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कटाक्ष: विरोधियो कुर्सी छोड़ो!

नागपुरी भाइयों की आज़ादी की लड़ाई की ट्रेन तब छूट गयी, इसका मतलब यह तो नहीं है कि उनकी आज़ादी की लड़ाई की ट्रेन हमेशा के लिए ही छूट गयी। सुना नहीं है क्या--लाइफ दूसरा चांस ज़रूर देती है।
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कार्टून प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। कार्टूनिस्ट सतीश आचार्य के X हैंडल से साभार

 

लीजिए, अब क्या मोदी जी-शाह जी विरोधियों से कुर्सी छुड़वाने का कानून भी नहीं बना सकते हैं। और कानून अभी बना ही कहां है। अभी तो सिर्फ विधेयक पेश हुआ है यानी कानून की मुंह दिखाई हुई है और वह भी मानसून सत्र के ऐन आखिर में। 

विधेयक पेश हुआ और हाथ के हाथ संसदीय समिति को भेज दिया गया। संसदीय समिति की छान-बीन के बाद विधेयक संसद में आएगा, तब चर्चा वगैरह के बाद कहीं जाकर उसे पारित कराने का नंबर आएगा। बल्कि पारित कराने का नंबर तो तब आएगा, जब दो-तिहाई की गिनती होगी। जब नौ मन तेल होने के कोई आसार ही नहीं हैं, फिर राधा के नाचने की बात पर इतनी तकरार क्यों? ऊपर से शोले छाप डॉयलागबाजी भी–बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना! कुत्तों का इतनी अपमानजनक भाषा में उल्लेख तो अपने आप में गलत है। देखा नहीं कैसे कुत्तों के मामले में सुप्रीम कोर्ट तक को हाथ के हाथ अपना फैसला बदलना पड़ा है। ये विरोधी तो हैं किस खेत की मूली। 

खैर! मूल मुद्दे पर लौटें और मुद्दा यह है कि कानून-वानून कुछ नहीं, यह तो महज एक स्वांग है, वोट चोरी के हंगामे से ध्यान बंटाने के लिए। क्या 140 करोड़ भारतीयों की चुनी हुई, मोदी जी की सरकार, पब्लिक का मूड बदलने के लिए, विरोधियों से कुर्सी छुड़वाने का जरा सा स्वांग भी नहीं कर सकती है?

यह कोई नहीं भूले कि यह अगस्त का महीना है। अगस्त का महीना यानी ‘‘भारत छोड़ो’’ आंदोलन का महीना। इसी महीने में मोदी जी के लाल किले से अपने नागपुरी मात-पिता संगठन को देशभक्ति वगैरह के सर्टिफिकेट देने के बाद से, एक बार फिर इसका शोर मचना शुरू हो गया है कि इन्होंने तो आजादी की लड़ाई में कोई हिस्सा ही नहीं लिया था, नाखून कटाने के बराबर भी नहीं। और ‘‘भारत छोड़ो’’, उसके तो वो पूरी तरह से खिलाफ थे। उनके वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी वगैरह अंगरेजी फौज के लिए नौजवानों की भर्ती करा रहे थे और अंगरेजी हुकूमत से, ‘‘भारत छोड़ो’’ आंदोलनकारियों की बगावत को पूरी तरह से कुचलने की अपीलें कर रहे थे। पर यह सब अगर सही भी मान लिया जाए तब भी, इससे सिर्फ इतना ही तो साबित होता है कि नागपुर परिवार वालों की आजादी की लड़ाई की गाड़ी छूट गयी थी। पर तब तक बेचारा नागपुरी कुनबा था भी तो बच्चा ही। 

भारत छोड़ो के टैम पर नागपुरी कुनबा कुल सोलह बरस का किशोर ही तो था, नाबालिग। इस उम्र में कौन सब काम सही टैम पर कर पाता है। बेचारे जब तक आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए स्टेशन पर पहुंचे होंगे, ट्रेन छूट चुकी होगी। अंगरेज भारत छोड़ने का एलान कर चुके थे। मन मारकर बेचारों को देश के मुसलमानों से ही लड़ना पड़ा। उनसे भी नहीं लड़ते तो लोग क्या कहते, जवानी किसी काम नहीं आयी? फिर वो तो क्रांतिकारी थे, अहिंसा के विरोधी। अंगरेज तो जा चुके थे, मारते कैसे? जाकर गांधी को मार आए।

खैर, किस्सा कोताह ये कि नागपुरी भाइयों की आजादी की लड़ाई की ट्रेन तब छूट गयी, इसका मतलब यह तो नहीं है कि उनकी आजादी की लड़ाई की ट्रेन हमेशा के लिए ही छूट गयी। सुना नहीं है क्या--लाइफ दूसरा चांस जरूर देती है। 2014 से आजादी की लड़ाई में हिस्सेदारी का उनका दूसरा चांस ही तो चल रहा है। देखा नहीं कैसे दूसरे चांस में, पहले चांस वालों की पोलें खुल रही हैं। गांधियों की, नेहरूओं की, सरदार पटेलों की, सब की पोलें। और उसी अनुपात में, दूसरे चांस वालों की वीरगाथाएं निकल रही हैं। सावरकर, वीर तो खैर वह स्वघोषित ही थे, उससे ऊपर उठकर अब महानतम बन रहे हैं। देखा नहीं, कैसे इसी पंद्रह अगस्त को पेट्रोल और गैस मंत्रालय ने जो पोस्टर निकाला, आजादी की लड़ाई के पहले चांस वालों के झूठे प्रचार में आग लगाने वाला था। सावरकर सब से ऊपर, गांधी से भी ऊपर, भगत सिंह से भी ऊपर, सुभाष बोस से भी ऊपर! बेशक, दूसरे चांस में भी अभी गोडसे जी को उनका उचित स्थान नहीं मिल सका है। पर सब होगा, धीरे-धीरे सब होगा। सावरकर और आरएसएस के महिमा गान से शुरूआत हो गयी है। जमीनी सतह पर गोडसे जी का शहादत दिवस और जन्म दिवस मनाए जाने की शुरुआत हो गयी है, अब बस थोड़े से वक्त की ही बात है।

और जब दूसरे चांस में सब कुछ हो ही रहा है, तो दूसरा भारत छोड़ो भी क्यों नहीं? पर अंगरेज तो पहले भारत छोड़ो के बाद ही भारत छोड़कर चले गए। जरा सोचिए कितना हास्यास्पद लगेगा कि दूसरे चांस में ‘‘अंगरेजो भारत छोड़ो’’ का नारा लगाया जाए, पर भारत छोड़ने के लिए कोई अंगरेज हो ही नहीं। इसीलिए, मोदी जी-शाह जी ने ‘‘छोड़ो’’ तो ऑरीजिनल रखा है, पर अंगरेज और भारत दोनों को हटाकर, नये जमाने के हिसाब से ‘‘विरोधियो, कुर्सी छोड़ो’’ कर दिया है। 

सच पूछिए तो विरोधियो भी अंडरस्टुड है, वर्ना अब असली नारा तो ‘‘कुर्सी छोड़ो’’ ही है, जैसे पहले चांस में भी असली नारा तो ‘‘भारत छोड़ो’’ ही था। कुछ इतिहासकारों का तो मानना है कि भारत किसे छोडऩा है, इसी की अस्पष्टता की वजह से, नागपुर परिवार और उनके संगी-संगाती, पहले वाले चांस में ‘‘मुसलमानो भारत छोड़ो’’ चला रहे थे। उनकी देखा-देखी सरकारों में उनके संगी, लीग वाले ‘‘हिंदुओ पाकिस्तान छोड़ो’’ चलाने लगे। नतीजा यह कि अंगरेजों ने भारत तो छोड़ा, पर हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बांटकर छोड़ा। पर उसमें भी नागपुरी परिवार के साथ धोखा हो गया। पाकिस्तान तो लीग को मिल गया, पर हिंदुस्तान की पतंग गांधी-नेहरू-पटेल ले उड़े। बेचारे नागपुरिए तब तो मुंह खोलकर कह भी नहीं पाए कि 1947 वाली आजादी झूठी है। 2014 में ही आकर कह पाए हैं कि सच्ची आजादी तो यह है!

खैर, कहते हैं कि पुरानी आदतें आसानी से छूटती नहीं हैं। नागपुरियों की पहले चांस की ‘‘मुसलमानो भारत छोड़ो’’ वाली आदत भी कहां छूटी है। तभी तो मोदी जी ने लाल किले से इस बार एक और ललकार की है: ‘‘घुसपैठियो, भारत छोड़ो।’’ माल वही है, बस पैकेजिंग का रंग बदल गया है। मुसलमान का नाम बदलकर, घुसपैठिया कर दिया है। पर पहले चांस वाले भी कहां बाज आ रहे हैं। भारत छोड़ो के दिन से उन्होंने भी एक नया ही छोड़ो शुरू कर दिया है--वोट चोर, गद्दी छोड़!   

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)

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