झारखंड: आदिवासी बनाम कुड़मी ‘विवाद’; ये धुआं कहां से उठाया जा रहा है?

इन दिनों अचानक से झारखंड प्रदेश का सियासी तापमान सामाजिक जीवन में कुछ तीखा सा होता दीख रहा है। वजह है राज्य के दो प्रमुख समुदायों (आदिवासी-मूलवासी) के बीच उत्पन्न ताज़ा विवाद।
जिसमें राज्य के कुरमी समुदाय (एक हिस्सा) अपने को “एसटी (आदिवासी) घोषित करने की मांग लेकर लगातार आन्दोलनरत हैं। अनिश्चितकालीन “रेल टेका, डहर छेका” का अभियान चलाये हुए हैं। खबरों के अनुसार केन्द्रीय गृहमंत्री के आश्वासन मिलने के बाद फिलहाल यह स्थगित है।
तो दूसरी ओर, इस मांग का कड़ा विरोध करते हुए विभिन्न आदिवासी संगठनों के लोग सड़कों पर हजारों की तादाद में उतर कर जन प्रदर्शनों का सिलसिला लगातार जारी किये हुए हैं।
सोशल मीडिया मंच पर तो मानो घमासान सा मचा हुआ है। सभी अपने-अपने पक्ष को लेकर दावा-दलीलों के साथ साथ एक-दूसरे के विरोध में टीका-टिप्पणियों वाले पोस्ट की भरमार लगाए हुए हैं।
सड़कों पर भी दोनों समुदायों के लोग भारी जन जुटान के प्रदर्शनों का इस क़दर सिलसिला चलाये हुए हैं कि मानो तीखी एक प्रतिस्पर्धा छीड़ गयी हो। हालाँकि दोनों ही समुदायों के लोग अपने अपने दायरे रहकर कार्यक्रमों और प्रेस वार्ताओं के माध्यम से अपनी बातें रख रहे हैं। कहीं से भी किसी तरह का टकराव नहीं दीख रहा है। दोनों ही पक्षों से एक हिस्सा ऐसा भी है जो आपसी एकता को कोई नुकसान नहीं पहुँचाने के प्रति आगाह करते हुए “बाहरी उकसावे” में नहीं आने की अपील भी कर रहा है।
लेकिन कमाल है “चालू मीडिया” की हरकतों का, जिसका एक बड़ा हिस्सा लगातार इस विवाद की ख़बरें दिखाने की आड़ में “ब्रेकिंग न्यूज़” से दोनों समुदायों को “आमने-सामने” के टकराव-युद्ध जैसे हालात दिखाने की कवायद में लगा हुआ है।
उधर, प्रदेश के स्थापित राजनीतिक दलों में झारखंड NDA गठबंधन का प्रमुख घटक आजसू व उसके शीर्ष नेता-कार्यकर्त्ता एक समुदाय (कुड़मी) के साथ खुलकर मैदान में उतरे हुए हैं। पार्टी आलाकमान ने अपने सांसद और सभी विधायकों को अभियान संचालन के लिए उनके क्षेत्रों को भी कर रखा है।
झारखंड भाजपा “सचेतन मौन” साधे हुए दीख है। लेकिन मीडिया ख़बरों के अनुसार कई जगहों पर पार्टी के स्थानीय नेता-कार्यकर्त्ता और सदस्यगण अभियानों में सक्रिय दीख रहे हैं।
सत्ताधारी सरकार के प्रमुख घटक दल झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रवक्ता ने मीडिया को संबोधित करते हुए आरोप लगाया है कि- भाजपा बांटने की राजनीति करती है। कभी धर्म के नाम पर तो कभी “लुंगी’ के नाम पर। हम भी आदिवासी स्टेट हैं तो यहाँ भाजपा के लोग मणिपुर की तरह झारखंड में “एथनिक क्लैश” यानी देशज-टकराव कराना चाहती है। वह झारखंड को मणिपुर बनाना चाहती है।
कई झारखंडी विचारकों का भी लगभग यही आरोप है। उनका स्पष्ट मानना है कि- कुड़मी/कुरमी जाति द्वारा आदिवासी बनाने की मांग-आन्दोलन का भाजपा-आजसू पार्टियाँ पोषक हैं और जेकेएलएम इसका संरक्षक है।
प्रदेश के सारे आदिवासी समुदायों में प्रतिक्रिया का मानो उबाल सा आ गया है। ‘आदिवासी बना नहीं जाता, पैदा लिया जाता है, आदिवासी अधिकारों-आरक्षण की हक़मारी नहीं चलेगी!’ जैसे नारों के साथ वे भी मैदान में डट गए हैं।
20 सितम्बर को जब कुड़मी-पक्ष द्वारा अनिश्चितकालीन “रेल टेका, डहर छेका” आन्दोलन की घोषणा की तो प्रतिउत्तर में आदिवासी संगठनों ने भी अपने आन्दोलन की घोषणा करते हुए राजधानी रांची में राजभवन के समक्ष ‘प्रतिवाद-धरना’ का ऐलान कर दिया।
कुड़मी समाज के लोग एसटी दर्जा की मांग को लेकर रेल रोको आंदोलन करते हुए
मीडिया खबरों में 20 सितम्बर को झारखंड से सटे पश्चिम बंगाल और ओडिशा के कई इलाकों में रेल यातायात बुरी तरह से बाधित हुआ। रेलवे ने दर्जनों प्रमुख सवारी गाड़ियों को रदद् कर दिया तो कई ट्रेनों के रूट बदल दिए। मालगाड़ियां तो लगभग बंद ही रहीं। बाद में खबर वायरल हुई कि देश के गृहमंत्री ने कुड़मी-आन्दोलनकारियों से वार्ता का आश्वासन दिया है इसलिए इस आन्दोलन को फिलहाल स्थगित किया जा रहा है।
वहीं, प्रदेश के सभी आदिवासी बाहुल्य इलाकों में आदिवासी समुदाय के लोग सड़कों पर हजारों की तादाद में उतर कर कुड़मी समुदय के लोगों के “आदिवासी घोषित करने की मांग” का मुखर विरोध कर रहे हैं। हर दिन किसी न किसी इलाके में आदिवासी समुदाय का जन-जुटान प्रदर्शन लगातार जारी है।
आदिवासी समाज कुड़मी समाज की मांग का विरोध कर रहा है
आदिवासी संगठनों के संयुक्त मोर्चा ‘आदिवासी समन्वय समिति’ के प्रतिनिधियों ने मीडिया-वार्ता के माध्यम से आरोप लगाया है कि- केंद्र की सरकार झारखंड की गैर-भाजपा सरकार को अस्थिर करने का नया फंडा लगाया है। मौजूदा “कुड़मी-आन्दोलन” केंद्र सरकार द्वारा समर्थित है। इसीलिए “रेल रोको” आन्दोलन भारी संख्या में सशत्र पुलिस-बल के सामने आसानी के साथ सम्पन्न किया गया। जिसमें सैकड़ों ट्रेनों के यातायात को बाधित कर हजारों-हज़ार रेल यात्रियों को भारी मुश्किलों में डाला गया। खनिज़-माल ढुलाई रोक कर देश को करोड़ों की राजस्व क्षति पहुंचाई गयी।
पूरे प्रकरण में एक चर्चा काफी सरगर्म है कि “कुड़मी को आदिवासी बनाओ” आन्दोलन बिलकुल हाल की घटना है। लगभग सात दशक से भी अधिक समय तक चले झारखंड अलग राज्य गठन के मुद्दों में भी यह मुद्दा कभी नहीं सामने आया। और सबसे बड़ी बात कि केंद्र में भाजपा-NDA शासन आने के बाद से ही यह मुद्दा एक सामाजिक-गोलबंदी (विशेषकर उत्तरी छोटानागपुर के इलाकों) और “एक शक्ति परिक्षण” की शक्ल लेकर सामने आया है।
फिलहाल, आदिवासी-कुड़मी विवाद एक सामाजिक रूप लेता जा रहा है। जिसका समाधान भी तुरत-फुरत नहीं होनेवाला है। इसके लिए पुरातात्विक-नृविज्ञान और प्रमाणित ऐतिहासिक साक्ष्यों-तथ्यों की ज़रूरत पड़ेगी। साथ ही सत्ता-सियासत से लाकर कोर्ट तक की सक्रिय भूमिका की आवश्यकता पड़ेगी।
इस संदर्भ में नहीं भूलना चाहिए कि मणिपुर में जब वहां की सरकार और हाई कोर्ट ने एक “समुदाय विशेष” को एकतरफा ढंग से “अदिवासी” घोषित कर दिया था। जिसके खिलाफ जब देश के सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कि गयी तो वहां के जजों की विशेष पीठ ने सुनवाई करते हुए मणिपुर सरकार और हाई कोर्ट के फैसले को निरस्त करते हुए “समुदाय विशेष” को आदिवासी मानाने से साफ इन्कार कर दिया। इसलिए अभी के समय में सबके अपने अपने दावा और दलीलों पर आनन-फानन कोई अंतिम निर्णय देना मुश्किल है।
इस सन्दर्भ में अपने समय में भाजपा और झारखंड के कुरमी समुदाय के कद्दावर नेता और रांची संसदीय सीट से पांच बार सांसद रहे वर्तमान में कांग्रेस पार्टी से जुड़े वरिष्ठ राजनेता राम टहल चौधरी जी कि बातें ध्यान देने योग्य हैं। मीडिया इंटरव्यू में उन्होंने साफ़ लहजे में कहा है कि- “कुड़मी” शब्द लोग हाल-फिलहाल से बोल रहे हैं। लेकिन मेरे खतियान में ‘कुरमी’ शब्द दर्ज़ है और हमारा सारा कानूनी सर्टिफिकेट इसी खतियान से बनता है। जिसे लोगों को नहीं भूलना चाहिए। इस शब्द को हम तो पहले जानते भी नहीं थे, दो-चार-पांच साल से इसको सुन रहे हैं। कहाँ से आया नहीं जानते हैं। जो भी हो कुड़मी-कुरमी एक ही है और हमलोग कुरमी हैं “कुड़मी” नहीं। कुरमी उच्चारण को लेकर “र” और “ड़” में अंतर करने का जो दावा किया जा रहा है वह झारखंडी समाज को बाँटनेवाला है। हमलोग हमेशा से सनातनी हिन्दू रहे हैं।
एक विचारणीय पहलू यह भी है कि- सिर्फ झारखंड ही नहीं पूरी दुनिया में आदिवासी समुदायों की सामाजिक-सांस्कृतिक और सामुदायिक विशिष्ठता ऐतिहासिक रूप से सर्वविदित और स्थापित है। जिसे चुनौती देकर अथवा कतिपय “हो-हल्ला” से नहीं बदला जा सकता।
लोकतांत्रिक मानदंडों के अनुसार किसी भी सामाजिक मसले पर विमर्श का अधिकार हर किसी को है, लेकिन अनुचित दबाव से अपनी बातें मनवाना कहाँ तक लोकत्रांत्रिक है, ये तो देखना ही पड़ेगा। आज सन्दर्भों में “सत्ता-सियासत” से परे कुछ भी नहीं है, इसलिए मौजूदा सामाजिक-विवाद में भी इसे जनना-समझना बेहद ज़रूरी है।(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार, संस्कृतिकर्मी और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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