जज फैसला रिजर्व कर लेते है और महीनों-सालों तक फैसला रिजर्व रहता है। 

इस बहस के बीच खबर आई कि झारखंड हाई कोर्ट में एक मामले की सुनवाई के बाद जज ने तीन साल से फैसला सुरक्षित रख हुआ है। यहां भी तीन साल का मामला आया। झारखंड के तीन वकीलों ने यह मामला सुप्रीम कोर्ट में उठाया कि एक फैसला तीन साल से रिजर्व है। यह मामला आजीवन कारावास की सजा पाए चार कैदियों का है। सुप्रीम कोर्ट ने तीन साल तक फैसला रिजर्व रखने को नागरिकों के जीवन के अधिकार और उनके मौलिक अधिकार का हनन बताते हुए फटकार लगाई और मामला अपने पास मंगा लिया है। इतना ही नहीं, झारखंड हाई कोर्ट में जितने भी फैसले दो महीने से ज्यादा समय से रिजर्व हैं, उनकी भी पूरी सूची सुप्रीम कोर्ट ने मांगी है।

अमेरिका के सामने समर्पण की तैयारी

भारत और अमेरिका के बीच व्यापार संधि को लेकर बहुत गंभीरता से बात हो रही है। भारत पहला देश हो सकता है, जिसके साथ अमेरिका की व्यापार संधि हो। संधि पर दस्तखत इसी साल हो जाने की संभावना है। जाहिर है कि अमेरिका के साथ व्यापार संधि ऐसे ही नहीं हो सकती है। अमेरिका ने दुनिया भर के देशों पर जैसे को तैसा टैरिफ लगाया है और उन्हीं देशों के साथ शुल्क में समझौता होगा, जो अमेरिका के साथ व्यापार घाटे वाला कारोबार नहीं करेंगे। यानी जिन देशों के साथ आयात निर्यात का संतुलन ठीक नहीं होगा और टैरिफ में समानता नहीं होगी उनके साथ अमेरिका करार नहीं करेगा। इसीलिए कहा जा रहा है कि भारत टैरिफ में समानता लाने जा रहा है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान उनकी मौजूदगी में कहा कि भारत बहुत टैक्स लगाने वाला देश है। लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि अब भारत टैक्स घटाने जा रहा है। 

हालांकि उस समय भारत की ओर से सूत्रों के हवाले से इसका खंडन कराया गया था। लेकिन अब कहा जा रहा है कि सचमुच भारत अनेक उत्पादों पर टैरिफ कम करने जा रहा है। ट्रंप ने अमेरिकी मोटर बाइक हार्ले डेविडसन का मुद्दा उठाया था, जिस पर भारत में सौ फीसदी टैक्स लगता था। बाद में सरकार ने इसमें बड़ी कटौती की। अब कहा जा रहा है कि भारत सरकार इस पर टैरिफ जीरो करने जा रही है। 

भाजपा समर्थकों की बेचैनी और हताशा

जाति जनगणना के फैसले के बाद भाजपा के पूरे इकोसिस्टम को मानो सांप सूंघ गया है। पूरा सोशल मीडिया भाजपा समर्थकों के निराशाजनक पोस्ट से भरा हुआ है। पहलगाम आतंकवादी हमले के बाद से भाजपा समर्थक दावा कर रहे थे कि पाकिस्तान के खिलाफ ऐसा एक्शन होगा, जैसा पहले कभी नहीं हुआ। कोई बलूचिस्तान बनाने की बात कर रहा था, कोई पीओके छीन लेने का दावा कर रहा था, कोई जनरल आसीम मुनीर को तो कोई हाफिज सईद मार डालने का दावा कर रहा था। 

हमले के बाद से भाजपा समर्थकों में उत्साह था कि धर्म पूछ कर हत्या हुई है तो अब जाति का मुद्दा अपने आप परदे के पीछे चला गया। लेकिन अचानक मोदी सरकार ने जाति गणना का बम फोड़ दिया। भाजपा समर्थकों की समझ में नहीं आ रहा है कि वे क्या करें? सोशल मीडिया में कई भाजपा समर्थक तंज कर रहे हैं कि विपक्ष में रह कर कांग्रेस अपनी सरकार चला रही है। जाति गणना को देश तोड़ने वाला मुद्दा बता कर कांग्रेस को दोष दिया जा रहा है कि वह विपक्ष में रह कर भी देश तोड़ने का एजेंडा लागू करवा ले रही है। 

ऐसे ही सोशल मीडिया में कई लोग कह रहे हैं कि पहले धर्म पूछ कर मारा गया और अब जाति पूछ कर मारा जाएगा। कई भाजपा समर्थकों को लग रहा था कि कुछ भी हो जाए आरएसएस जाति गणना नहीं कराने देगा। अब उनका गुस्सा आरएसएस पर भी निकल रहा है। आरएसएस की सौ साल की सक्रियता का हासिल जाति गणना को बताया जा रहा है।

भक्त पत्रकारों की बेचैनी और बेशर्मी

जाति आधारित जनगणना कराने के सरकार के फैसले से सिर्फ भाजपा के नेता और समर्थक ही हैरान नहीं हुए बल्कि सरकार की भक्ति में लीन पत्रकारों बिरादरी भी बेचैन हुई कि उनकी सरकार ने यह क्या कर दिया। ये तमाम पत्रकार भाजपा नेताओं से भी आगे बढ़ कर दावा कर रहे थे कि मोदी के रहते कभी जाति गणना नहीं हो सकती, क्योंकि मोदी समाज को बांटने वाला फैसला नहीं कर सकते। उन्होंने भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और प्रधानमंत्री मोदी की ओर से बढ़-चढ़ कर दावा किया था कि विपक्ष देश बांटने की साजिश कर रहा है और भाजपा, संघ, सरकार मिल कर देश बचा रहे हैं। वे जाति गणना की बात करने वाले राहुल गांधी को अरबन नक्सल बता रहे थे। इसीलिए जब सरकार ने जाति गणना कराने का फैसला किया तो सबसे ज्यादा परेशानी ऐसे पत्रकारों को हुई। 

लेकिन बेशर्मी भी तो कोई चीज होती है, जो ऐसे पत्रकारों में कूट-कूट कर भरी हुई है। उन्होंने जिस अंदाज मे जाति गणना नहीं कराने का समर्थन किया था उससे आगे बढ़ कर जाति गणना के फैसले का समर्थन कर रहे हैं। अब वे सरकार के फैसले को मास्टरस्ट्रोक बताते हुए कह रहे हैं कि मोदी ने तो कांग्रेस और विपक्ष का एजेंडा ही छीन लिया। एक पत्रकार ने खोज कर बताया कि अब मुस्लिम समुदाय की जातियों की भी गिनती होगी और तब पता चलेगा कि उनमें कितना विभाजन है। ऐसे ही बचकाना तर्कों से मोदी के फैसले को मास्टरस्ट्रोक बताने का तमाशा चल रहा है।

जेएनयू छात्र संघ के नतीजों का सबक़ 

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी यानी जेएनयू छात्र संघ के चुनाव के नतीजे 'इंडिया’ ब्लॉक की पार्टियों के लिए एक सबक है। 'इंडिया’ ब्लॉक की सभी पार्टियों के छात्र संगठनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। यहां तक कि वामपंथी पार्टियों के छात्र संगठन भी अलग अलग लड़े। नतीजा यह हुआ है कि आरएसएस के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी को बहुत फायदा हुआ है। करीब 10 साल के बाद एबीवीपी ने जेएनयू छात्र संघ के सेंट्रल पैनल में कोई पद हासिल किया। 2015 की तरह इस बार भी उसने संयुक्त सचिव के पद पर जीत हासिल की है। एबीवीपी के वैभव मीणा ने सीपीआई माले के छात्र संगठन आईसा के नरेश कुमार को हराया। मीणा को 1,518 वोट मिले, जबकि नरेश कुमार को 1,433 यानी मीणा ने 85 वोट से जीत हासिल की। तीसरे स्थान पर सीपीएम के छात्र संगठन एसएफआई समर्थित प्रोग्रेसिव स्टूडेंट यूनियन की निगम कुमारी को 1,265 वोट मिले। इसका मतलब है कि अगर दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां साथ मिल कर लड़ी होतीं तो एक हजार से ज्यादा वोटों से उनकी जीत होती। इसी तरह की लड़ाई हर सीट पर हुई। सेंट्रल पैनल की चारों सीटों पर एबीवीपी के उम्मीदवार का नजदीकी मुकाबला हुआ। ऐसा नहीं है कि चुनाव से पहले एकता बनाने के प्रयास नहीं हुए। लेकिन सभी पार्टियों ने अपनी टैक्टिकल लाइन समझाई और अकेले चुनाव लड़ गईं। इसी टैक्टिकल लाइन पर पार्टियां भी विधानसभा चुनावों में अपने तेवर दिखाती हैं। बिहार विधानसभा चुनाव से पहले यह सभी पार्टियों के लिए सबक है कि अगर उन्होंने एकता नहीं रखी तो मुश्किल होगी। 

गौरतलब है कि बिहार में तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों की आपस में भी तनातनी है और गठबंधन में भी वे ज्यादा सीट के लिए दबाव बना रही हैं। कांग्रेस अलग दबाव की राजनीति कर रही है।

भाजपा को हिंदी का मुद्दा छोड़ना पड़ा

लगता है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू करने और हिंदी अनिवार्य करने का मुद्दा अब ठंडे बस्ते में चला गया है। अब कहीं इस बात की चर्चा नहीं हो रही है और न विवाद की कोई खबर आ रही है। गौरतलब है कि कुछ दिन पहले तमिलनाडु सरकार और केंद्र सरकार के बीच हिंदी को लेकर छिड़ी जंग को देख कर लग रहा था कि हिंदी का मुद्दा ही अगले साल तमिलनाडु में होने वाले विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ा मुद्दा होगा। लेकिन अचानक यह मुद्दा ठंडा पड़ गया। तमिलनाडु में इस मुद्दे के ठंडा पड़ने का एक कारण तो यह है कि भाजपा ने अन्ना डीएमके से तालमेल का ऐलान किया है और अन्ना डीएमके को भी हिंदी को लेकर आपत्ति है। बताया जा रहा है कि अन्ना डीएमके और दूसरी सहयोगी पीएमके ने हिंदी के मुद्दे को पीछे करने का दबाव डाला। लेकिन उसके साथ ही एक घटनाक्रम महाराष्ट्र में हुआ, जिसके बाद भाजपा का पीछे हटना तय हो गया। महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने कक्षा पांच तक हिंदी अनिवार्य करने के फैसले की घोषणा कर की तो उसका भारी विरोध शुरू हुआ। विपक्षी पार्टियों के साथ-साथ सरकार में शामिल दोनों घटक दलों, शिव सेना और एनसीपी ने भी इसका विरोध किया। इस विरोध के बाद महाराष्ट्र सरकार को फैसला वापस लेना पड़ा। जब एक भाजपा शासित राज्य ने हिंदी अनिवार्य करने का फैसला वापस लिया है तो जाहिर है कि भाजपा दूसरे राज्यों में इसे अनिवार्य बनाने का दबाव नहीं डाल सकती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

 

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