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उत्तर प्रदेश : बिल्कुल पूरी नहीं हुई हैं जनता की बुनियादी ज़रूरतें

लोगों की बेहतरी से जुड़े सरकारी मानकों के निगाह से देखने पर उत्तर प्रदेश में घाव ही घाव नजर आते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, ग़रीबी बेरोज़गारी के के हालात इतने बुरे हैं कि लगता है जैसे योगी सरकार ने इन घावों पर कोई मलहम ही नहीं लगाया है।



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उत्तर प्रदेश में तकरीबन 22 करोड लोग रहते हैं। 22 करोड़ लोग पाकिस्तान में भी रहते हैं। उसी पाकिस्तान में जिसका नाम लेकर के मोदी और योगी की पार्टी उत्तर भारत में नफरत की राजनीति को देती है। उस पाकिस्तान की प्रति व्यक्ति आय 90 हजार सालाना के आसपास है। लेकिन उत्तर प्रदेश की प्रति व्यक्ति आमदनी 44600 सलाना है। यह भारत की औसत सालाना आय 95 हजार से आधी से भी कम है। अगर औसत आमदनी के मामले में रैंकिंग की जाए तो भारत के 36 सूबे ( राज्य और केंद्र शासित प्रदेश) में उत्तर प्रदेश का 32 वा नंबर है।

उत्तर प्रदेश की इतनी कम औसत आमदनी बिना कोई आंकड़ा पेश किए हुए भी उत्तर प्रदेश की दर्दनाक तस्वीर बता सकती है। अगर साल भर में औसतन उत्तर प्रदेश का एक व्यक्ति महज ₹44 हजार कमा पा रहा है तो आप खुद सोच सकते हैं कि उत्तर प्रदेश का समाज कितना पिछड़ा हुआ होगा? उत्तर प्रदेश के अधिकतर लोग कितनी बीहड़ जीवन दशाओं में जी रहे होंगे? तो चलिए उत्तर प्रदेश की सालाना औसत आमदनी को प्रस्थान बिंदु मानते हुए उत्तर प्रदेश को देश में मौजूद दूसरे विकास के पैमाने पर देखते हैं।

अगर औसत आमदनी इतनी कम है तो स्वाभाविक है कि जिंदगी की बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिहाज से उत्तर प्रदेश के ढेर सारे लोग गरीब भी होंगे। नीति आयोग का मल्टी डाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स का आंकड़ा यही कहता है। मल्टीडाइमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स के तहत उत्तर प्रदेश भारत का तीसरा सबसे गरीब राज्य है। जहां की तकरीबन 37% आबादी बहुआयामी गरीबी की शिकार है।

अगर मल्टीडाइमेंशनल इंडेक्स से जुड़े 12 सूचकांकों को आधार बनाकर कहा जाए तो उत्तर प्रदेश का मानव संसाधन भारत में सबसे अधिक वंचना का शिकार है। उत्तर प्रदेश की बड़ी आबादी उन मूलभूत सुविधाओं और जरूरतों से दूर है जिनके होने पर किसी की यह क्षमता बनती है कि वह गरीबी के चक्र को तोड़ पाए। मतलब उत्तर प्रदेश के 37% लोग इतने गरीब हैं जिनकी रहनुमा अगर सरकार नहीं बनेगी तो वह अपनी गरीबी को नहीं तोड़ सकते।

इतनी गरीबी में पढ़ाना लिखाना भी कईयों के लिए मुश्किल होता है। शिक्षा का हाल बेहाल होता है। नीति आयोग के द सक्सेस ऑफ आउर स्कूल क्वालिटी इंडेक्स के रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश भारत का सबसे पिछड़ा राज्य है। सबसे निचले पायदान पर खड़ा है। साल 2019 में प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक ओवरऑल परफॉर्मेंस स्कोर केरल के लिए 76.6 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश के लिए 36.4 प्रतिशत मिले। यानी अपने शिक्षा की हालत सुधारने के लिए अब भी उत्तर प्रदेश को जमीन और आसमान के बराबर फासले को तय करना है।

शिक्षा की ऐसी बदहाली समाज की पूरी चिंतन धारा पर हमला करती है। लोगों को अस्पताल, डॉक्टरों शिक्षकों और स्कूलों से जुड़ी चिंताओं से ज्यादा मंदिर मस्जिद के बहस में उलझा कर रख दिया जाता है। मोदी और योगी की सरकार ने सांप्रदायिकता के माहौल रचने के सबसे बड़े खिलाड़ी हैं। जिसका नतीजा यह हुआ है कि नीति आयोग का स्वास्थ्य सूचकांक कहता है कि हेल्थ आउटकम, बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं और मरीजों की संख्या के मुताबिक डॉक्टरों की उपलब्धता के आधार पर देखा जाए तो उत्तर प्रदेश देश का सबसे पिछड़ा राज्य है। योगी आदित्यनाथ की सांप्रदायिकता में झुलसे उत्तर प्रदेश की बदहाली भारत में सबसे ज्यादा है। केरल को जहां स्वास्थ्य सूचकांक में 100 में से 82 का स्कोर मिला है, वहीं उत्तर प्रदेश का स्कोर केवल 30 है। देशभर के कुपोषित बच्चों में तकरीबन 40% सबसे अधिक कुपोषित बच्चे उत्तर प्रदेश में मौजूद हैं।

मानव संसाधन की क्षमता मापने से जुड़े इन सभी पैमानों का इशारों इस तरफ है कि जब महंगाई बढ़ती है तो सबसे अधिक मार उत्तर प्रदेश के लोगों पर पड़ती है।जब बेरोजगारी बढ़ती है तो सबसे अधिक मार उत्तर प्रदेश के लोगों पर पड़ती है। जब देश की अर्थव्यवस्था बद से बदतर होती चली जाती है और कोरोना जैसा संकट आता है तो सबसे अधिक मार उत्तर प्रदेश पर पड़ती है।

समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव तो उत्तर प्रदेश के हाल को इस तरह से कहते हैं कि उत्तर प्रदेश गरीब बच्चों में मिड-डे मील के बजट से बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाने में नंबर वन है। यूपी भूख से मरने वालों की संख्या में नंबर वन है. कोरोना बीमारी के दौरान दवाइयों की कालाबाजारी करने में यूपी नंबर वन है। नागरिकों को बिना इलाज दिए मरने देने में नंबर वन है. उत्तर प्रदेश गंगा नदी के किनारे में दफ्न की गई लाशों के ऊपर से कफन उतारने में नंबर वन है।

अखिलेश यादव की बात विरोधियों को थोड़ी अतिरेक लग सकती है। लेकिन उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था के लिहाज से देखा जाए तो ऐसा भी संभव है कि उत्तर प्रदेश की गहरी परेशानियों को अखिलेश यादव के व्यक्ति नहीं कर पा रहे हो। साल 2012 से लेकर 2017 के बीच उत्तर प्रदेश की आर्थिक वृद्धि दर हर साल तकरीबन 6 फ़ीसदी के आसपास थी। लेकिन साल 2017 से लेकर 2021 तक की कंपाउंड आर्थिक वृद्धि दर तकरीबन 1.95 फ़ीसदी के आसपास ही रह गई है। अगर अर्थव्यवस्था इस तरीके से चौपट हुई है तो कैसे कहा जा सकता है कि विकास के मानक पर उत्तर प्रदेश में चौतरफा प्रगति की होगी।

उत्तर प्रदेश के इस भीषण हालात में अगर बेरोजगारों को रोजगार मिल जाता तो कहा जाता कि उत्तर प्रदेश की परेशानियों पर थोड़ा बहुत मलहम लगा दिया गया है। लेकिन ऐसा भी नहीं है। अजय सिंह बिष्ट के काल में रोजगार दर 37% से घटकर के 32% पर पहुंच गया है। मतलब यह कि उत्तर प्रदेश कि सरकार में केवल रोजगार में ही कमी नहीं आई बल्कि पहले से मौजूद रोजगार में भी कटौती हो गई है। आर्थिक जानकारों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में काम करने वालों की संख्या में दो करोड़ की बढ़ोतरी हुई है। लेकिन रोजगार दो करोड़ बढ़ने के बजाय पहले से 16 लाख कम हो गया है।

अब चलते चलते उत्तर प्रदेश के अपराधिक गलियारों की भी बात कर लेते हैं।देश में 2020 में सबसे ज्यादा हत्या-अपहरण यूपी में हुए। देश में सबसे ज्यादा मर्डर की FIR (3,779) यूपी में दर्ज हुईं। यहां हर दिन औसत 10 से ज्यादा हत्या के मुकदमे दर्ज हुए हैं। यानी हर 2.20 घंटे में यहां हत्या की वारदात हुई है।महिलाओं संबंधी अपराधों में भी यूपी सबसे आगे है। 2020 में यूपी में सबसे ज्यादा 49,385 मामले दर्ज हुए। रोजाना 135 से ज्यादा महिला अपराध दर्ज हुए। इन सभी आंकड़ों का यही मतलब है कि लोगों की बेहतरीन से जुड़े मानकों से परखने पर उत्तर प्रदेश में घाव ही घाव नजर आते हैं। मलहम लगा कहीं भी नहीं दिखता।

 

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