प्रधानमंत्री मोदी देश की जनता को धोखा दे रहे हैं?

वे प्रचार करते हैं, वे हाथ हिलाते हैं, वे कैमरों के सामने मुस्कुराते हैं, वे लगातार विश्व की यात्रा करते रहते हैं। वे उतने ही बेपरवाह है जितना वे हमेशा से रहे हैं। पुलवामा आतंकी हमले को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यवहार में कोई दर्द या गुस्सा दिखाई नहीं देता है। पूरा देश परेशान है और अपने जवानों की शहादत का शोक मना रहा है लेकिन मोदी का हाव-भाव अभिमानी है। इसके अलावा उन्होंने हवाई अड्डे पर सऊदी अरब के प्रिंस का स्वागत करने और उन्हें गले लगाने के लिए प्रोटोकॉल तक तोड़ दिया जिन्होंने पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान को 20 मिलियन डॉलर की मदद दी है। विशेषज्ञ इसे कूटनीतिक मजबूरी कह सकते हैं लेकिन फिर जस्टिन ट्रूडो के साथ सख़्त व्यवहार क्यों किया गया? विडंबना यह है कि वह दो दिनों पहले दक्षिण कोरिया में थें और शांति पुरस्कार प्राप्त कर रहे थें। लेकिन पूरे भारत में निर्दोष काश्मीरियों पर हमले की निंदा करने में उन्हें एक सप्ताह से अधिक का समय लग गया।
मोदी सरकार के समर्थकों का दावा है कि वह आतंकवादियों को संदेश भेज रहे हैं। वे मानते हैं कि कार्यक्रम को जारी रखते हुए उन्होंने आतंकियों को बताया है कि देश में किसी तरह का ठहराव नहीं आएगा। यह एक प्रमाणिक प्रतिक्रिया होती अगर वह अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए सभी अवसरों का इस्तेमाल नहीं करते। उन्होंने कई उद्घाटन और आधारशिला समारोहों में भाग लिया जिनका शायद ही कोई राष्ट्रीय महत्व था। पुलवामा के बाद की अधिकांश रैलियों में उन्होंने पाकिस्तान और आतंकवादियों को कड़ा संदेश भेजा लेकिन चुनावी संदर्भ में। उन्होंने लोगों से एक मज़बूत सरकार का समर्थन करने को कहा। ये सब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बिल्कुल विपरीत है जिन्होंने शिष्टता बनाए रखा और इस तरह के हमलों का इस्तेमाल पक्षपातपूर्ण राजनीति के लिए कभी नहीं किया। यही एक लोकतांत्रवादी और भावना का इस्तेमाल करने वाले नेता के बीच का अंतर है।
दोपहर क़रीब 3.30 बजे पुलवामा आतंकी हमले के समय मोदी कॉर्बेट नेशनल पार्क में थें। वह जंगल सफारी के लिए गए हुए थें। उन्होंने एक डॉक्यूमेंट्री शूट में हिस्सा लिया और शाम 4.30 बजे एक रैली को संबोधित किया जिसमें इस हमले की निंदा नहीं की गई। मीडिया में अपने लोगों के ज़रिए सरकार एनएसए अजीत डोभाल और घटिया मोबाइल नेटवर्क पर दोष मढ़ रही है जिसके परिणामस्वरूप मोदी को इस भयावह हमले से बेख़बर होना पड़ा। यह मोदी को बचाने का साफ कोशिश है। सरकार जानती है कि वह हमले की सूचना मिलने के बाद भी मोदी के जंगल सफारी को लेकर बचाव नहीं कर सकती है। और अगर स्रोत सही हैं तो यह सरकार की सुरक्षा अधिकारियों के सबसे खतरनाक तस्वीर को प्रकट करता है कि वे कितने संवेदनाहीन हैं। किसी भी तरह मोदी को लेकर विवाद थम जाए।
मोदी एक मज़बूत और सजग नेता होने का दावा करते हैं। इस बार वह कहां गए हुए हैं? या यह सत्ता का अहंकार है? क्या वह नागरिकों को धोखा दे रहे हैं? जब देश हमले से हिल गया था तो मोदी और बीजेपी अनुभवी वक्ता बनने के लिए कोशिश किया। उन्होंने सभी राजनीतिक दलों से इस मुद्दे को राजनीतिक न बनाने की अपील की और इन कठिन घड़ी में एकजुट होने को कहा। कांग्रेस अध्यक्ष और अन्य विपक्षी दलों के नेताओं ने पहले 100 घंटों तक शिष्टाचारपूर्वक प्रतिक्रिया दिया। लेकिन पुरानी आदतें मुश्किल से ही जाती हैं। बीजेपी ने अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इस हमले का फायदा उठाना शुरु कर दिया। आखिरकार सरकार और विपक्ष एक दूसरे के आमने सामने आ गए और विपक्षी दल भी इस हमाम में कूद पड़ी। बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं ने पूरे देश में पाकिस्तान विरोधी जुलूस निकाला। बेशक ये सब अनाधिकारिक रूप से हुआ। मेरे सूत्रों ने मुझे बताया कि बीजेपी ने अपने कार्यकर्ताओं को पार्टी के झंडे के बिना ऐसे कार्यक्रमों में भाग लेने का निर्देश दिया था। वे इस बात को बेहतर तरीके से जानते हैं कि इस लड़ाई से उन्हें आने वाले चुनावों में मदद मिलेगी।
सोशल मीडिया पर लगातार इसकी लड़ाई का सिलसिला जारी रहा। तथाकथित 'राष्ट्रवादियों' ने आलोचकों को परेशान करने और कश्मीरियों के बारे में ज़हर फैलाने के लिए कई व्हाट्सएप ग्रुप बनाए। स्क्रॉल की मृदुला चारी ने इस तरह के एक ग्रुप का खुलासा किया है। इस ‘भक्त आतंकी समूह’ ने उन पत्रकारों और नागरिकों को निशाना बनाया जिन्होंने पुलवामा हमले के बारे में कई वाजिब सवाल पूछे। दिलचस्प बात यह है कि पीएम मोदी ऐसे ज़हर उगलने वाले समूहों के कुछ सदस्यों को फॉलो करते हैं।
पुलवामा हमले से पहले मोदी की लोकप्रियता घट रही थी। उनका राजनीतिक साख कम हो गई थी। इस वास्तविकता को स्वीकार करते हुए बीजेपी अपने सशक्त सहयोगियों की चापलूसी कर रही थी। इस सच्चाई का उपयुक्त उदाहरण महाराष्ट्र में बीजेपी-शिवसेना गठबंधन है। लेकिन पुलवामा हमले के बाद उनकी राजनीति को जोश मिला है। चालाक मोदी ने अपनी सरकार की विफलताओं को छिपाने के लिए इस आतंकी हमले का फायदा उठाया है। मीडिया के एक वर्ग के माध्यम से निरंतर लड़ाई निश्चित रूप से उनके अति-राष्ट्रवाद में मदद करेगा। उनके पार्टी के लोगों का मानना है कि अगर युद्ध जैसी स्थिति बनती है तो यह निश्चित रूप से मोदी के चुनाव अभियान को मज़बूत करेगा। एक तरह से जैश ए मुहम्मद और आईएसआई ने उन्हें बेरोज़गारी, रफ़ाल और कृषि संकट के ईर्द गिर्द उनके वादों से बचाया है।
दुर्भाग्य से हमारे समाज का एक वर्ग इस विरोध की रणनीति का शिकार हो गया है। मुस्लिमों पर हुए हमले को लेकर निंदा करने के लिए जिस तरह उन्होंने ज़्यादा समय लिया ठीक उसी तरह कश्मीरी छात्रों पर हिंदुत्ववादी भीड़ द्वारा किए जा रहे कायरतापूर्ण हमलों की तुरंत निंदा न करके वे शायद अपने कोर हिंदुत्व को एक दोस्ताना संदेश भेजना चाहते हैं। उनकी राजनीति में स्पष्ट तरीका है। यह समय ही बताएगा कि बेरोज़गार युवा, किसान, दलित और आदिवासी इस चश्मे से देखते हैं या नहीं।
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