अंतर-धार्मिक विवाह: एक उच्च न्यायालय, दो एक जैसे मामले, लेकिन फ़ैसले अलग-अलग!

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक हालिया फैसले से हिम्मत लेते हुए, जहाँ यह एक अंतर-धार्मिक युगल के बचाव में काम आया था, उससे संकेत लेते हुए इटारसी के निवासी फैसल अली, उम्र 23 वर्ष ने उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने का फैसला किया। उसकी ओर से एक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका इस उम्मीद के साथ दायर की गई थी कि अपनी गर्लफ्रेंड दीक्षा उमंग आर्य (19) के साथ उसका फिर से मिलन संभव हो सकेगा।
दीक्षा जो कि पिछले चार वर्षों से फैसल के साथ रिश्ते में थी, उसके साथ 7 जनवरी को तब फरार हो गई थी, जब उसके माता-पिता ने उनकी शादी के लिए अपनी रजामंदी देने से इंकार कर दिया था। लेकिन दीक्षा के पिता योगेंदर आर्य के द्वारा उसकी गुमशुदगी की शिकायत दर्ज कराए जाने के जल्द ही बाद दोनों को बरामद कर इटारसी पुलिस स्टेशन लाया गया। दोनों को नर्मदापुरम के सब-डिवीज़नल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) मदन सिंह रघुवंशी के समक्ष पेश किया गया, जिन्होंने दीक्षा की गवाही के बाद दोनों को मुक्त कर दिया। दीक्षा ने अपने बयान में इस बात की पुष्टि की कि वह अपनी खुद की मर्जी से फैसल से विवाह करने के लिए इच्छुक है, भले ही उसके माता-पिता ने उनके एक हो जाने का विरोध किया हो।
दोनों को जाने की अनुमति का आदेश देते हुए एसडीएम रघुवंशी ने 3 फरवरी को अपने दो पन्नों के आदेश में कहा: “दीक्षा, जो अपने पिता की शिकायत के मुताबिक गुमशुदा थी, को पुलिस द्वारा अदालत में पेश किया गया था। उसने इस बात की गवाही दी कि वह बी.एससी. नर्सिंग की प्रथम वर्ष की छात्रा है और फैसल के साथ अपनी मर्जी से भाग गई थी क्योंकि उसके माता-पिता ने फैसल के धर्म की वजह से उनकी शादी को नामंजूर कर दिया था। चूँकि वह बालिग़ है और अपनी जिंदगी के फैसले खुद लेने के लिए स्वतंत्र है, ऐसे में दीक्षा का दावा है कि फैसल ने न तो उसे अपना धर्म परिवर्तन करने के लिए मजबूर किया और न ही उसे शादी के लिए फुसलाने की कोशिश ही की है। इसलिए, वह जहाँ चाहे वहां रहने के लिए स्वतंत्र है।”
एसडीएम के आदेश से राहत पाकर दोनों लोग वहां से भोपाल आ गये और वहां पर रहने लगे। इस बीच, फैसल और आर्य ने विशेष विवाह अधिनियम 1954 के प्रावधानों के तहत शादी करने की कोशिश की, जिसमें वे अपने-अपने धर्मों एवं मान्यताओं का पालन करने के लिए स्वतंत्र रह सकते हैं। लेकिन पैसे एवं आवश्यक समर्थन के अभाव में वे ऐसा कर पाने में असमर्थ रहे।
जानकारी के लिए बता दें कि दीक्षा बी.एससी. नर्सिंग की प्रथम वर्ष की छात्रा है, जबकि फैसल एक ऑटोमोबाइल मैकेनिक है और एक वर्कशॉप में काम करता है।
जहाँ युगल इस दौरान भोपाल में विवाह के रास्ते तलाशने में जुटा हुआ था, वहीँ इस बीच इटारसी पुलिस थाना प्रभारी ने दीक्षा को सम्मन किया और कथित तौर पर उसे अपने माता-पिता के पास जाने के लिए मजबूर किया। दीक्षा के इंकार करने पर पुलिस ने कथित तौर पर उसे परामर्श सेवा के लिए किशोर न्यायालय के नारी निकेतन में भिजवा दिया और फैसल के ऊपर चिल्लाकर दूर रहने के लिए कहा। और यह सब एसडीएम के आदेश के बावजूद किया गया।
जब असहाय फैसल ने दीक्षा को नारी निकेतन से छुड़ाने के विकल्पों की तलाश करनी शुरू की तो उसे जबलपुर उच्च न्यायालय के एक अंतर-धार्मिक विवाह के फैसले के बारे में पता चला। यह जानने के बाद कि अदालत ने अंतर-धार्मिक जोड़े को राहत प्रदान की है, फैसल अपने मामले के लिए एक उपयुक्त वकील का पता लगाने के लिए जबलपुर चले गए।
28 जनवरी, 2022 को न्यायमूर्ति नंदिता दुबे वाली एकल न्यायिक पीठ ने गुलज़ार खान की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर सुनवाई करते हुए, जिनकी पत्नी आरती साहू को जबलपुर पुलिस के द्वारा जबरन उनके माता-पिता को सुपुर्द कर दिया था, जब उन्होंने भागकर मुंबई में शादी कर ली थी, उस मामले में दंपत्ति को पुलिस से राहत और अभयदान दिया।
अपने दो-पन्नों के आदेश में अदालत ने कहा: “याचिकाकर्ता और दूसरा अस्तित्व दोनों बालिग़ हैं। ऐसे मामलों में किसी भी प्रकार की मोरल पुलिसिंग की इजाजत नहीं दी जा सकती है, जहाँ दो बालिग़ व्यक्ति अपनी मर्जी से एक साथ रहना चाहते हों, भले ही वे वैवाहिक माध्यम से रहना चाहें अथवा लिव-इन रिलेशनशिप में रहना चाहें। जब हर पक्ष इस प्रबंध में स्वेच्छा से शामिल हो और उसे ऐसा करने के लिए मजबूर न किया गया हो। इस अदालत के समक्ष कार्पस (दूसरे पक्ष) ने साफ़-साफ़ शब्दों में कहा है कि उसने याचिकाकर्ता से अपनी मर्जी से शादी की है और उसके साथ रहना चाहती है। संविधान इस देश के प्रत्येक वयस्क नागरिक को वो चाहे स्त्री हो या पुरुष, उसे अपनी मर्जी के मुताबिक जीने का अधिकार देता है।”
दंपत्ति को पुलिस कार्यवाई से अभयदान देते हुए न्यायमूर्ति नंदिता दुबे ने आदेश दिया: “राज्य एवं पुलिस प्रशासन को निर्देशित किया जाता है कि वे याचिकाकर्ता को कार्पस को सौंप दें और इस बात को सुनिश्चित करें कि याचिकाकर्ता और कार्पस सही-सलामत अपने घर पहुँच सकें। पुलिस प्रशासन को यह भी निर्देश दिया जाता है कि वे देखें कि भविष्य में भी कार्पस और याचिकाकर्ता को कार्पस के माता-पिता के द्वारा डराया-धमकाया न जाये।”
दीक्षा को वापस पाने की उम्मीद की एक किरण को देखते हुए, फैसल ने अपने वकील रिज़वान खान की मदद से 10 फरवरी को जबलपुर उच्च न्यायालय में तत्काल सुनवाई के लिए एक 16 पेज की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर कर दी।
खान ने फोन पर न्यूज़क्लिक को बताया, “मैंने अदालत के समक्ष इस तर्क को रखा है कि याचिकाकर्ता और कार्पस, दोनों ही भारतीय संविधान के मुताबिक वयस्क हैं और किसी भी जाति, पंथ या धर्म का होने के बावजूद उन्हें अपना जीवन साथी चुनने की आजादी हासिल है। इसके अलावा, लड़की द्वारा फैसल के पक्ष में अपना बयान दर्ज कराने के बाद एसडीएम ने उसके पिता के दावे को ख़ारिज कर उन्हें जाने की अनुमति दे दी थी। लेकिन 20 दिन बाद, पुलिस लड़की को जबरन उसके माता-पिता को सुपुर्द करना चाहती थी, पुलिस ने उसे काउन्सलिंग के लिए नारी निकेतन भेज दिया, क्योंकि उसने अपने माता-पिता के साथ रहने से इंकार कर दिया था।”
सर्वोच्च न्यायालय के 2018 के सफीन जहाँ बनाम अशोकन मामले (हदिया मामले), लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006) और हाल ही में जबलपुर उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति नंदिता दुबे के अंतरधार्मिक जोड़े पर दिए गए फैसले का हवाला देते हुए खान की ओर से न्यायालय के समक्ष राहत दिए जाने की गुहार लगाई गई।
लेकिन 22 फरवरी को अपने छह-पेज के अंतरिम फैसले में, न्यायमूर्ति एमएस भट्टी और न्यायमूर्ति शील नागू की खंडपीठ ने कहा कि फैसल की ‘प्रेमिका’ दीक्षा उमंग आर्य को उसकी मर्जी के खिलाफ बैतूल के नारी निकेतन में रखा गया था। उसने वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के जरिये दो बार इस बात की गवाही दी थी और कहा था कि वह फैसल से ही शादी करना चाहती है लेकिन उसे इस बात की आशंका थी कि वह दोबारा शादी कर सकता है।
अदालत ने फैसल को एक हलफनामा प्रस्तुत करने के लिए कहा, जिसे उसने सोमवार (21 फरवरी) को जमा कर दिया, जिसमें अदालत को इस बात का आश्वासन दिया गया था कि वह दीक्षा की देखभाल करेगा, उसकी पढ़ाई-लिखाई को पूरा करायेगा और विशेष विवाह अधिनियम के तहत उससे शादी करेगा। उसने स्वीकारा कि दोनों लोग अपने-अपने धर्मों का पालन करना जारी रखेंगे। इसके उपरांत, न्यायधीशों ने हलफनामे की एक प्रति लड़की के पास भेजने का आदेश दिया और उसे मंगलवार को अदालत में सशरीर पेश किये जाने के लिए कहा। न्यायाधीशों ने लड़की और उसके माता-पिता से बंद कमरे में बात की, जिसमें उसने एक बार फिर से फैसल से शादी करने की अपनी इच्छा को व्यक्त किया।
जब दीक्षा फैसल से शादी करने पर अड़ी रही तो अदालत ने उसे यह कहते हुए मुक्त फैसले की इजाजत दे दी, कि वह वयस्क है और इस प्रकार अपनी शादी का फैसला करने के लिए हकदार है। लेकिन अदालत ने साथ ही लड़की को “जिंदगी में प्राथमिकताओं को समझने की” सलाह दे डाली।
अपने अंतरिम आदेश में अदालत ने कहा, “निर्माणात्मक वर्षों में शिक्षा की बेहद अहम भूमिका होती है। इस प्रकार, कार्पस को सबसे पहले अपनी शिक्षा पूरी करने पर ध्यान देने की जरूरत है ताकि उसे अपने पति सहित किसी पर भी आश्रित हुए बिना अपनी जरूरतों और सुख-सुविधाओं का ध्यान रखने के लिए आजीविका के स्रोत के प्रति आश्वस्त रह सके।”
दीक्षा को आगे सलाह देते हुए अदालत ने कहा: “शादी करना महत्वपूर्ण है लेकिन जब शिक्षा जैसी सबसे-महत्वपूर्ण चीज़ सामने हो तो उसे कुछ समय के लिए निश्चित रूप से स्थगित किया जा सकता है। कार्पस से इस बात की उम्मीद की जाती है कि वह सही और गलत के बीच में फर्क को समझने के लिए जीवन में पर्याप्त परिपक्वता हासिल करने की सलाह पर ध्यान देगी।”
अदालत दीक्षा को सिर्फ पढ़ाई-लिखाई पर सलाह देने भर से संतुष्ट नहीं रही, जिससे कि वह सही और गलत के बीच फैसला ले पाने के लायक बन सके, बल्कि उसके पिता को भी शादी के बाद बेटी से संपर्क में बने रहने की सलाह दी गई।
दीक्षा के पिता योगेश आर्य को सलाह देते हुए, अदालत ने कहा: “दीक्षा वयस्क है और इस प्रकार अपनी शादी के बारे में फैसला लेने का उसे हक़ है। हालाँकि, माता-पिता को उसकी सुरक्षा और रक्षा के लिए समान रूप से चिंतित रहना चाहिए, और कार्पस के द्वारा याचिकाकर्ता के साथ शादी की इच्छा की तुलना में उनकी चिंता को कम नहीं किया जा सकता है। चूँकि वह पहले ही वयस्कता की उम्र को प्राप्त कर चुकी है, और इसलिए, ऐसे में, उसे नारी निकेतन में सीमित करके नहीं रखा जा सकता है, जहाँ उसे पिछले कुछ दिनों से इस विवाद के समाधान की प्रतीक्षा में रखा गया है।” इसके साथ ही पीठ ने आदेश दिया कि उसे रिहा कर दिया जाए और उसे "व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अपने अधिकार का इस्तेमाल" करने की अनुमति दी जाए।
अदालत ने आगे सलाह दी: “चूँकि पिता को आगे भी पिता का दायित्व निभाना होता है, और इसलिए अपनी बेटी की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए वे समान रूप से हकदार हैं। इस प्रकार, यह अदालत उम्मीद करती है कि उसके पिता उसके साथ संपर्क में लगातार बने रहेंगे और जरूरत पड़ने पर उसे उस हद तक वित्तीय और भावनात्मक मदद देते रहेंगे, जिस हद तक इस प्रकार की मदद कम पड़ सकती है और उसके पति द्वारा मुहैय्या करा पाने में असमर्थता हो।”
अदालती कार्यवाही पर नजदीकी निगाह बनाये रखने वाले एक सूत्र की टिप्पणी थी: “फैसले वाले दिन, ऐसा लगा जैसे उच्च न्यायालय अचानक से फ़ैमिली कोर्ट में तब्दील हो गया है क्योंकि न्यायधीश बच्ची के भविष्य को लेकर चिंतित हो उठे थे, एक लड़की जो बी.एससी (नर्सिंग) का कोर्स कर रही है और एक मुस्लिम व्यक्ति से शादी करना चाहती थी।”
अंत में, अदालत ने किशोर न्याय अधिनियम के तहत वकील को कहा कि वह लड़की को जहाँ उसकी रहने की इच्छा हो वहां ले जाएँ और दीक्षा की कुशल-क्षेम की एक पाक्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करें, विशेषकर उसके शैक्षिक कैरियर को लेकर, बिना किसी रोक-टोक के या उस पर नजर रखे बिना। कार्पस की भलाई के बारे में काउंसलर की पाक्षिक रिपोर्ट के इंतजार में मामला लंबित रखा गया है।
हालाँकि, इसी प्रकार के एक अंतर-धार्मिक विवाह के मामले में गुलज़ार खान बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2022) में न्यायमूर्ति नंदिता दुबे ने न सिर्फ युगल को पसंद के अधिकार की स्वतंत्रता के आधार पर अपनी पत्नी के साथ रहने के अंतहीन इंतजार से बचाया, बल्कि सरकारी अभियोजककर्ता की आपत्ति को भी खारिज कर दिया, जिन्होंने अपील की थी कि लड़की को नारी निकेतन भेज दिया जाना चाहिए क्योंकि उसकी शादी मध्य प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 2021 की धारा 3 के उल्लंघन में अमान्य मानी जानी चाहिए।
मध्य प्रदेश धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम 2021 की धारा 3 में इसका प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति विवाह के उद्देश्य से धर्मांतरण नहीं कर सकता है और ऐसा कोई धर्म-परिवर्तन इस प्रावधान का उल्लंघन हुआ और इसे निष्प्रभावी माना जायेगा।
सरकारी अभियोजक के जवाब में अदालत ने आदेश दिया था, “भले ही हो सकता है, लेकिन याचिकाकर्ता और कार्पस दोनों वयस्क हैं। ऐसे मामलों में जहाँ पर दो वयस्क व्यक्ति एक साथ रहना चाहते हैं, वो चाहे शादी या लिव-इन रिलेशनशिप में ही क्यों न रहना चाहें, उसमें किसी भी प्रकार की मोरल पुलिसिंग की इजाजत नहीं दी जा सकती है, जब उस व्यवस्था का पक्ष स्वेच्छा से इसे कर रहा हो और ऐसा करने के लिए बाध्य न किया जा रहा हो।”
लता सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2006) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने भी विवाह के अधिकार पर एक ऐतिहासिक फैसला दिया था। इस मामले में, न्यायमूर्ति अशोक भान और न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने लता सिंह नाम की एक महिला द्वारा दायर की गई रिट याचिका में उनके अधिकार को अमल में लाने की अनुमति प्रदान की, यानी अपनी पसंद के व्यक्ति के साथ अपनी मर्जी से शादी करने का अधिकार। सर्वोच्च न्यायालय ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया था और उनके लिए पुलिस सुरक्षा देने का भी आदेश दिया था।
अपनी पसंद के साथी के साथ शादी करने का अधिकार एक चयन करने का अधिकार है, जिसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रतिष्ठपित किया गया है। यद्यपि संविधान में इसका विशेष रूप से जिक्र नहीं किया गया है, किंतु सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अनुच्छेद 32 के आधार पर इसे अनुच्छेद 21 में प्रविष्ट किया गया है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस मूल आलेख को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें:
Inter-Faith Marriage: One High Court, 2 Similar Cases, Different Verdicts
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