“भूख को चित्रित करती हैं अमरकांत की कहानियां”

पटना: बिहार प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से सुप्रसिद्ध कथाकार अमरकांत की जनशताब्दी का आयोजन बिहार माध्यमिक शिक्षक संघ में किया गया। पूरा कार्यक्रम तीन सत्रों में विभाजित था। इस अवसर पर बड़ी संख्या में पटना के आलावा बिहार के विभिन्न क्षेत्रों से आये साहित्यकारों, कवियों, कहानीकारों, रंगकर्मियों के साथ-साथ विश्वविद्यालयों के प्राध्यपकों और छात्रों ने भाग लिया।
कार्यक्रम के दौरान युवा कवि चंद्रबिंद की आलोचना पुस्तक ' सृजन और सार्थकता' के द्वितीय संस्करण का लोकार्पण भी किया गया।
पहले सत्र का विषय था 'अमरकांत की साहित्यिक विरासत'। इस सत्र का संचालन पटना प्रगतिशील संघ के कार्यकारी सचिव जयप्रकाश ने किया।
बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष संतोष दीक्षित ने विषय प्रवेश कराते हुए कहा "अमरकांत नई कहानी के दौर में चिह्नित किये गए। नई कहानी का दौर आज़ादी के बाद आता है। इस दौर में अचानक से हमारे सोचने का मेयार बदलने लगा। अब यूरोप से गुलाम वाला भाव नहीं था। हम अब यूरोप से अकुंठ भाव से सीखने का प्रयास कर रहे थे। स्त्री–पुरुष संबंधों की एक नई व्याख्या शुरू हुई। 1955 में अमरकांत की कहानी 'इंटरव्यू' आई थी। अमरकांत ने सादगी और सच्चाई के साथ निम्न वर्ग के जीवन को अपनी कहानियों का विषय बनाया। गांधी जी की हत्या के बाद समाज में अनास्था फैल गई थी। अमरकांत उसी अनास्था के लेखक थे। उनकी 'ज़िन्दगी और जोंक' या 'डिप्टी कलेक्टर' कहानी पढ़ें तो आपको नये दौर का पता चलेगा। अमरकांत हमेशा प्रगतिशील तबकों के बारे में बात करते रहे। अमरकांत की कहानियों को पढ़ते हुए आँखों में आंसू आ जाते हैं। वे प्रेमचंद की परम्परा को आगे बढ़ाते रहे।"
हाजीपुर महिला कॉलेज में हिंदी की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर अनिशा ने अमरकांत की कई कहानियों का उदाहरण देते हुए बताया "रवीन्द्र कालिया ने अमरकांत की 129 कहानियों का संकलन प्रकाशित किया था। अमरकांत को प्रेमचंद की परम्परा का कहानीकार माना जाता है। यशपाल ने उनकी तुलना (मैक्सिम) गोर्की से की थी। उनकी एक कहानी में आर्थिक विप्पन्नता के कारण पिता काम करने के लिए बाहर जाने की बात करता है। लेखक गरीबी, भुखमरी का चित्रण तो करता ही है अमरकांत उच्च वर्ग के अंदर निम्न वर्ग के प्रति घृणा के भाव को भी सामने लाते हैं। निम्न वर्ग की समस्या खुल कर आई है अमरकांत में। एक कहानी में कहा जाता है नीच और नींबू को निचोड़ने का ही काम करना चाहिए। 'पलाश के फूल' में स्त्री पुरुष के संबंधों को विषय बनाया गया है। अमरकांत की साधारण लगने वाली कहानी में असाधरणता लगती है। 'ज़िन्दगी और जोंक' में जीवन से चिपके रहने की भावना है। मार खाकर, दुत्कारा जाकर भी जिंदगी जीने की इच्छा बनी रहती है । वैसे मुझे 'दोपहर का भोजन' कहानी बहुत प्रिय है। "
सासाराम से आये चर्चित कथाकार नर्मदेश्वर ने अपने संबोधन में कहा '' अमरकांत जी से मैं 'कथापर्व' समारोह में मिला था। जिस परिवेश में रहा करते थे उसी परिवेश की कहानियाँ वे लिखा करते थे। अमरकांत जी साधारण को विशिष्ट बनाने की कला में माहिर थे। 'दोपहर का भोजन' कहानी के बारे में यशपाल ने कहा था ऐसी ठंडी और बिना घटना के कहानी लिखना सबके बूते की बात नहीं है। 'डिप्टी कलेक्टरी' में पिता बेटा के लिए मेवा खरीद कर लाता है। अमरकांत छोटी-छोटी बातों को विस्तार देते हैं। विस्तार देने की कला जाननी हो तो 'डिप्टी कलेक्टर' कहानी पढ़ने की जरूरत है। "
आलोचक कुमार सर्वेश ने बहस को आगे बढ़ाते हुए कहा "अमरकांत की 'सूखा पत्ता' उपन्यास पढ़ा तो मुझे 'गुनाहों का देवता' की याद आती रही। भूख की समस्या पर जितना अमरकांत ने लिखा उतना बहुत कम लोगों ने लिखा हैं। स्त्री पात्रों में उन्होंने दिखाया कि उन्हें भूख के साथ साथ पितृसत्ता का भी बोझ है उसपर। भूख के सवाल को उन्होंने जाति के सवाल से भी जोड़ कर देखने का प्रयास किया। प्रेमचंद व अमरकांत दोनों यथार्थवादी धारा के रचनाकार हैं लेकिन प्रेमचंद मुख्यतः ग्रामीण पृष्ठभूमि के लेखक हैं वहीं अमरकांत शहरी निम्नवर्ग को केंद्र में लाते हैं। 'दोपहर के भोजन', 'ज़िन्दगी का जोंक' आदि में हमने एक बिल्कुल नये नजरिये से देखने की कोशिश की। हमारी सरकार शहर केंद्रित विकास करने की कोशिश कर रही है। अमरकांत अपनी रचनाओं में स्त्री की आदर्शवादी नैतिकता के बजाये मध्यवर्गीय अंतर्विरोध को सामने लाते हैं। स्त्री पात्र यथार्थ के धरातल पर खड़े दिखाई देते हैं। निम्न वर्ग की समस्या खुल कर आई है। अमरकांत की प्रासंगिकता आज अधिक दिखाई पड़ता है। हम लैंगिक संदर्भ में जब भी जाते हैं वहाँ पुरुषवादी दृष्टिकोण सामने आ जाता है।"
चर्चित कथाकार व नाटककार ह्रषीकेश सुलभ ने कहा "यथार्थ को चुनना, उसे रखना और यथार्थ के गर्भ से भाषा को बरतना एक कठिन काम है। जिन लोगों को किनारा करके हम आगे बढ़ जाते हैं उन्हें कैसे कहानी में लाया जाता है इसकी कला हमें अमरकांत से सीखनी चाहिए। अमरकांत ने जो भाषा अर्जित की है वह अलग से देखने की कोशिश करेंगे तो नहीं दिखाई पड़ेगा वह भाषा कहानी के अंदर विन्यस्त रहा करती है। अमरकांत यथार्थ खोजने के लिए झोला लेकर नहीं निकलते हैं। 'डिप्टी कलकटर' में पिता बेटा को सिगरेट मुहैया कराता है इसके पीछे उसका लालच है। 'हत्यारे' कहानी में लफ्फाजी को सामने लाया जाता है। पूरे तंत्र पर भरोसा करना मुश्किल हो जाता है। मैंने सबसे पहले 'हत्यारे' का ही नाट्य रूपांतरण किया था। भाषा और शिल्प के बजाये जीवन से चीजों को कैसे ढाला जाए इसे हमें अमरकांत से सीखा जाना चाहिए।"
पटना कॉलेज के पूर्व प्राचार्य और आलोचक प्रो तरुण कुमार ने बातचीत में हस्तक्षेप करते हुए कहा " 'हत्यारे' कहानी पढ़ते हुए हमें प्रेमचंद की कहानी घीसु-माधव की याद आती है। 'हत्यारे' के पात्र भी मदिरालय जाकर रचनात्मक कार्य करने की बात करते हैं। कहानी ऐसी जगह जाकर खत्म होती है कि हमारे अंदर गूंज-अनुगूंज छोड़ देता है कि इसने हत्या की है यह दोषी है या इनका इस्तेमाल किया गया है। किसी एक कहानीकार को पढ़ते हुए यदि कोई पूर्ववर्ती रचनाकार याद आये या कौंध जाए तो इससे अच्छी बात कुछ नहीं हो सकती। स्थितियों-परिस्थितियों को कलमबंद करना कला बड़ी बात होती है । 'डिप्टी कलेक्टर' के शिवनाथ बाबू जैसे पात्र हिंदी कहानी में कालजयी की गिनती में आते हैं। इस कहानी में इतने किस्म की हँसी आती है कि रघुवीर सहाय की 'हंसो-हंसो' कविता की याद आती है। अमरकांत की कहानियाँ कहीं से भी लाउड नहीं हैं, कोई चीज थोपी नहीं जाती कोई विचारधारात्मक आग्रह नहीं दिखता है। कहानी में स्थितियों को जोड़ने की जितनी कड़ियाँ और तरकीबें उन सब में माहिर से नजर आते है अमरकांत। उन्होंने हिंदी साहित्य को अनेक ताज़े फूलों से सुशोभित किया है।"
प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए साहित्य अकादमी से सम्मानित कवि अरुण कमल ने कहा " जब मैं पटना प्रगतिशील लेखक संघ का सचिव था तो नंदकिशोर नवल अध्यक्ष थे तब हमने अमरकांत को बुलाया था। उनके दामाद भी पटना में ही रहा करते थे। अमरकांत का पारिवारिक रिश्ता बिहार से रहा है, प्रगतिशील लेखक संघ से तो उनका जुड़ाव था ही। अमरकांत जी ने भूख का जैसा चित्रण किया है वैसा बीसवीं सदी की कहानी में बहुत कम है। तुलसी दास की 'विनय पत्रिका' जैसा भूख का काफी जिक्र है, उतना कहीं नहीं हुआ है। भूख के जितने बिंब तुलसी दास के यहां हैं उतने कहीं नहीं है। अमरकांत ने जो किया वैसा किसी दूसरे ने नहीं किया है। अमरकांत में कोई जादू नहीं है बल्कि जीवन जैसा है वे उसके बारे में लिखा करते हैं। मार्केवेज से किसी ने पूछा कि जादुई यथार्थवाद क्या है तो उनका जवाब था यथार्थवाद का कोई विकल्प नहीं है। साहित्य ने पूरी दुनिया में यह उदघाटित किया कि जीवन को कला में बदलना बहुत कठिन है। इसके लिए जीवन की खोज करनी पड़ती है। जीवन का जहाँ अंतर्विरोध है उसे ढूंढना पड़ता है। अभी तरुण जी ने कई किस्म की हँसी के बारे बताया वैसे ही अमरकांत की कहानियों में हवा चलने के इतने वर्णन हैं कि उनकी भी सूची बनाई जा सकती है। ऐसे ही उनकी कहानियों में संवाद हुआ करता है। इतने जीवंत संवाद नई कहानी के संदर्भ बात करें वे किसी के पास नहीं है। उनकी भाषा हिंदी और भोजपुरी दोनों मिली-जुली है। वैसे उनकी कुछ बातें खटकती हैं जैसे जाति को लेकर। विरासत में बहुत बातों को छोड़ना पड़ता है और कुछ को आगे भी ले जाना पड़ता है।"
दूसरे सत्र का विषय था 'कथा का समकालीन परिदृश्य और अमरकांत'। इस सत्र का संचालन किया प्रगतिशील लेखक संघ के राज्य कार्यकारिणी सदस्य गजेंद्रकान्त शर्मा ने।
मगध विश्विद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक श्रीधर करुणानिधि ने नये कथाकारों का जिक्र करते हुए कहा " समकालीन कथा परिदृश्य में तीन-तीन पीढ़ियों के लोग मौजूद हैं। कहानी के कहन के ढाँचे में बहुत कुछ गुंजाइश नहीं है। अमरकांत के यहां रोमानीपन नहीं है। उनकी 'हत्यारे' कहानी युवाओं की दिशाहीनता को प्रदर्शित करती है। नये दौर के कथाकार अमरकांत से कितना कुछ ले सकते हैं यह हमें देखना है। सुरेन्द्र स्निग्ध कहा करते थे रेणु की नकल करना है नष्ट हो जाना। नई पीढ़ी के कहानीकारों के समक्ष दूसरे ढंग की चुनौतिया हैं। सीधी और सपाट कहानी भी अंतस्थल जो छू सकती है। कथालेखन की परम्परा कैसे आगे बढ़ती है इसे देखने की जरुरत है। हाशिये के छूट गए लोगों के जीवन को भी सामने लाना चाहिए।"
पटना कामर्स कॉलेज में प्राध्यापक अनिता सिंह ने कहा "अमरकांत का उपन्यास 'इन्ही हथियारों' से मैंने पढ़ा था। उनको पढ़ते हुए और पढ़ने की उत्कँठा बढ़ती जाती है। वे महिलाओं को कैसे देखा करते हैं इसे 'जिंदगी और जोंक' से देखा जा सकता है। "
कथाकार-पत्रकार कमलेश ने भी कई कहानियों का उदाहरण देते हुए कहा "अमरकांत यथार्थ को सामने रखते हैं जबकि भैरव प्रसाद गुप्त यथार्थ में बदलाव के पक्षधर रहा करते हैं। आज भूख की समस्या उनके दौर से ज्यादा गहरी है। गज़ा में भूख से बहुत लोग मर गए हैं। कविता ने इसको पकड़ा है, कहानी में यह बात थोड़ी कम आ पाई है। अमरकांत जी ने जिन चुनौतियों का जिक्र किया आज वे अधिक विकसित रूप से बनी हुई हैं लेकिन आज के रचनाकार उनसे ज्यादा बेहतर ढंग से निपट रहे हैं। एक इंटरव्यू में अमरकांत ने कहा था कि कहानी को समझ में आनी चाहिए तथा इसे आनंददायक भी होना चाहिए। जब आप दूसरों का दुख समझने लगते हैं तभी आप कहानी लिख पाते हैं। वे वर्ग संघर्ष के लिए जाति के अंतर्विरोधों को खोजने का प्रयास करते हैं।"
इस सत्र को कथाकार चितरंजन भारती ने भी संबोधित किया।
तीसरा सत्र काव्य पाठ का रहा। इस सत्र की अध्यक्षता सासाराम से आये वरिष्ठ कवि कुमार बिंदु ने की जबकि संचालन बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के राज्य कार्यकारिणी सदस्य अरविन्द श्रीवास्तव ने।
काव्य पाठ करने वाले प्रमुख कवियों में थे प्रियदर्शी मातृशरण, अरुण शीतांश, नीरज नीर, अरविन्द पासवान, अंचित, उपांशु, गुंजन उपाध्याय पाठक, निखिल आनंद गिरि, प्रशांत विप्लवी, राजेश कमल, चंद्रबिंद आदि।
कार्यक्रम में मौजूद प्रमुख लोगों में चर्चित कवि विनय कुमार, पृथ्वीराज सिंह, अरुण सिंह, गार्गी राय, मणिभूषण कुमार, अरुण मिश्रा, विभारानी श्रीवास्तव, रंजन, जावेद अख्तर, मोना झा, अनिल अंशुमन, राजकुमार शाही, मेहता नागेंद्र सिंह, सूर्यनाथ, रमेश, सिद्धेश्वर, अभिषेक विद्रोही, डीपी यादव, समता राय, राज आनंद, राजीव रंजन, सुजीत, रौशन प्रकाश, चितरंजन भारती, सतीश कुमार, रंजीत कुमार, राहुल, अमन लाल, गौतम गुलाल, मनोज कुमार, उत्कर्ष आनंद, रविशंकर उपाध्याय, कौशल कुमार झा, मनीष, समीर, गोपाल शर्मा, रमेश सिंह आदि थे।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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