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क्या सरकार से सवाल पूछना देश या सेना पर अविश्वास करना है?

यह सवाल हर घटना-दुर्घटना, हमले के बाद उठता है। और हर बार सत्ता प्रतिष्ठान इसे देश और देशभक्ति से जोड़कर हर किसी को चुप करा देता है।
political leader

 

क्या सरकार से सवाल पूछना सेना पर अविश्वास करना है?

क्या सरकार से सवाल पूछना देश की बदनामी करना है? 

यह सवाल हर घटना-दुर्घटना, हमले के बाद उठता है। वो चाहे पठानकोठ का हमला हो, या पुलवामा का हमला। या अब पहलगाम का हमला। कोई भी सवाल उठने पर सत्ता प्रतिष्ठान ख़ासौतर पर भाजपा के नेता, भाजपा के समर्थक, उनकी ट्रोल आर्मी सवाल उठाने वाले पर ही हल्ला बोल देती है और सरकार से पूछे गए सवालों को सेना पर अविश्वास करार देने लगती है। देश की बदनामी करार देने लगती है। 

ख़ैर यह आलेख ऐसे कथित राष्ट्रवादी तत्वों को जवाब देने के लिए नहीं लिखा गया है, क्योंकि वे सब जानते-बूझते करते हैं, इसलिए उन्हें समझाया नहीं जा सकता। लेकिन इनके प्रभाव में आकर बहुत से नौजवान, देश से वाकई प्यार करने वाले आम नागरिक भी ऐसा ही समझने लगते हैं और इसी शब्दावली का प्रयोग करने के लगते हैं। 

यह आलेख उन्हीं लोगों के लिए है कि सवाल पूछने क्यों ज़रूरी हैं। यह किसी इस या उस पार्टी, नेता या सरकार का विरोध नहीं है, बल्कि यही सही राष्ट्रहित है क्योंकि अगर सवाल नहीं पूछे जाएंगे तो जवाब नहीं मिलेंगे और जवाब नहीं मिलेंगे तो कोई सुधार नहीं होगा, कोई बदलाव नहीं आएगा, कोई प्रगति नहीं होगी। यह नियम विज्ञान से लेकर राजनीति तक, क्लासरूम और घर से लेकर देश-समाज तक सब पर लागू होगा। इसलिए सवालों से नहीं बचना चाहिए, बल्कि उनका सामना करना चाहिए।   

यह इसलिए भी क्योंकि सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी का प्रचार तंत्र इतना बड़ा और मज़बूत होता है कि वो किसी भी प्रोपेगैंडा को सार्वजनिक तौर पर स्थापित कर देता है और उसे ही अंतिम सत्य बना देता है। 

भारत-पाकिस्तान के बीच सीज़फायर (संघर्ष विराम) होने पर मैंने एक सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा– अब तक संकटकाल था इसलिए सवाल नहीं पूछे, लेकिन अब सरकार से हिसाब लिया जाएगा कि क्या खोया–क्या पाया।  

मेरे ही प्यारे और समझदार भांजे ने कहा– मामा क्या आपको सेना पर विश्वास नहीं है?

तब मैंने उसे बताया कि सवाल सेना से नहीं सरकार से पूछे जाएंगे। 

भांजे ने कहा– सेना ने तो हिसाब दे ही दिया है कि क्या खोया-क्या पाया? 

मैंने जवाब दिया कि बेटा सेना सच बताती है। लेकिन उतना ही जितना उसे सरकार की तरफ़ से कहा जाता है। और सेना अपने ऑपरेशन के बारे में सिर्फ़ तकनीकी सवालों का जवाब दे सकती है, राजनीतिक और नागरिक सवालों का नहीं। सेना प्रमुख और अन्य अफ़सर रिटायरमेंट के बाद ही किताबें लिखते हैं और बहुत से सच उजागर करते हैं, ज़रूरी सवाल उठाते हैं, जो वह सर्विस में रहते हुए नहीं उठा पाए। 

अभी सीज़फायर को लेकर कई पूर्व सेना प्रमुख ने भी सवाल उठाए हैं कि यह आख़िर किस क़ीमत पर किया गया है। 

 

इसलिए यह सवाल तो बनता है कि– सेना ने अपना काम बख़ूबी किया, लेकिन क्या सरकार ने भी अपना काम बख़ूबी किया?

आप सभी जानते हैं कि सेना अपनी मर्ज़ी से न युद्ध का फ़ैसला करती है, न युद्ध विराम का। यह राजनीतिक नेतृत्व यानी सरकार का काम है। इसलिए सवाल भी सरकार से पूछे जाएंगे क्योंकि किसी भी फ़ैसले के लिए वही प्रारंभिक और अंतिम तौर पर ज़िम्मेदार होती है।  

सेना की कामयाबी का श्रेय अगर प्रधानमंत्री को मिलता है तो किसी भी नुक़सान या नाकामी के लिए भी प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ही ज़िम्मेदार होती है। चाहे वो किसी भी पार्टी की हो। 

आप इस उदाहरण से इसे बेहतर समझ सकते हैं– आपने देखा होगा कि सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत की हार या पीछे हटने के लिए आज तक उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है। भाजपा और उसके समर्थक तो भारत-चीन विवाद और कश्मीर विवाद के लिए भी आज भी नेहरू जी को भर-भरकर गालियां देते हैं। वे तो आज की भी हर समस्या के लिए नेहरू को ही ज़िम्मेदार ठहराते हैं। 

इसी तरह सन् 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में पाकिस्तान की सेना को सरेंडर कराने और पाकिस्तान के दो टुकड़े कराके बांग्लादेश के निर्माण की बात हो आज तक इंदिरा गांधी को याद किया जाता है। उनकी तारीफ़ की जाती है। और अब एक बार फिर इस सीज़फायर के बाद इंदिरा गांधी को बहुत शिद्दत से याद किया जा रहा है।   

इसलिए सेना की किसी भी कामयाबी या नाकामी की ज़िम्मेदार सरकार ही होती है। जब कामयाबी के लिए उसे श्रेय मिलता है तो किसी भी चूक या नाकामी के लिए भी उसी को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा और सवाल पूछे जाएंगे। 

कथित राष्ट्रभक्तों की हक़ीक़त

हालांकि एक हक़ीक़त तो अब हमारे देशवासी भी समझ गए होंगे कि यह कथित राष्ट्रभक्त कितने बड़े भक्त हैं कि सीज़फायर होते ही इन्होंने अपनी तोप का मुंह विदेश सचिव विक्रम मिसरी की ओर घुमा दिया और उनके परिवार ख़ासकर बेटियों को गालियां देने लगे। जबकि ये लोग भी जानते हैं कि इसमें विदेश सचिव की कोई भूमिका नहीं है। उन्होंने हर प्रेस कॉन्फ्रेंस में सिर्फ़ सरकार का ही पक्ष रखा। जिसके नेता नरेंद्र मोदी हैं। अब यह लोग नरेंद्र मोदी से तो सवाल पूछ नहीं सकते या पूछना नहीं चाहते, लेकिन विदेश सचिव पर ज़रूर हमला कर सकते हैं। 

सोशल मीडिया पर कुछ पोस्ट हैं कि कुछ लोगों ने कर्नल सोफ़िया कुरैशी और विंग कमांडर व्योमिका सिंह से प्रेस कॉन्फ्रेंस कराने पर भी आपत्ति जताई। 

इससे पहले इस तरह के लोग पहलगाम हमले में शहीद हुए नेवी अफ़सर लेफ्टिनेंट विनय नरवाल की पत्नी हिमांशी नरवाल के पीछे पड़ गए थे और उन्हें जमकर ट्रोल किया था। उनका कसूर क्या था– उन्होंने यही कहा था कि वे इस घटना का सांप्रदायिक करण नहीं चाहतीं, हिंदू-मुस्लिम नहीं चाहतीं। 

तो अब आप समझ सकते हैं कि सेना-सेना का रात दिन जाप करने वाले लोग असल में सेना का कितना सम्मान करते हैं! 

यही नहीं पहलगाम हमले और सेना की कार्रवाई पर सवाल न पूछे जाने और राजनीति न करने की सलाह देने वाली बीजेपी ने इस पूरी घटना पर राजनीति करने और इसे अपने पक्ष में भुनाने की कोई कसर नहीं छोड़ी। पहले उसने पहलगाम हमले को लेकर देश के भीतर हिंदू-मुस्लिम करने की कोशिश की और फिर ऑपरेशन सिंदूर के नाम पर राजनीतिक लाभ लेने के लिए बिहार समेत अन्य स्थानों पर मोदी जी के वीडियो और पोस्टर जारी किए। 

यह भी पढ़ें– बाहरी हमलों के साथ भीतर के नफ़रती हमलों से बचाव के लिए भी ‘मॉक ड्रिल’ ज़रूरी 

अब ज़रा तस्वीर पलट कर देखिए

अगर मैं तस्वीर को थोड़ा पलट दूं तो आप समझ पाएंगे कि सेना से या सरकार से सवाल पूछे जा सकते हैं या नहीं। 

अगर मैं आपसे कहूं कि क्या पाकिस्तान की सेना के दावे सही हैं कि उसने भारत को ज़बर्दस्त नुक़सान पहुंचाया। तो आपका जवाब यक़ीनन होगा– नहीं। 

अगर मैं आपसे कहूं कि क्या पाकिस्तान की सरकार का यह कहना सही है कि उसने इस अघोषित युद्ध में भारत पर फ़तह हासिल कर ली है। तो आप हंसेंगे और कहेंगे बिल्कुल नहीं। जबकि उन्होंने तो विजय दिवस भी मना लिया।

आप ऐसा क्यों कह पा रहे हैं!

क्योंकि आप सीमा के इस पार बैठे हैं और बहुत हद तक अपने हिस्से की सच्चाई जानते हैं।

लेकिन पाकिस्तानी अपनी सेना और सरकार के दावों को ही सच मानेंगे या उन्हें देश के नाम पर यही सच मानने पर मजबूर किया जाएगा। इसलिए वह पूरे सच या असलियत से दूर रह जाएंगे। यही हमारे साथ है। इससे क्या होगा दोनों तरफ़ की जनता का ही नुक़सान होगा। और होता आ रहा है। 

इसलिए कोई भी सवालों के दायरे से बाहर नहीं होता। ख़ासतौर से किसी लोकतांत्रिक देश में तो बिल्कुल नहीं। न विधायिका, न कार्यपालिका, न न्यायपालिका। हालांकि हमें यही सिखाया जाता है कि हमें सेना से सवाल नहीं पूछने चाहिए। लेकिन आपको बता दूं कि सेना या सेना के अफ़सरों से भी ग़लतियां और ज़्यादतियां होती रही हैं। कई ऐसे उदाहरण हैं कि सेना के किसी अफ़सर ने झूठी वाहवाही और प्रमोशन-अवार्ड पाने के लिए कई ग़लत कार्रवाई की हैं, और सेना ने ख़ुद उनकी जांच की और कोर्ट मार्शल तक किया। 

आपको जम्मू-कश्मीर के शोपियां का किस्सा याद होगा। जिसमें 2020 में सेना के एक अफ़सर ने फर्जी मुठभेड़ को अंजाम दिया था।  

जुलाई 2020 में शोपियां जिले के अमशिपुरा गांव में तीन नागरिकों की हत्या के मामले में सेना ने कैप्टन भूपेंद्र सिंह के खिलाफ कोर्ट मार्शल की कार्रवाई शुरू की। जांच में पाया गया कि उन्होंने सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (AFSPA) की सीमाओं का उल्लंघन किया था।

क्या अपनी सरकार को कठघरे में खड़ा करना, दुश्मन देश के हाथों में खेलना है?

युद्धकाल संयम का समय होता है, लेकिन शांतिकाल में ज़रूर सवाल उठाने चाहिए। ताकि सच सामने आने पर ही पुरानी ग़लतियों को सुधारा जा सकता है और नई सही कार्य नीति बनाई जा सकती है। झूठ या भ्रम में रहने से ख़ुद का भी नुक़सान होता है और देश का भी। 

कई विशेषज्ञों ने कहा कि अगर हमें पुलवामा हमले के बाद उठे सवालों का जवाब मिलता तो आज पहलगाम न होता। 

हम आज तक 2019 में हुए पुलवामा हमले का पूरा सच नहीं जानते कि इतनी सैन्य निगरानी और सुरक्षा वाले जम्मू-कश्मीर के पुलवामा तक इतनी मात्रा में आरडीएक्स कैसे पहुंचा। कैसे एक कार सवार, सीआरपीएफ के क़ाफ़िले में घुसकर विस्फोट करने में कामयाब हुआ, जिसमें हमारे 40 जवान मारे गए। उसे किसने भेजा था, उसके आका कौन थे, उसके मददगार कौन थे। 

कैसे सीआरपीएफ के इतने बड़े क़ाफ़िले (Convoy) को एक साथ, एक समय सड़क मार्ग से भेजा गया। क्यों नहीं तमाम इंटेलिजेंस रिपोर्ट के बाद भी उन्हें एयरलिफ़्ट कराया गया। उस समय वहां के राज्यपाल रहे सत्यपाल मलिक ने भी ऐसे ही तमाम सवाल उठाए, लेकिन सरकार ने उनके जवाब नहीं दिए। 

बालाकोट का भी हासिल क्या था, क्योंकि अब पहलगाम का हमला हो जाता है। विषयांतर न हो तो हमे याद रखना चाहिए कि हमारी सरकार ने नोटबंदी के जरिये भी आतंकवादियों की कमर तोड़ी थी।

पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर कार्रवाई की गई अच्छा है, लेकिन क्या इस सवाल का जवाब नहीं मिलना चाहिए कि कश्मीर के पहलगाम की बैसरन घाटी तक चार-पांच आतंकवादी हथियारों के साथ कैसे पहुंच गए। कैसे वहां एक भी सुरक्षाकर्मी और सेना का जवान क्यों नहीं मौजूद था। जबकि वहां हर किलोमीटर पर सुरक्षाबल तैनात रहते हैं। 

इस नरसंहार को अंजाम देकर वे आतंकवादी कहां गायब हो गए और अभी तक उन्हें क्यों नहीं पकड़ा जा सका? 

ये सब जो चूक हुईं, उसके लिए कौन ज़िम्मेदार है। क्या हमारी सरकार को इसकी ज़िम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए। 

आपको याद है कि 2008 में 26/11 मुंबई हमले के बाद हमारे मीडिया और भाजपा ने मनमोहन सरकार पर किस तरह के सवाल उठाए थे और उस समय तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। 

क्या आप बताएंगे कि क्या उस समय सवाल पूछना ग़लत था!

और जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहलगाम हमले के बाद अपना सऊदी अरब का दौरा बीच में छोड़कर वापस आए तो क्यों नहीं कश्मीर या पहलगाम गए। क्यों नहीं पीड़ित परिवारों से मिले। क्यों नहीं सर्वदलीय बैठक में गए। बल्कि इसकी जगह उन्होंने बिहार में रैली करना क्यों चुना, जहां इसी साल के अंत में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। 

जब इस हमले के बाद पूरा देश एकजुट था और ख़ासतौर पर कश्मीरियों ने पर्यटकों की मदद से लेकर आतंकवाद के ख़िलाफ़ एक अभूतपूर्व मिसाल पेश की तो क्यों नहीं मोदी जी या उनकी सरकार ने इसकी सार्वजनिक प्रशंसा की और कश्मीरियों और भारतीय मुसलमानों के ख़िलाफ़ चल रहे नफ़रती अभियान और हमलों को रोकने की पहल करते हुए क्यों नहीं एक स्पष्ट संदेश दिया कि ऐसे किसी भी अभियान या हमले को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और इसे भी देश के ख़िलाफ़ माना जाएगा।  यही रवैया उन्होंने मणिपुर हिंसा को लेकर अपनाया और आज तक मणिपुर का दौरा नहीं किया।

 क्यों नहीं मोदी जी एकतरफ़ा संवाद में विश्वास रखते हैं और केवल चुनावी रैली, ‘मन की बात’ और राष्ट्र के नाम संबोधन करते हैं लेकिन ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद भी बुलाई गई सर्वदलीय बैठक में नहीं जाते। 

और अब जो अघोषित युद्ध और फिर युद्धविराम हुआ है उसका हासिल क्या है। सेना ने आतंकवाद के ख़िलाफ़ अपना काम किया और अपना टार्गेट हासिल किया लेकिन क्या इससे राजनीतिक और नागरिक हित भी पूरे हुए। 

पहलगाम हमले में 26 पर्यटक (25 भारतीय नागरिक और एक नेपाली नागरिक) मारे गए। और अब तक की रिपोर्ट के अनुसार इस अघोषित जंग में 27 और भारतीय नागरिक मारे गए। सेना के 5 और बीएसएफ के 2 जवान शहीद हुए। क़रीब 60 लोग घायल हैं। LOC पर कितने घर ध्वस्त हो गए, कितने मवेशी मारे गए। इसका कुछ हिसाब नहीं है। कितने ही लोगों को अपने घरों से पलायन करना पड़ा।

अमेरिकी हस्तक्षेप क्यों?

क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि भारत और पाकिस्तान से भी पहले सीज़फायर का ऐलान अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने क्यों किया। उसने तो हमें कॉमनसेंस (सामान्य बुद्धि) अपनाने के लिए बधाई भी दी। यह हमारी तारीफ़ थी या बेइज़्ज़ती, आप तय कीजिए। 

क्यों वहां के उपराष्ट्रपति, विदेश मंत्री और विदेश सचिव ने नाम लेकर बताया कि किस तरह 48 घंटें की लंबी मशक्कत के बाद वह भारत-पाकिस्तान को सीज़ फायर के लिए राज़ी कर पाया। 

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हमारी पहले से घोषित नीति रही है ख़ासतौर से शिमला समझौते के बाद कि हम भारत-पाकिस्तान के संबंध में किसी तीसरे पक्ष का दख़ल या मध्यस्थता स्वीकार नहीं करेंगे तो उसे क्यों तिलांजलि दे दी गई। और अब तो ट्रंप साहब सबके माई बाप बनकर कश्मीर मसले का भी हल कराना चाहते हैं। 

इसे पढ़ें– सभी दलों ने किया सीज़फायर का स्वागत, लेकिन ट्रंप की मध्यस्थता पर सवाल

यही नहीं, अब तो  ट्रंप ने एक क़दम और आगे बढ़कर कहा है कि अमेरिका ने परमाणु संघर्ष को रोका है। हमारी तरफ से भारत और पाकिस्तान दोनों से कहा गया कि अगर यह नहीं रुकता है तो हम व्यापार नहीं करेंगे। जूनियर ट्रंप भी कह रहे हैं कि सीज़फायर का श्रेय उनके पापा को मिलना चाहिए। क्यों अमेरिका ने भारत और पाकिस्तान को एक ही पलड़े में रख दिया। क्या यह हमारी कूटनीति की हार नहीं है। क्या यह हमारे ख़ुदमुख़्तार होने, हमारे देश की संप्रभुता पर अतिक्रमण नहीं है।

यह सब क्या है। इन सब सवालों के जवाब सरकार से न मांगें जाएंगे तो किससे मांगें जाएंगे। और यह विपक्षी राजनीतिक दलों के साथ हर नागरिक की ज़िम्मेदारी है कि वह इन सवालों को पूरी मज़बूती से पूछे। यही असली राष्ट्रहित होगा। 

कम से काम पत्रकारों को तो सवाल पूछने ही चाहिए और उन्हें पूछने देना चाहिए, क्योंकि यही उनका काम है। 

क्या पत्रकारों की भी कोई LOC यानी लाइन ऑफ़ कंट्रोल है? 

यूं तो पत्रकारों का एक ही काम है, एक ही नीति–एक ही नैतिकता (Ethics)– तथ्य के साथ रिपोर्ट करना। इधर भी, उधर भी। 

लेकिन युद्धकाल में अक्सर पत्रकार बंट जाते हैं अब वे केवल पत्रकार नहीं रह जाते। वे भारतीय पत्रकार, पाकिस्तानी पत्रकार बन जाते हैं। यह बहुत स्वाभाविक भी है। क्योंकि वह एक देश के नागरिक भी होते हैं और उनमें भी अपने देश के लिए भावना होती है। यही वजह है कि ऐसे समय में तीसरे पक्ष की तरफ़ ज़्यादा देखा जाता है क्योंकि वह काफ़ी निरपेक्ष ढंग से रिपोर्ट कर सकता है। हालांकि यह तीसरा पक्ष भी पूरी तरह विश्वसनीय और निरपेक्ष नहीं होता क्योंकि इस तीसरे पक्ष या तीसरे देश के भी किसी भी मसले को लेकर अपना रुख़ और हित निहित होते हैं।  

यह हमने पहले के तमाम संघर्षों और युद्धों में देखा और अब रूस-यूक्रेन युद्ध और इज़ारयल द्वारा फ़िलिस्तीन पर एक तरफ़ा हमले और नरसंहार के दौरान भी देख रहे हैं कि किस देश का मीडिया उसे कैसे रिपोर्ट कर रहा है। 

यही हम ट्रेड वॉर के संदर्भ में देख रहे हैं। यही हमने तमाम तीसरी दुनिया के देशों की रिपोर्टिंग के दौरान पश्चिमी मीडिया के दोहरे रवैये को देखा। 

फिर भी कई मामलों में हमें उन देशों की अपेक्षा जो संघर्ष में होते हैं, किसी तीसरे पक्ष यानी अंतरराष्ट्रीय मीडिया के ज़रिये कुछ सच्ची तस्वीरें मिल ही जाती हैं।

लेकिन जो देश युद्ध या आपदा में हैं, उसके पत्रकार के सामने बड़ा धर्मसंकट रहता है (साथ में सरकार की सेंसरशिप का भी डर)। फिर भी ऐसे संकटकाल में भी कुछ न्यूनतम नियम और नैतिकताएं तो तय होती हैं – कि वह अगर देशहित या देश की सुरक्षा के मद्देनज़र युद्धकाल में पूरा सत्य और तथ्य नहीं बता सकता तो कम से कम उसमें झूठ तो न मिलाए। यानी भले ही कम रिपोर्ट करे, संयम से रिपोर्ट से करे, लेकिन उसे तोड़-मरोड़कर एक झूठे या भ्रामक प्रचार में न बदल दे। 

ख़ैर इस मामले में तो भारतीय गोदी/ कॉरपोरेट मीडिया ने अपनी साख मिट्टी में मिला दी है और पूरी दुनिया में हंसी का पात्र बन गया है। इसी तरह का व्यवहार पाकिस्तान मीडिया में भी देखने को मिला और दोनों तरफ़ से पत्रकारिता के एथिक्स और विवेक को ताक पर रखकर झूठ और युद्धोन्माद परोसा गया।    

इसी दौरान मेरी एक भांजी ने सवाल पूछा कि किस पर विश्वास किया जाए, क्योंकि पाकिस्तानी मीडिया कुछ बता रहा है, और भारतीय मीडिया कुछ और। क्योंकि तमाम पाबंदियों के बाद भी इस हाईटेक युग में एक-दूसरे की ख़बरें, मीम्स, रील तो दोनों तरफ़ पहुंच ही रहीं थी। कई मीडिया हाउस पाकिस्तान के दावों को भी बाक़ायदा रिपोर्ट कर रहे थे। 

मेरी बहन ने उसे जवाब दिया कि केवल भारत पर विश्वास करो। 

तब मैंने कहा कि भारत पर विश्वास है, लेकिन आपकी नज़र में भारत क्या है? कोई मीडिया हाउस, कोई एक नेता, सरकार या 140 करोड़ लोग!

मीडिया देश नहीं है। न कोई नेता, न कोई सरकार, न कोई राजनीतिक दल देश होता है। देश इन सबसे ऊपर है। भारत या भारत माता एक व्यक्ति का नाम नहीं है बल्कि पूरी 140 करोड़ जनता का नाम है। जिसकी साझा संस्कृति, साझा इतिहास और साझा भविष्य है। और आज यही भविष्य दांव पर है। 

दुनिया के कई नेताओं ने ख़ुद को देश के तौर पर प्रस्तुत किया। और इसका परिणाम न केवल उस देश ने बल्कि पूरी दुनिया ने भुगता। 

इसलिए सही समय पर सही सवाल पूछने ज़रूरी हैं और यही वजह है कि विपक्ष संसद के विशेष सत्र की मांग कर रहा है, क्योंकि जो जवाब सेना को नहीं देने चाहिए या वह नहीं दे सकती वह उसके पॉलिटिकल मास्टर यानी सरकार को देने हैं। जो केवल देश के नाम एकतरफ़ा संबोधन से नहीं मिल सकते। इस समय देश के नाम प्रधानमंत्री का संबोधन देशवासियों को क्षणिक जोश दिलाने के लिए तो ज़रूरी था लेकिन विश्वास दिलाने के लिए पुलवामा से पहलगाम तक फैले यक्ष प्रश्नों का जवाब देना भी ज़रूरी है। ताकि पूरा सच, पूरी वास्तविकता सबके सामने आए, ताकि पुरानी ग़लतियों को ठीक किया जा सके, ताकि दोषियों को न्याय के कठघरे में खड़ा किया जा सके, ताकि बदले को वास्तविक बदलाव में बदला जा सके। 

 

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