कटाक्ष: सारे के सारे बदल डालेंगे...नाम!
मोदी जी के ये विरोधी भी सच्ची ‘टेढ़ी दुम’ हैं। बताइए, मोदी जी ने संसद में वंदे मातरम् पर स्पेशल बहस करायी। सारे काम छोडक़र, वंदे मातरम् पर बहस करायी। लोकसभा में तो खुद भाषण देकर बहस शुरू करायी। मगर फिर भी विरोध…!
बेचारे मोदी जी ने चीख-चीखकर सारी दुनिया में इसकी शिकायत दर्ज करायी कि बंकिम दा के वंदे मातरम् के साथ कांग्रेस ने बड़ा अन्याय किया है। और आज से ही नहीं, आजादी के बाद से भी नहीं, आजादी से काफी पहले से वंदे मातरम् के साथ हकमारी होती आ रही है।
और यह सब किया-धरा था, जवाहर लाल नेहरू का। बेचारे गांधी जी तक को मजबूर कर दिया, वंदे मातरम् गीत के टुकड़े करने को मंजूरी देने के लिए। और जब एक बार टुकड़े होने का सिलसिला शुरू हो गया, तो वह देश के टुकड़े होने तक ही जाकर रुका।
उन्हीं जवाहरलाल नेहरू ने देश के टुकड़े कराए, जिन्होंने वंदे मातरम् के टुकड़े कराए। नेहरू ने उन्हीं ताकतों को खुश करने के लिए देश के टुकड़े कराए, जिन्हें खुश करने के लिए नेहरू ने वंदे मातरम् के टुकड़े कराए। और गांधी जी उसी तरह देश के टुकड़े होना मंजूर करने के लिए मजबूर हो गए, जैसे देश मातरम् के टुकड़े होने की मंजूरी देने के लिए तैयार हो गए थे!
और बंकिम दा के गीत के साथ नेहरू की दुभात यहीं तक नहीं रुका। देश के आजाद होने के बाद, जब संविधान सभा में राष्ट्रगीत का सवाल आया, वंदे मातरम् के साथ एक बार फिर हकमारी हुई। नेहरू ने जन गण मन को राष्ट्रगान बना दिया। वह भी बिना किसी बहस के। राजेंद्र प्रसाद ने प्रस्ताव रखा और जन गण मन राष्ट्रगान बन बैठा। कहने को वंदे मातरम् को भी अपनाया गया, पर राष्ट्रगीत बनाकर। और राष्ट्रगीत बनाकर भी उसके साथ गैरों जैसा सलूक जारी रखा गया। न उसके सम्मान ने नियम बनाए गए और न उसका अनादर करने वालों के लिए सजा के नियम। और तो और वंदे मातरम् के पहले दो अंतरों को ही राष्ट्रगीत बनाया गया। राष्ट्रगीत बनकर भी उसकी विभाजन की पीड़ा नहीं मिटी। बिना धड़ का सिर, जैसे बिना भारत के कश्मीर का महाराजा हरीसिंह का प्लान। बंटा हुआ राष्ट्रगीत भी कोई राष्ट्रगीत होता है, लल्लू!
और मोदी जी ने बिल्कुल सही कहा, बाकी सब चीजों की तरह, राष्ट्रगीत से देश के विभाजन की शुरूआत करने के लिए नेहरू और सिर्फ नेहरू ही जिम्मेदार हैं। बेशक, तब बापू भी थे और चूंकि सब कुछ बापू के नाम पर ही होता था, इसलिए बापू भी थोड़े-बहुत जिम्मेदार थे तो सही। लेकिन, वह दिल से ऐसा नहीं चाहते थे, न वंदे मातरम् का बंटवारा और न देश का बंटवारा, पर उन्हें इसे कबूल करने पर मजबूर कर दिया गया। अब प्लीज यह मत कहना कि तब तो सरदार पटेल भी थे, राजेंद्र प्रसाद भी, कृपलानी भी और वंदे मातरम के बंटवारे के समय तो सुभाषचंद्र बोस भी और रवींद्रनाथ टैगोर भी। अब रवींद्र नाथ टैगोर का मामला तो खैर अलग ही था। जिनका अपना जन गण मन राष्ट्रगान की रेस में रहने जा रहा था, वह रवींद्रनाथ टैगोर कैसे वंदे मातरम् पर कोई निष्पक्ष राय दे सकते थे? उनकी तो राय लेना ही गलत था। रहे पटेल, राजेंद्र प्रसाद, बोस वगैरह, तो जब गांधी जी तक को मजबूर किया जा सकता था, तो इन्हें मजबूर करना क्या मुश्किल था!
क्या कहा, सरदार पटेल? मजबूर हो जाने की बात सरदार पटेल के संबंध में तो औरों से भी ज्यादा सही है। ऐसा नहीं होता तो क्या सरदार पटेल आरएसएस जैसे राष्ट्रभक्त संगठन पर प्रतिबंध लगाते? पर लगाया। अपने हाथों से आरएसएस के लोगों को जेलों में डलवाया। और तो और आरएसएस के बनाए वातावरण को गांधी जी की हत्या के लिए जिम्मेदार भी बताया। बेशक, बाद में उन्होंने अपने उन्हीं हाथों से आरएसएस के ऊपर लगी पाबंदी हटायी भी। लेकिन, कब? आरएसएस वालों से यह लिखवा कर लेने के बाद कि राजनीति से दूर रहेंगे और संविधान से लेकर राष्ट्रीय झंडे तक का सम्मान करेंगे!
इससे एक सवाल और उठता है? नेहरू तो जैसे थे, वैसे थे ही, पर क्या मजबूर हो जाने वालों को भी सबसे बड़ा देशभक्त कहा जा सकता है? इसीलिए, तो अमित शाह ने अंडमान में वीर सावरकर की मूर्ति का अनावरण करते हुए, सावरकर को सबसे बड़े देशभक्त का तमगा दिया है। और भागवत जी की मौजूदगी में यह तमगा दिया है यानी इस तमगे पर आरएसएस की मोहर लगी हुई है। यानी एक बात पक्की कि जब तक मोदी राज में इतिहास का पुनर्लेखन चलेगा, तब तक तो यह तमगा चलेगा ही चलेगा। अब यह आफीशियल है--न गांधी, न पटेल और न कोई भगत सिंह वगैरह, कोई भी और नहीं, यहां तक कि प0 पू0 गुरुजी उर्फ गोलवालकर भी नहीं और डा. हेडगेवार भी नहीं, सावरकर और सिर्फ सावरकर ही सबसे बड़े देशभक्त थे। नेशन फर्स्ट वालों का कृतज्ञ राष्ट्र को गिफ्ट-- सावरकर फर्स्ट।
अब कोई कहेगा कि भगतसिंह क्यों नहीं, सुभाष बोस क्यों नहीं? सिंपल है, गोलवालकर जी पहले ही लिख गए हैं—हिंदू संस्कृति में आदर्श माने जाने के लिए, सफल होना जरूरी है। इसीलिए, हम तो कृष्ण को भी आदर्श नहीं मानते हैं; हमारे आदर्श सिर्फ श्रीराम हैं, जो रावण से युद्ध में विजयी हुए थे। युद्ध में विजयी नहीं होते तो, हम अवश्य किसी और की पूजा कर रहे होते। भगत सिंह, बोस वगैरह ने त्याग किया था, उसका तो हम पूरा सम्मान करतेे हैं। लेकिन, वे स्वतंत्रता प्राप्ति के अपने मनोरथ में सफल तो नहीं हो पाए थे, इसलिए हम उन्हें अपना आदर्श नहीं मान सकते हैं; सबसे बड़ा देशभक्त नहीं कह सकते हैं। और गांधी जी? वह तो बात-बात पर मजबूर हो जाते थे।
ऊपर से जैसा कि भागवत जी ने पिछले दिनों बताया था, गांधी जी औपनिवेशिक संस्कृति के प्रभाव में यह झूठा प्रचार भी करते थे कि अंगरेजों के राज से पहले, भारत बंटा हुआ था! गलत, एकदम गलत। मुगलों के टैम की बात दूसरी है, वर्ना भारत हमेशा से एक था। सब हिंदू थे और ब्राह्मण-दलित, सब वर्णव्यवस्था के जरिए एक थे। बीच में कुछ समय तक बुद्ध वगैरह ने वर्णों को बांटने की कोशिश की भी थी तो, जल्द ही उनका समूह सफाया कर, मुसलमानों के आने से पहले ही हिंदुओं को और पक्के तरीके से एक कर दिया गया था। वैसे भी जब हमारे पास सावरकर जैसे कामयाब हीरो हैं, तो हम देश की एकता के लिए बार-बार मजबूर हो जाने वाले गांधी को सबसे बड़ा देशभक्त क्यों मानें?
और अब फिर से माफीनामों की बात उठाने की कोशिश कोई नहीं करे। सावरकर ने माफीनामे कुल छ: लिखे थे या सात, इस पर तो बहस को सकती है, लेकिन इतना तय है कि उन्होंने माफीनामे पूरी तरह से स्वेच्छा से लिखे थे, किसी कारण से मजबूर होकर नहीं। असल में वह कवि हृदय थे। जब कविता लिखने से ब्रेक लेना होता था, माफीनामा लिख देते थे। बस इतनी सी बात थी। और माफी मिलने के बाद, माफी देने वालों के प्रति वफादारी भी उन्होंने एकदम अपनी मर्जी से निभाई थी, किसी पेेंशन की मजबूरी में नहीं। वह वाकई सबसे बड़े देशभक्त थे। अभी तो भागवत जी ने अंडमान में मूर्ति के अनावरण से शुरूआत की है, जल्दी शहर-शहर में नये सबसे बड़े देशभक्त की मूर्तियां लगायी जाएंगी। वह दिन दूर नहीं है जब गांधी जी की जगह, सावरकर जी को राष्ट्रपिता के आसन पर बैठाया जाएगा। और वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत और राष्ट्रगान दोनों बनाया जाएगा और खंडित नहीं, पूरा का पूरा हर मौके पर गवाया जाएगा।
क्या समझा था, मोदी जी विकसित भारत बनाने के लिए, केंद्रीय सचिवालय का नाम कर्तव्य भवन करने पर ही रुक जाएंगे, नहीं जी मनरेगा की जगह अब विकसित भारत- जी राम जी (VB-G RAM G) भी कर रहे हैं। तो क्या मोदी जी के इस विकसित भारत में भी हम बाबा आदम के जमाने के राष्ट्रपिता और राष्ट्रगीत वगैरह से ही काम चलाएंगे? गलत। मोदी जी, सारे के सारे बदल डालेंगे--नाम!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लोक लहर के संपादक हैं।)
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