‘केंद्र के इन कृषि क़ानूनों को रद्द किए जाने तक यहीं रहेंगे’

पंजाब के कपूरथला ज़िले के गांव, कलेवल के सत्तर-वर्षीय समिंदर सिंह दिल्ली के सिंघू बॉर्डर पर बने एक अस्थायी टेंट के अंदर दस अन्य किसानों के साथ बैठे हुए हैं। टेंट के बगल में इनके ट्रैक्टर और एक कार खड़ी हैं। और कुछ ही इंच की दूरी पर दिल्ली पुलिस और विभिन्न सशस्त्र बलों की ओर से लगाए गए ज़ंजीर वाले बैरिकेड्स की श्रृंखला की पहली परत है।
केंद्र के साथ उनकी बातचीत नाकाम होने पर अगर संयुक्त किसान मोर्चा का नेतृत्व दिल्ली की ओर मार्च करने का आह्वान करता है, तो समिंदर सिंह और 23 से 80 वर्ष की आयु वाले किसानों के समूह से बने इसी "अग्रिम क़तार के योद्धाओं" का सबसे पहले भारी सशस्त्र रैपिड एक्शन फ़ोर्स (आरएएफ़) के जवानों से सामना होगा। आरएएफ़ ने प्रदर्शनकारी किसानों पर नज़र रखते हुए सशस्त्र बलों की पहली परत बनाई है। आख़िरकार हालात पैदा हो ही जाते हैं, तो किसान इस पहली परत को भंग करेंगे, फिर उनका सामना उस सीमा सुरक्षा बल से होगा, जिनसे किसानों को राजधानी की तरफ़ जाने से रोकने के लिए दूसरी परत बनाई गई है।
आश्वस्त और शांत दिखते समिंदर कहते हैं, "हम तो बस अपने पूर्वजों की साहसी परंपराओं का अनुसरण कर रहे हैं। अगर हमारे नेता यहां से आगे बढ़ने का फ़ैसला करते हैं, तो इन हथियारबंद सेनाओं का सामना करने वाले सबसे पहले हम होंगे। हम किसी भी हिंसा का सहारा लिए बिना ऐसा करेंगे और हमारे पीछे जो किसान भाई हैं, उनके लिए रास्ता बनाने के लिए हर बाधा को दूर करने की कोशिश करेंगे। इस तरह के जन आंदोलन बलिदान की मांग करते हैं और अगर सरकार हमें पीटना चाहती है, हमें गोली मार देती है, हमारे ख़िलाफ़ आंसू गैस का इस्तेमाल करती है, तो हम इन सबके लिए तैयार हैं।”
कहा जाता है कि देश के विभिन्न हिस्सों से तक़रीबन 90,000 किसान, महिलाएं और बच्चे सिंघू बॉर्डर पर डेरा जमाए हुए हैं और ये सब 27 नवंबर से तीन कृषि बिलों का विरोध कर रहे हैं।
यह सब धैर्यपूर्वक सुन रहे पचास वर्षीय सरवन सिंह बाउपुर कपूरथला ज़िले के किसान मज़दूर संघर्ष समिति के अध्यक्ष हैं। सरवन बीस-सदस्यीय जत्थे (या दस्ते) का नेतृत्व कर रहे हैं, भावुक होकर ऊंची आवाज़ में कहते हैं, “हम यहां बैठे हुए हैं और हमारा संकल्प मज़बूत है। हमारी समिति ने हमें निर्देश दिया है कि क़ानून को अपने हाथ में न लें। अगर सरकार ने कल हमारे ख़िलाफ़ क्रूर कार्रवाई करने की योजना बनाई है, तो वह ऐसा कर सकती है और आज ही ऐसा कर सकती है, लेकिन हम जवाबी कार्रवाई नहीं करेंगे।”
सरवन का कहना है कि उनकी प्रेरणा पांचवें सिख गुरु, गुरु अर्जन देव हैं, जिन्हें मुगल सम्राट,जहांगीर ने 1606 में क़ैद कर लिया था। अर्जन देव ने जहांगीर के बार-बार कहने पर भी इस्लाम अपनाने से इनकार कर दिया था, और मार दिए जाने से पहले उन्हें पांच दिनों तक यातना दी गयी थी।
सरवन कहते हैं,“हमारे इतिहास को देखें और आप पाएंगे कि हम युद्ध के मैदान में हमेशा ही अच्छी तैयारी के साथ उतरते रहे हैं। हम तीनों कृषि क़ानूनों को निरस्त करवाने को लेकर दृढ़ हैं और इसके लिए कोई भी क़ीमत चुकाने को तैयार हैं। हम विरोध की अग्रिम पंक्ति भी हैं और किसी भी तरह की सरकारी कार्रवाई का सामना करने वाले पहले लोगों में हम ही होंगे।”
संयुक्त किसान मोर्चा 40 से ज़्यादा किसान यूनियनों का एक छतरी संगठन है और यह कृषि से जुड़े जिन तीन क़ानूनों को निरस्त करने की मांग कर रहे हैं, उनमें हैं-कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (कृषि और संवर्धन) अधिनियम, 2020, मूल्य आश्वासन पर किसान (सशक्तीकरण और संरक्षण) समझौता,जो अनुबंध कृषि से सम्बन्धित है और आवश्यक कृषि-वस्तुओं के मूल्य निर्धारण पर एक और क़ानून। प्रधानमंत्री,नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने बिना किसी परामर्श के इन क़ानूनों को उस समय अध्यादेशों के ज़रिए पारित करा लिया था, जब कोविड-19 महामारी अपने चरम पर थी। और सरकार अब ज़ोर देकर कह रही है कि ये क़ानून भारतीय किसानों के लिए क्रांतिकारी और गेम-चेंजर हैं।
इस लेख के लेखक से पीपुल्स आर्काइव ऑफ़ रूरल इंडिया या PARI के संस्थापक-संपादक और द हिंदू अख़बार के ग्रामीण मामलों के पूर्व संपादक,पी.साईनाथ बताते हैं, "ये क़ानून असंवैधानिक हैं। कृषि संविधान में राज्य का का विषय है और केंद्र इस पर क़ानून नहीं बना सकता है, निश्चित रूप से राज्यों की सहमति और परामर्श के बिना तो बिल्कुल नहीं। दूसरी बात, ऐसा लगता है कि ये क़ानून द्वारा कॉरपोरेट्स के लिए ही डिज़ाइन किए गए हैं।”
पहली नज़र में तो ऐसा लगता है कि किसान महज़ न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए लड़ रहे हैं। प्रधानमंत्री ने बार-बार कहा है कि एमएसपी और कृषि उपज विपणन समितियां पहले की तरह ही बनी रहेंगी, लेकिन किसानों और सरकार के बीच विश्वास की भी कमी है। वास्तव में, एमएसपी को इन क़ानूनों में बिल्कुल भी शामिल नहीं किया गया है, और किसानों के लिए एक और समस्या यह है कि ये नए क़ानून कृषि उत्पादन और ख़रीद की मौजूदा प्रणाली को तो बदल देते हैं, लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं देते है कि एमएसपी प्रणाली लागू रहेगी, और प्रधानमंत्री या सत्तारूढ़-दल के अन्य नेताओं के मौखिक आश्वासन तो किसानों को बिल्कुल स्वीकार्य नहीं हैं।
दिलचस्प बात है कि 2011 में जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने उपभोक्ता मामलों के कार्यकारी समूह की अध्यक्षता की थी। उन्होंने केंद्र सरकार को जो रिपोर्ट सौंपी थी,उसमें कहा गया था कि सरकार को “एमएसपी इसलिए लागू करना चाहिए, क्योंकि बिचौलिए बाज़ार के कामकाज में अहम भूमिका निभाते हैं और कई बार किसानों के साथ उनका अग्रिम अनुबंध होता है। सभी आवश्यक वस्तुओं के सम्बन्ध में हमें अनिवार्य वैधानिक प्रावधानों के ज़रिए किसानों के हितों की रक्षा करनी चाहिए ताकि किसान और व्यापारियों के के बीच होने वाला किसी भी तरह का लेनदेन एमएसपी से कम पर नहीं हो।”
दिल्ली से इसके पड़ोसी राज्यों-हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के साथ लगने वाले चार बॉर्डरों पर शिविर लगाए किसानों की भी वही मांग है, जो कि मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने 2011 में मांग की थी।
किसानों के लिए गारंटेड ख़रीद एक और बड़ा मुद्दा है। साईनाथ कहते हैं कि एमएसपी और गारंटेड ख़रीद को साथ-साथ चलाना होगा।वह बताते हैं, “अगर आप ख़रीदारी नहीं करते हैं, तो उच्च एमएसपी की घोषणा बेमानी हो जाती। सरकारें अक्सर उच्च एमएसपी घोषित तो कर देती हैं और फिर ख़रीद नहीं करती हैं, इसलिए इन दोनों को एक साथ-साथ चलाना होगा।”
साईनाथ का मानना है कि ये क़ानून किसानों के लिए डेथ वारंट है। "मुझे इसे इस तरह से कहना चाहिए कि ये क़ानून कृषि को नरक की तरफ़ ले जाने वाले हाईवे के नए मील के पत्थर हैं।" लेकिन, अगर ये क़ानून वापस ले भी लिए जाते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं होगा कि भारत ने कृषि संकट को हल कर लिया। “इसका सीधा सा मतलब यही है कि हम वापस वहीं पहुंच जायेंगे, जहां हम इन क़ानूनों के पारित होने से पहले थे, जो कि अच्छी जगह नहीं है। लेकिन, इन क़ानूनों को निरस्त नहीं करने का मतलब होगा-मौजूदा संकट का गंभीर रूप से बढ़ते जाना।”
साईनाथ इसे और साफ़ करते हुए कहते हैं कि ये क़ानून सिर्फ़ किसानों को ही प्रभावित नहीं करते, ये क़ानून हर नागरिक के क़ानूनी निवारण के अधिकार को गंभीरता से ध्वस्त कर देते हैं।
जिस समय 5 जनवरी की शाम को गृह मंत्रालय ने बीएसएफ़ को सिंघू बॉर्डर पर बैरिकेडिंग की दूसरी परत की रक्षा करने का आदेश दिया, उस समय आरएएफ़ आंसू गैस, एके -47 और राइफ़लों के साथ ज़ंजीर बंद और कांटेदार तारों वाली बैरिकेड के दोनों तरफ़ खड़ी थी, इस लेखक ने कुछ सैन्यकर्मियों से पूछा कि क्या उन्हें लगता है कि प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ ताक़त का इस्तेमाल किया जा सकता है और वे गोलियों, छर्रों या रबर की गोलियों मे से कौन से हथियार ले जा रहे हैं ?
इस बॉर्डर पर गश्त कर रही और आरएएफ के ठीक पीछे तैनात बीएसएफ इकाई की व्यवस्था में लगे एक सब-इंस्पेक्टर ने कहा, "हम रबर-बुलेट गन या पेलेट गन का इस्तेमाल नहीं करते हैं।"
बीएसएफ़ को जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान के साथ लगने वाली भारत की सीमा पर आतंकवादियों के ख़िलाफ़ ऑपरेशन के लिए जाना जाता है। हालांकि, पुलिस इन किसानों को 27 नवंबर को हरियाणा सरकार द्वारा बिछाए गए बैरिकेडों को तोड़ते हुए सिंघू बॉर्डर तक पहुंचने से नहीं रोक सकी थी। आज, एक महीने और दस दिन बाद, युद्धक्षेत्र की सीमारेखा खिंच गई हैं और ख़ासकर अगर सरकार और किसानों के बीच की बातचीत नाकाम हो जाती है, तो इस टकराव का नतीजा क्या होगा, इसका अंदाज़ा किसी को नहीं है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके विचार निजी हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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