कटाक्ष: अब एक देश एक लेप भी– गोबर का लेप

इब्तदा ए इश्क है रोता है क्या, आगे-आगे देखिए होता है क्या? बेशक, अभी शुरूआत हुई है। लेकिन, एक देश एक लेप की शुरूआत हो तो गयी है। अब एक देश, एक लेप को सचाई बनने से कोई नहीं रोक सकता है। और क्यों न हो जब मोदी जी एक देश, एक विधान ले आए हैं। एक देश, एक निशान ले आए हैं। एक देश, एक कानून ले आए हैं। एक देश, एक भाषा के लिए दक्षिण वालों से झगड़ रहे हैं। एक देश एक चुनाव लाने के लिए भिड़े हुए हैं। एक देश, एक निजी कानून, उत्तराखंड वाले कोने से शुरू करा दिए हैं। एक देश एक टैक्स कानून ला चुके हैं। एक देश, एक पोस्ट बाकी सब लेंप पोस्ट चला रहे हैं। एक देश, एक तस्वीर दिखा रहे हैं। फिर, एक देश, एक लेप भी क्यों नहीं? एक देश, एक लेप--जाहिर है कि गोबर का लेप।
यह एकदम उपयुक्त है कि देश की राजधानी से इसकी शुरुआत हुई है। वह भी राजधानी के एक कॉलेज से। स्वयं प्रिंसिपल साहिबा ने अपने कर-कमलों से इस पवित्र यज्ञ की शुरुआत की है, बच्चों की कक्षा की लिपाई से। एकदम ताजा गोबर की लिपाई से। यही होना भी चाहिए। राष्ट्र निर्माण के कामों में शिक्षा संस्थाओं को और शिक्षकों को बढ़कर आगे आना चाहिए। बच्चे वहां से जो सीखकर निकलेंगे, उसी को तो आगे ले जाएंगे। कालेजों-विश्वविद्यालयों की चारदीवारी में जो ज्ञान लेेंगे, उसे वृहत्तर समाज में फैलाएंगे। गोबर से लीपने की कला देश के कोने-कोने में फैलाएंगे।
वह कला जो हमारे देश की प्राचीन कलाओं में से एक है। वह कला जिसे कभी देश भर की महिलाएं जानती थीं और जिससे अपने घर-दुआरे सजाया करती थीं। वह कला जिस पर कभी भारतीयों को गर्व था। लेकिन, दुर्भाग्य से अब हमारे उस प्राचीन ज्ञान का, उस पुरानी कला का लोप होता जा रहा है। नेहरू जी वाली आधुनिकता के चक्कर में ज्यादा से ज्यादा घरों, दफ्तरों, बाजारों वगैरह में रेत और सीमेंट से लिपाई होने लगी है। उस पर तरह-तरह की पेंट वगैरह की पुताई भी। पर अब आधुनिकता के नाम पर यह पश्चिम का अंधानुकरण नहीं चलेगा। अब तक चला तो चला, पर अमृतकाल में अब और नहीं चलेगा। शुरुआत हो गयी है, अब नयी पीढ़ी के युवा आएंगे और हमारी प्राचीन गोबर लिपाई संस्कृति के सोए भाग फिर से जगाएंगे।
और हां! इसे सिर्फ लेपन टेक्निक का मामला समझने की गलती कोई नहीं करे। बेशक, लिपाई की टेक्निक के पीछे हमारा पुराना ज्ञान है बल्कि विज्ञान है। लेकिन, यह विज्ञान सिर्फ गोबर की लिपाई की टेक्निक तक सीमित नहीं है। विज्ञान अपने आप में मुकम्मल होता है। गोबर की लिपाई के पीछे हमारा मुकम्मल विज्ञान है। सिर्फ विज्ञान ही क्यों हमारी संस्कृति भी है। हमारा धर्म भी। हमारी परंपरा आदि, आदि भी। इस देश की पुरानी परंपरा में गोबर का हमेशा बहुत महत्व रहा है। हमने हमेशा गोबर को पवित्र माना है। गोबर हमारी हर चीज में समाया रहा है। गोबर हमारे घरों की दीवारों से लेकर आंगनों के फर्श जैसी बाहरी चीजों तक ही नहीं फैला रहा है, इंसानी खोपड़ियों के ऊपर और भीतर तक उसका प्रसार रहा है।
फिर भी यह तो सिर्फ लिपाई की तकनीक की बात हुई। जैसा हमने पहले कहा इस लिपाई के पीछे और गहरा विज्ञान है। गर्मी और सर्दी, दोनों की काट करने का विज्ञान। जब गोबर दीवारों पर लीप दिया जाता है, गर्मी दीवारों को पार नहीं कर पाती है। गोबर का लेप गर्मी-सर्दी को बाहर ही रोक देता है। दिल्ली में लक्ष्मी बाई कॉलेज की प्रिंसिपल साहिबा ने गोबर की लिपाई के ठीक इसी व्यावहारिक उपयोग से तो शुरुआत की थी, हमारी प्राचीन एअर कंडीशनिंग पद्धति के पुनरुद्धार की शुरुआत। आखिर, लक्ष्मीबाई के नाम का कॉलेज है। इतनी क्रांतिकारिता तो बनती ही थी। अब विकसित भारत बनाने वालों पर है कि देश भर में इस पुरानी एअर कंडीशनिंग पद्धति का प्रचलन कराएं। एअर कंडीशनिंग की एअर कंडीशनिंग और एअर कंडीशनरों का झंझट भी नहीं। न गैैस का प्रदूषण और न बिजली का खर्चा। सेंत-मेंत में पर्यावरण की रक्षा भी। और गोरक्षा यानी गाय-भैंस वंश की रक्षा को हर्गिज न भूलें।
हिमालय से हिंद महासागर तक, जब पूरे भारत को गोबर से लीपा जाएगा और परंपरा के अनुसार रोज-रोज लीपा जाएगा, तो गाय-भैंस वंश की रक्षा तो खुद ब खुद हो जाएगी। हर रोज लाखों टन गोबर की डिमांड पूरे देश को गाय-भैंसों की देखभाल में लगा देगी। दूध गौण हो जाएगा, गोबर प्रधान उत्पाद का दर्जा पाएगा। गाय-भैंस दूध देना बंद भी कर दें, पर गोबर देना बंद नहीं करती हैं।
और भी बहुत से फायदे हैं, गोबर की लिपाई के। सबसे बड़ा फायदा, यह पद्धति पूरी तरह से मुफ्त भले न हो, पर समाजवादी पूरी तरह से है। जरा सोचिए, एक सिरे से दूसरे सिरे तक, पूरे देश में और हर इमारत पर एक ही गोबर का लेप। जिस गोबर की लिपाई घुरहू के घर पर, उसी गोबर की लिपाई अंबानी के एंटीला पर। जिस गोबर की लिपाई छप्पर वाले स्कूल पर, उसी गोबर की लिपाई राष्ट्रपति भवन पर। इससे ज्यादा बराबरी क्या होगी, इससे बड़ा समतावाद क्या होगा? यानी अमीरों के लिए अमीरी की अमीरी और पब्लिक के लिए समाजवाद का समाजवाद।
लेकिन, एक देश एक लिपाई की राह इतनी आसान भी नहीं है। लक्ष्मीबाई कॉलेज की प्रिंसिपल साहिबा की बहादुरी को सिर-माथे लगाने के बजाए, पश्चिमी पढ़ाई के भरमाए छात्र गोबर की लिपाई पर ही भड़क गए। न प्राचीन परंपरा का ख्याल किया, न संस्कृति का, लगे अभद्रता करने कि क्लास रूम की लिपाई से पहले, प्रिंसिपल साहिबा अपने घर-दफ्तर को गोबर से लीप लेतीं और अपने एअर कंडीशनर की छुट्टी कर देतीं। और तो और दिल्ली विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर ने भी गोबर की लिपाई को एक्सपेरीमेंट कह दिया, जिसे पहले प्रिंसिपल को अपने घर-दफ्तर में आजमा कर देखना चाहिए था! इसीलिए तो ट्रम्प जी यूनिवर्सिटियों को बेवकूफ बनाने का अड्डा कहते हैं और उनकी फंडिंग बंद कर रहे हैं। मोदी जी भी जब यूनिवर्सिटियों पर डंडा चलाएंगे, तभी हम एक देश, एक लेप के रास्ते पर तेजी से आगे बढ़ पाएंगे। वर्ना दिमागों को गोबर से लीपने के प्रोजेक्ट में और न जाने और कितने साल लग जाएंगे।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोकलहर के संपादक हैं)
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