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कटाक्ष: न घर-घर सिंदूर, न हर-हर मोदी!

घर-घर सिंदूर का मांग में भरने वाले सिंदूर से कोई लेना-देना ही नहीं था। यह तो सब विरोधियों का प्रचार था। यह तो रगों में बहने-बहाने वाला सिंदूर था, ताकि…
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इन विरोधियों को क्या कहें, बताइए खामखां में अच्छे-भले ‘‘घर-घर सिंदूर’’ प्रोग्राम में ही भांजी मार दी। घर-घर सिंदूर को लेकर ऐसी हाय-हाय मचायी, ऐसी हाय-हाय मचायी कि मोदी पार्टी को प्रोग्राम ही छोड़ना पड़ गया। प्रोग्राम छोड़ने तक बात रहती तो फिर भी गनीमत थी। बेचारों को अपने ही प्रोग्राम को फेक न्यूज बताना पड़ा– ऐसा तो कोई प्रोग्राम कभी बनाना तो दूर, किसी ने सोचा तक नहीं था।

फेक न्यूज, जिसे बेचारों के अपनों ने ही फैलाया था। और अपने तो अपने ही होते हैं। फेक न्यूज फैलाने से पहले भी अपने थे, और फेक न्यूज फैलाने के बाद भी अपने हैं। और क्यों न रहते अपने, उन्होंने फेक न्यूज फैलाने की गलती मान भी तो ली थी। दरअस्ल न्यूज भले फेक थी, पर उसके पीछे नीयत नेक थी। और बदनीयती की रीयल न्यूज से तो नेक नीयत वाली फेक भली। जैसे ऑपरेशन सिंदूर में कराची बंदरगाह की तबाही की न्यूज, पाकिस्तान के पांच से पच्चीस तक शहरों पर कब्जे की न्यूज, पाकिस्तान में फौज में तख्तापलट की न्यूज, वगैरह-वगैरह। हरेक न्यूज फेक थी, पर नीयत एकदम नेक थी--देशभक्ति से लबालब। सिर्फ खबर देने का मोह छोड़कर खबरिया चैनल, वास्तव में  संस्कृति और संस्कृत में गोते खा रहे थे और पुरानी सीख पर चलते जा रहे थे--सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात, मा ब्रूयात सत्यं अप्रियम्। यानी सत्य बोलो तो वही जो सुनने वाले यानी श्रोता/ दर्शक के मन भाए; सुनने वाले के मन न भाए, ऐसा सत्य बोलो ही मत। यानी श्रोता/दर्शक के मन भाए, ऐसी फेक न्यूज देना, श्रोताओं के मन को न भाने वाली रीयल न्यूज देने से ज्यादा सवाब का काम था। 

मोदी जी की पार्टी कहती है तो घर-घर सिंदूर के प्रोग्राम की न्यूज फेक ही होगी, पर अकेले मोदी की रगों में गर्म सिंदूर दौड़ने की रीयल न्यूज से तो प्रीतिकर थी।

असल में मोदी जी ने तो अपनी ब्लड रिपोर्ट पेश कर दी कि उनकी नसों में अब खून की जगह गर्म सिंदूर दौड़ता है, पर विरोधियों ने उसमें भी फच्चड़ फंसा दिया। और कुछ नहीं मिला तो कहने लगे कि यह तो प्रधानमंत्री की सुरक्षा यानी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हो गया। एक अकेला सब पर भारी तक तो फिर भी ठीक था, पर रगों में सिंदूर दौड़ने के मामले में तो मोदी जी शब्दश: अकेले हैं--एकोह्म द्वितीयोनास्ति यानी एक अकेला, दूसरा कोई नहीं। सुरक्षा के लिए खतरे की बात यह थी कि अगर खुदा न खास्ता कभी खून-वून चढ़ाने की जरूरत पड़ जाए, तो क्या होगा? ऐसा दूसरा कहां से लाएंगे, जिसकी रगों में भी सिंदूर दौड़ता हो!

वैसे ‘‘घर-घर सिंदूर’’ प्रोग्राम में इस सवाल का भी जवाब छुपा हुआ था। सोचने की बात है– आखिर, घर-घर सिंदूर प्रोग्राम में, हर घर में सिंदूर किसलिए पहुंचाया जाना था? क्या, घर-घर में औरतों को अपनी मांग भरने के लिए सिंदूर देने के लिए? हर्गिज नहीं। यह तो कोरी अफवाह थी जो मोदी जी के विरोधियों ने फैलायी थी। यह विरोधियों की फैलायी फेक न्यूज थी। इसी के सहारे तो विरोधियों ने यह प्रचार करना शुरू कर दिया था कि यह सभी सधवाओं की मांग में मोदी जी के नाम का सिंदूर लगवाने का प्रोग्राम था। शोर मच गया कि जिस मांग में लगाना था, उसमें सिंदूर लगवाया नहीं गया, ये बाकी सभी महिलाओं की मांग में किस अधिकार से सिंदूर भरने चले हैं। इसे भारतीय संस्कृति विरोधी से लेकर न जाने क्या-क्या घोषित कर दिया गया। नतीजा यह कि मोदी जी की पार्टी को फेक न्यूज कहकर, घर-घर सिंदूर के प्रोग्राम से ही पीछा छुड़ाना पड़ गया।

लेकिन, वैसा कुछ नहीं था। मोदी जी की पार्टी तो घर-घर सिंदूर की डिबिया पहुंचाना चाहती थी, ताकि वक्त-जरूरत के लिए हर घर में, हमेशा सिंदूर रहे। इस सिंदूर का मांग में भरने वाले सिंदूर से कोई लेना-देना ही नहीं था। यह तो रगों में बहने-बहाने वाला सिंदूर था। आइडिया यह था कि सब, जी हां स्त्री-पुरुष सब, चुटकी-चुटकी सिंदूर गर्म कर के नसों में दौड़ाने की प्रैक्टिस करेंगे, ताकि और कुछ नहीं तो ज्यादा से ज्यादा ऑपरेशन सिंदूर-2 आने तक, दो-चार करोड़ लोगों की नसों में तो सिंदूर दौडऩे लग ही जाए। यानी नसों में सिंदूर दौड़ने के मामले में मोदी जी का निर्विवाद नेतृत्व का नेतृत्व और एकदम अकेलापन भी नहीं। रगों में दौड़ने वाले सिंदूर की उपलब्धता से, राष्ट्र  भी सुरक्षित। लेकिन, विरोधियों ने सब चौपट कर दिया। घर-घर सिंदूर योजना ही कैंसिल करा दी। रगों में दौड़ते सिंदूर के साथ, मोदी जी निपट अकेले और राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में।

पर मोदी जी के विरोधी देश में ही थोड़े ही हैं। मोदी जी का मामला विश्व स्तर का है, सो विरोधी भी विश्व भर हैं। देखा नहीं कैसे बेचारे का जी-7 का न्यौता आते-आते अटक ही गया था। और अब आखिरी वक्त पर, प्रोग्राम से सिर्फ एक हफ्ता पहले न्यौता आया भी है, तो सुना है कि कनाडा के प्रधानमंत्री, करनी को इसकी सफाइयां देनी पड़ रही हैं कि मोदी जी को न्यौता दिया तो दिया क्यों? और अगला सफाइयां भी कैसी-कैसी दे रहा है। कह रहा है कि भारत पांचवां सबसे बड़ा बाजार है, सो न्यौतना तो बनता था। भारत वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं के केंद्र में है, न्यौतना तो बनता था, आदि, आदि। अगले को सिंपली यह कहना मंजूर ही नहीं हुआ कि विश्व गुरु जी हैं, न्यौतना तो बनता ही था।

लगता है कि विश्व गुरु की गद्दी तो आते-आते वैसे ही रह गयी है, जैसे सुरक्षा परिषद की सीट। उल्टे सारी दुनिया कह रही है कि पाकिस्तान के साथ झगड़े में, न पड़ौसी न दूर के नातेदार, हमारे साथ खड़ा होने वाला कोई नहीं है। न मोदी जी की झप्पियां-पप्पियां काम आयीं, न विदेश मंत्री जयशंकर की आंखों की लेजर लाइट। और तो और बहुदलीय प्रतिनिधिमंडलों को करीब तीन दर्जन देशों में भेजा, उसका भी कोई फायदा नहीं हुआ। ऐसा कोई मिलने ही नहीं आया, जिससे कोई फर्क पड़ता हो। और तो और बंबइया फिल्मी गाने सुनने तक के लिए कोई नहीं आया, बेचारों को अपने गाने खुद ही गाने भी पड़े और सुनने भी पड़े।  

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं।)

 

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