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दुनिया में मरघट का सन्नाटा न पसरे इसलिए आधे घंटे का डिजिटल मौन

Digital Silence का यह एक छोटा और सांकेतिक दिखने वाला प्रतिरोध ग़ज़ा के साथ आम इंसान को जोड़ता तो है ही उसे अपराधियों के असली चेहरे को देखने और पूंजीवाद के नए रूप की वास्तविकता समझने में भी मदद करता है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार सोशल मीडिया

इंसान होने की खूबी यह है कि वह ज़ुल्म के हद से ज्यादा बढ़ने के बाद भी समर्पण नहीं करता, प्रतिरोध तेज करता है और उसके नए नए तरीके भी ढूंढता, तलाशता रहता है। कई बार, किसी निजी पहल के साथ सुझाए गए तरीके और किये गए आह्वान भी बिजली की रफ़्तार से दुनिया भर में फैल जाते हैं। ग़ज़ा के एक डॉक्टर एजिदीन द्वारा किया गया फ़िलिस्तीन और खासतौर से ग़ज़ा के नागरिकों पर थोपे गये नरसंहार की असहनीय पीड़ा के विरुद्ध एक सप्ताह तक आधा घंटे के लिए मोबाइल और इंटरनेट बंद करने का पैगाम इसी तरह का आह्वान था। 

दुनिया के अनेक देशों की जनता ने इसे जिस प्रभावी तरीके से व्यवहार में उतारा वह जहां ग़ज़ा के प्रति वैश्विक चिंता और एकजुटता का प्रतीक है बल्कि इस भयानक नरसंहार के शरीकेजुर्मों की शिनाख्त कराने की एक असरदार मुहिम का भी उदाहरण है।   

विश्व के अनेक संगठनों, दलों, आंदोलनों ने इस आह्वान को अपना आह्वान बनाया; भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने भी इसे न सिर्फ समर्थन दिया बल्कि लाखों करोड़ों हिन्दुस्तानियों ने 6 जुलाई से 12 जुलाई तक हर रोज शाम 9 बजे से 9.30 बजे तक अपने मोबाइल और इंटरनेट बंद रखकर इसे असाधारण रूप से सफल भी किया।  

यह किस तरह महज एक प्रतीकात्मक कार्यवाही नहीं है, एक बहुआयामी प्रभाव डालने वाला प्रतिरोध है, इस पर आने से पहले यह जानना जरूरी होगा कि ग़ज़ा पर बोलना और उसके साथ खड़े होना क्यों जरूरी है। ग़ज़ा पर बोलने के लिए डिजिटली आधा घंटा मौन रहना क्यों आवश्यक है ।

निस्संदेह एक अत्यंत छोटे, फकत 365 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाले नन्हे से ग़ज़ा में पिछले 20 महीने से  जो नरसंहार हो रहा है वह मानवीय प्रश्न है। 7 अक्टूबर 2023 से हमास के कथित हमले के बाद ग़ज़ा पर इज़रायली हमलों में मारे गए निर्दोष नागरिकों की संख्या के अनुमान 57 हजार से लेकर 61 हजार के बीच हैं । महज 24 लाख से भी कम आबादी वाले इस छोटे से इलाके में इतनी सारी मौतें आधुनिक समाज का सबसे वीभत्स नरसंहार है। इन मारे गए लोगों में दो तिहाई से अधिक या तो बच्चे हैं या महिलाएं हैं। अब तक के इतिहास में इज़रायल ने बर्बर बेंजामिन नेतन्याहू की अगुआई में इस नरसंहार के लिए जो तरीके अपनाए हैं वे सभ्य समाज ही नहीं समूची मनुष्यता को स्तब्ध करने वाले हैं।  

सारे अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की धज्जियां उड़ाते हुए बच्चों के स्कूल्स पर उस समय बम गिराए जब वे पढ़ रहे थे, अस्पतालों पर बमबारी करके उन्हें मरीजों और डॉक्टरों की कब्रगाह बना दिया गया । रेडक्रॉस, विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी तटस्थ संस्थाओं द्वारा भेजी जाने वाली दवाओं की खेप रोक दी गयी, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं द्वारा ले जा रही दवाओं और राहत सामग्री को रास्ते में ही रोककर उन्हें ले जाने वालों को ही गिरफ्तार कर लिया गया– इनमे पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थन्बर्ग भी शामिल थीं। 

बर्बरता की हद यह थी कि भोजन और राहत सामग्री बांटे जाने का एलान करके पहले लोगों को इकट्ठा किया गया और फिर उन्हें निशाना बनाकर मिसाइल दाग कर मार डाला। जाहिर है कि इनमे भी 90 प्रतिशत से अधिक भूखे बच्चे और महिलायें थीं। इसलिए बिलाशक ग़ज़ा एक मानवीय प्रश्न है; मगर यह सिर्फ मानवीय संवेदनाओं को झकझोरने वाला मसला ही नहीं है। यह इससे कही ज्यादा गम्भीर और खतरनाक काण्ड है। 

ग़ज़ा के साथ जो हो रहा है वह कई हजार वर्षों में हासिल उन सारे कानूनों और मर्यादाओं को ध्वस्त करने वाला है जिन्हें बीसियों करोड़ इंसानों की मौत के बाद मानव समाज ने हासिल किया है। इसने पहले विश्वयुद्ध के बाद बनी लीग ऑफ़ नेशन्स, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बने संयुक्त राष्ट्र संघ की दुनिया को कुछ नियमों से चलाने की समझदारी को ही उलट दिया है। 

पौराणिक जमाने से  सिकंदर से होते हुए युद्ध की उन सारी सीमाओं को ही मिटा दिया है जिसमे स्त्रियों, बच्चों, नागरिकों को हमलों से अलग रखने की धारणा विकसित होकर आई थी। संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने पूरे इतिहास में जितने प्रस्ताव इज़रायल की करतूतों और मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ पारित किये हैं उतने किसी और मामले में नहीं किये। 

संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा में अब तक करीब 700 बार और सुरक्षा परिषद् में कोई 60 बार फिलिस्तीन की समस्या को लेकर, इज़रायल के जबरिया कब्जे को हटाने के लिए, उसके नरसंहार की निंदा करने के लिए प्रस्ताव पारित हुए हैं। इन प्रस्तावों पर जब जब भी वोटिंग हुयी है तब तब ज्यादातर मामलों में इज़रायल के पक्ष में सिर्फ एक वोट पड़ा है और यह वोट अमरीका का रहा है। इस बार के हमलों में भी मुट्ठी भर छोटे मोटे देशों को छोड़कर किसी ने – यहाँ तक कि नाटो के सदस्य और अमरीका के पिछलग्गू देशों ने भी – इज़रायल का साथ नहीं दिया। तत्काल युद्धविराम किये जाने की मांग की।

यदि दुनिया को चलाने वाले सारे क़ानून ही अप्रासंगिक बना दिए जायेंगे तो जो भेड़िये छुट्टे घूमेंगे वे सिर्फ ग़ज़ा को चीन्थने तक ही नहीं रुकेंगे। कोई भी सुरक्षित नहीं बचेगा। इसलिए ग़ज़ा का सवाल सिर्फ ग़ज़ा का सवाल नहीं है, पृथ्वी पर रहने वाले हर मनुष्य और खुद पृथ्वी के भविष्य की सलामती का सवाल है।

जिस आधार पर पिछले 75 वर्ष से इज़रायल का यहूदीवादी निजाम फिलिस्तीन को लहूलुहान किये हुए है, उसकी बोटी बोटी नोंचकर इस एतिहासिक राष्ट्र फिलिस्तीन को घटाकर उसके पास अपनी ही जमीन का दसवां हिस्सा भी नहीं छोड़ा है – वह आधार अगर दुनिया के बाकी दुष्ट राज्यों के लिए भी आधार बन गया तो फिर भारत सहित कोई भी साबुत सलामत बचेगा क्या? बिना किसी एतिहासिक प्रमाण के महज यह दावा करके कि कोई चार हजार साल पहले यहूदी धर्म के पैगम्बर हजरत अब्राहम ने यही इल्हाम हासिल किया था और इस तरह  हजारों साल पहले यह देश हमारा था, फिलिस्तीन पर धावा बोल दिया गया। इस इलाके को सैकड़ो वर्षों तक गुलाम बनाए रखने वाले ब्रिटेन ने फ्रांस और अमरीका के साथ मिलकर दबाव बनाया। 1947 में "नए देश" के लिए जमीन का एक हिस्सा देने की बात हुयी। उस समय यानी 1947 में फिलिस्तीन में फिलिस्तीनी अरब 13 लाख 50 हजार थे और फिलिस्तीनी यहूदी करीब साढ़े छह लाख थे और इनका कब्जा सिर्फ 6% जमीन पर था।  आज यह आंकडा उलटा जा चुका है । बित्ता भर जमीन बची है और  फिलिस्तीनी अपने ही देश में शरणार्थी हैं।

यह कल्पना ही भयावह है कि यह बेतुका आधार अगर दुनिया भर में कब्जे का आधार बन गया तो बचेगा कौन ? बुद्ध धर्म को मानने वाले यही तर्क बुद्ध की जन्म और सिद्धि स्थली पर लागू करेंगे तो क्या होगा? बात उससे भी पहले आदिवासी युग तक गयी तो कहाँ कहाँ क्या क्या शेष रहेगा? इसलिए ग़ज़ा सिर्फ उस छोटे से इलाके तक महदूद सवाल नहीं है; यह आने वाली दुनिया का एक ट्रेलर है, इसे यदि इसे पूरा साकार होने दिया तो ऐसी फिल्म बनेगी जिसका कोई मध्यांतर नहीं होगा!

यह पहलू इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि युद्ध इज़रायल नहीं लड़ रहा; इज़रायल कभी नहीं लड़ा। इज़रायल की औकात क्या है यह अभी हाल में ईरान ने मात्र तीन दिन में दुनिया को दिखा दिया। इज़रायल अमरीकी और उसके नेतृत्व में चलने वाले साम्राज्यवाद का मोहरा है जिसे आगे बढ़ाकर ये लुटेरे पहले मध्यपूर्व और उसके बाद समूची दुनिया को अपने खूंटे पर बाँध लेने का मंसूबा देख रहे हैं। ट्रूमैन, आइजनहॉवर, केनेडी, जॉनसन, निक्सन से लेकर फोर्ड, कार्टर, रीगन, बड़े छोटे बुश, क्लिन्टन, ओबामा और बाइडेन से होते हुए  डोनाल्ड ट्रम्प के अमरीका तक, इस मामले में नीति कभी नहीं बदली गयी ।  अमरीका का एजेंडा साफ़ रहा और हालिया संकट बढ़ने के बाद ट्रंप की दूसरी टर्म में वह किस कदर खूंखार हो रहा है यह टैरिफ के बहाने मरोड़ी जाने वाली बांहों से समझा जा सकता है। 

भारत के नजरिये से देखें तो पाकिस्तान को गले लगाने का ट्रंप प्रेम कश्मीर और दीगर सवालों पर कहाँ तक जा सकता है यह समझने के लिए विदेश नीति का विशेषज्ञ होना जरूरी नहीं है। इसलिए भी ग़ज़ा हमारा और बाकी दुनिया का भी सवाल है ।

ठीक यही कारण है कि भारत की जनता हमेशा से इज़रायल की बर्बरता के खिलाफ फिलिस्तीन की जनता और उसके मुक्ति आंदोलन के साथ रही है। उसने साम्राज्यवाद को भुगता है - इसलिए वह फिलिस्तीनी जनता का दर्द जानती है। गांधी से लेकर कम्युनिस्टों तक, नेहरू से लेकर पटेल तक, जयप्रकाश से लेकर चौधरी चरण सिंह, चन्द्रशेखर. वी पी सिंह, देवेगौड़ा तक साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ने वाली सारी धाराएं, आपस के तमाम मतभेदों के बावजूद  फिलिस्तीनी जनता के मुक्ति आंदोलन के साथ रहीं। यहाँ तक कि वाजपेयी भी यही बोले और आधिकारिक रूप से यही नजरिया आज भी हैं। भारत वह पहला देश था जिसने फिलिस्तीन को मान्यता दी, उसे संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य का दर्जा दिलाने का प्रस्ताव रखा और मंजूर करवाया। यासर अराफात की अगुआई वाले फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन से लेकर आज का फिलिस्तीन भी हमेशा भारत के साथ खडा रहा। सिर्फ वही लोग इज़रायल के साथ रहे/हैं जो तब ब्रिटिश साम्राज्य का चरणवन्दन करते टेढ़े हुए जा रहे थे अब नमस्ते ट्रंप करते करते औंधे पड़े हैं।  

इन्हे इज़रायल बड़ा भाता है - इतना ज्यादा कि वे दुनिया की कुख्यात हत्यारी एजेंसी मोसाद के साथ भारतीय सुरक्षा में साझेदारी तक करने को तत्पर हो जाते हैं। इज़रायल के हथियारों का सबसे बड़ा खरीददार भारत को बना देते है। मोदी के आने के बाद 70 साल में पहली बार ऐसा हुआ है जब संयुक्त राष्ट्र संघ में इज़रायल के विरुद्ध आये प्रस्तावों पर भारत तटस्थ रहा। सैकड़ों देश इज़रायल की निंदा करते रहे मगर हम 140  करोड़ आबादी वाले दुनिया के सबसे बड़े राष्ट्र कभी ओबामा तो कभी ट्रंप का मुंह ताकते रहे। इस बार तो हद ही कर दी जब 12 जून को संयुक्त राष्ट्र संघ में आये युद्धविराम के प्रस्ताव पर भारत अल्बानिया, कैमरून, डोमिनिका, किरीबाती, मलावी,तिमोरी लेस्ते, पनामा, मार्शल द्वीप, टोंगो, चेचिया, जोर्जिया, स्लोवाकिया जैसे नक़्शे पर मुश्किल से ढूंढें जाने वाले देशो के साथ तटस्थ होने के लिए मतदान कर रहा था। यह कुकर्म करने के बाद  झेंप मिटाने के लहजे में  संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत के राजदूत बार बार कह रहे थे कि हमारे देश की आधिकारिक नीति फिलिस्तीन को राष्ट्र मानने और उसकी जमीन वापस कराने की है। इसके बाद भी यह तटस्थ रुख क्यों? जाहिर है ट्रंप के दरबारी बनने की चाहत के सिवा और कोई कारण नहीं हो सकता।

इसी गिरोह ने अपनी जहरीली मुहिम चलाकर आज फिलीस्तीन के मामले में भारत की जनता के बड़े हिस्से को भ्रमित कर दिया है। कुछ धूर्तों ने मिलकर ग़ज़ा और फिलिस्तीन को मुस्लिम विरोधी इस्लामोफोबिक चश्मे से दिखाना शुरू कर दिया है और उनकी भक्तमंडली के मूर्खों ने उसे सच मान लिया है। इन्हें नहीं पता कि फिलिस्तीन पर हमलों का किसी भी तरह के धार्मिक विवाद से कोई संबंध नहीं है - यह सीधे सीधे फिलिस्तीन की जमीन पर कब्जा कर उसे अपना उपनिवेश बनाने की साजिश है। जिस पूर्वी यरूशलम पर कब्जे के लिए मई 2021 का हमला शुरू हुआ था वह एक ही पुरखे की निरंतरता में आये दुनिया के तीन धर्मों से जुड़ा ऐतिहासिक शहर है। उस एक किलोमीटर से भी कम दायरे में तीनो धर्मों के जन्म और उनके पैगम्बरों के साथ जुड़ाव के महत्वपूर्ण तीर्थ हैं। यहूदी मान्यताओं के हिसाब से अब्राहम यहीं के थे। ईसा मसीह को यहीं सूली पर चढ़ाया गया था और ईसाई मान्यताओं के हिसाब से यहीं वे पुनर्जीवित हुए थे। मक्का, मदीना के बाद इस्लाम का यह तीसरा सबसे पवित्र धार्मिक स्थल है। इस्लाम धर्म की घोषणा यहीं हुयी थी और इस्लामिक मान्यताओं के हिसाब से पैगम्बर हजरत मोहम्मद यही से खुदा के पास गए थे। मगर जो खुद अपने देश की साझी और समावेशी विरासत को नहीं जानते वे दुनिया के बारे में कितना जानेंगे और पूरी तरह अपराधी हो चुका मुख्य धारा का मीडिया उन्हें कैसे जानने देगा। यह एक मुख्य वजह है कि ग़ज़ा के मुद्दे को जनता के बीच ले जाया जाना चाहिए। वाम और सीपीएम यह जानते हैं – उनकी अगुआई में पूरे देश में इसे लेकर हुई लामबंदियाँ यही काम करने की कोशिशें हैं। सप्ताह भर आधा घंटे के डिजिटल मौन का आह्वान इसी दिशा में किया गया आह्वान है ।

यह डिजिटल मौन, आधा घंटे तक सोशल मीडिया के इस्तेमाल और किसी भी तरह के एप्प को न खोलने के सिर्फ सांकेतिक प्रभाव ही नहीं होंगे, इसके सामाजिक असर भी होंगे – इनके आर्थिक असर भी होंगे।  सोशल मीडिया और इंटरनेट पर हमारी सक्रियता हमारी पहचान वाले पदचिन्ह भी छोड़ती है। यही पदचिन्ह हैं जिन पर चलकर बाजार हमारे घर तक पहुंचता है। हमारी दिलचस्पी और रूचि को जानकर वह हमें अपना उपभोक्ता और अपने माल को खपाने का जरिया बनाता है। यह डिजिटल मौन इन महाकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों को धक्का पहुंचाएगा; इसलिए  सवाल सिर्फ आधा घंटे का नहीं है, जो अल्गोरिथम समझते हैं वे जानते हैं कि लाखों करोड़ों का एक साथ आधे घंटे इंटरनेट और सोशल मीडिया से दूर रहना इनके सारे ताने बाने में व्यवधान डालकर उसे खंडित करता है। इनका सरोदा बिगाड़ देता है ।

यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यही बड़े कोर्पोरेट्स हैं जिन्होंने इज़रायल को मदद की और बेदखली और नरसंहार को अपने छप्परफाड़ मुनाफों का जरिया बनाया। हाल ही में जारी संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अध्ययन दल ने “कब्जे की अर्थव्यस्था से नरसंहार की अर्थव्यस्था तक” नाम की अपनी रिपोर्ट में इसका पर्दाफ़ाश किया है। इस रिपोर्ट ने बताया है कि किस तरह  कार्पोरेट्स ने इज़रायल की फिलिस्तीनियों के विस्थापन और नरसंहार की उपनिवेशवादी परियोजना में पैसा लगाया है, अपने पैसे की दम पर देशों के नेताओं को उनके दायित्वों से अलग रखना पक्का किया है और विराट मुनाफ़ा कमाया है ।  यह रिपोर्ट 48 बड़े कार्पोरेट खलनायकों को नामजद करती हैं जिनमे अमरीका की दानवाकार कम्पनियां माइक्रोसॉफ्ट, अल्फाबेट इंक., गूगल की मूल कम्पनी और अमेज़न शामिल हैं। कोई 1000 कार्पोरेट कंपनियों के डाटा को आधार बनाकर किया गया यह अध्ययन वैश्विक वित्तीय पूँजी के घिनौने और पाशविक चेहरे को उजागर करता है। रिपोर्ट का कहना है कि ये कम्पनियां कब्जे के साथ जुड़ी भर नहीं हैं, ये नरसंहार की अर्थव्यवस्था के साथ नत्थी भी हैं। 

इस तरह डिजिटल मौन का यह एक छोटा और सांकेतिक दिखने वाला प्रतिरोध ग़ज़ा के साथ आम इंसान को जोड़ता तो है ही उसे अपराधियों के असली चेहरे को देखने और पूँजीवाद के नए रूप की वास्तविकता समझने में भी मदद करता है।

(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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