मोदी सरकार का रिपोर्ट कार्ड निर्दयता और अक्षमता से भरा है

आज भारत को दो बातें तकलीफ दे रही हैं: भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जिस परिवार में वह अवशोषित है; और उसकी सरकारें, विशेष रूप से केंद्र में बैठी सरकार, जिसे भाजपा चला रही है। पार्टी और संघ परिवार दोनों ही अस्पष्टवादी, संप्रदायवादी और लोकतंत्र विरोधी हैं; और भाजपा की सरकारें एक तरफ जहां अक्षमता में शुमार है तो दूसरी तरफ बिना किसी सफलता के खुद की छाती ठोकने की विशेषता भी उन ही में पाई गई हैं।
दोनों ने हालत को संभालने में इतनी अक्षमता दिखाई है की अर्थव्यवस्था ही डूब गई है, कोविड-19 महामारी की मार उनके कुप्रबंधन के कारण ही इतनी उग्रता से बढ़ी है और साथ ही देश को विभाजन के बाद देखे जाने वाले सबसे भयंकर संप्रदायिकता रसातल में धकेल दिया है।
आइए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2014 में सत्ता में आने के बाद से उनकी अक्षमता का नज़ारा देखते है जो विकास और छोटी सरकार लेकिन प्रभावी शासन तथा भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के वादे के साथ सत्ता में आई थी।
आइए मौजूदा निज़ाम द्वारा महामारी को सँभालने के मामले को लेते हैं जिसमें वह भयंकर रूप अक्षम, निर्दयी और आत्म-उन्नति के भाव में डूबी रही। 20 अप्रैल को, भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार (CEA), कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यन ने कहा कि दुनिया में भारत शायद एकमात्र ऐसा देश है जिसने महामारी के कारण होने वाले संकट का इस्तेमाल कर अपनी आर्थिक सोच को बदला है।
कथित तौर पर उन्होंने कहा कि, "देश ने आपदा को अवसर में बदलने का काम किया और आत्मनिर्भर भारत का नुस्खा पेश किया। उन्होंने यह भी कहा कि महामारी का प्रभाव लंबे समय तक 'बहुत अधिक' नहीं होना चाहिए, हालांकि उन्होंने माना कि महामारी के कारण उत्पादन क्षमता में हुए 'नुकसान' के बारे में वे काफी चिंतित हैं।
सुब्रह्मण्यम के कथन से तीन बातें उभर कर सामने आती हैं: आत्म-बधाई, जोकि मोदी की समझ है और वह नीचे तक जाती है; जो उनकी दिमागी रिक्तता; और अत्यधिक असंवेदनशीलता को दर्शाता है। चलो पहले दो को एक साथ लेते हैं। यह बात स्पष्ट नहीं है कि सुब्रमण्यन अपने इस मूल्यांकन पर कैसे पहुंचे और वास्तव में उनका मतलब ‘बहुत अधिक’ से क्या था। उन्होने महामारी विज्ञानी न होने बावजूद अनुमान लगाया है कि, महामारी मई के मध्य में अपने चरम पर पहुंच जाएगी। किस आधार पर? औरा देश कुछ समय से अर्थव्यवस्था तरक्की और वी-आकार की रिकवरी के बारे में सुन रहा था, जब तक कि सरकार के सामने देश में दूसरी घातक लहर नहीं आ गई। हम यहां सांख्यिकीय नहीं बता रहे हैं, क्योंकि सार्वजनिक स्वास्थ्य और आर्थिक दृष्टिकोण दोनों के कारण मौते हुई हैं उससे सब स्पष्ट हो जाता है।
लेकिन हम उस बयान से क्या अंदाज़ा लगाएँ कि भारत शायद एकमात्र ऐसा देश है जिसकी बड़ी अर्थव्यवस्था है और जिसने अपनी सोच बदल दी है। सबसे पहले, आत्मानिर्भर का नया विचार कितना सही है? 1990 के दशक में उदारीकरण के आने से पहले के चार दशकों तक देश को आत्मानिर्भर बनाना एक आर्थिक मूल मंत्र होता था। इसमें एकमात्र बदलाव जिसका कि अनुमान है कि आत्मनिर्भरता का अर्थ अब घरेलू निजी क्षेत्र को विदेशी पूंजी द्वारा बढ़ावा देना है।
दूसरा, क्या हम सभी हर मसले में संवेदनहिन हो गए हैं? या, क्या यह सिर्फ इतना है कि हमारे सीईए इस बात को नोटिस करने में विफल रहे हैं कि आर्थिक रूढ़िवादी भी दुनिया भर में बदल रहे हैं? और कहीं की बात न सही आप अमेरिका को ही ले, जो मुक्त बाजार का गढ़ है, वहां भी राजकोषीय विवेक का इस्तेमाल करते हुए तत्काल संकट से उभरने के लिए खरबों डॉलर खर्च किए जा रहे हैं।
पिछली बार, हमने सुना था कि इस बात की निश्चित संभावना है कि वर्तमान अमेरिकी प्रशासन भौतिक अवसंरचना, और अनुसंधान और विकास को तीव्र करने के लिए 2-ट्रिलियन डॉलर योजना को लागू करने जा रहा है; जिसमें हरित परियोजनाओं को लागू करना; और, इस प्रक्रिया में, नौकरी देना भी शामिल हैं। यह भी कहा गया था कि नए कॉरपोरेट और वेल्थ टैक्स इस योजाना का वित्तपोषण करेंगे। आर्थिक सोच का यह प्रमुख पुन:उन्मुखीकरण कार्यक्रम लगता है, क्या नहीं लगता है?
और फिर टैक्स हेवन्स के जरिए बड़े पैमाने पर कर चोरी की समस्या से बचने के लिए, अमेरिका और ओईसीडी देशों ने बड़ी दृढ़ता से एक न्यूनतम वैश्विक कॉर्पोरेट टैक्स को लागू करने के बारे में बातचीत की शुरुवात की है। आर्थिक रूप से उभरते और विकासशील देशों पर इसका बड़ा असर नहीं हो सकता है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह एक मौलिक बदलाव होगा।
लेकिन फिर, इससे कुछ अधिक किया भी नहीं जा सकता है। इसके बारे में सोचे और मोदी प्रशासन के आर्थिक प्रबंधन के बड़े ट्रैक रिकॉर्ड को देखें तो यही बात शायद ‘आत्मनिर्भर भारत’ के बारे में भी कही जा सकती है, जिसका अर्थ है ‘गर्म हवा’ यानि ज़मीन पर कुछ नहीं।
आइए फिलहाल हम इस चक्कर्घिन्नी को भूल जाते हैं और उस असंवेदनशीलता पर बात करते हैं जो आज मोदी सरकार का सबसे बड़ा गहना है। शुरू करने के लिए, उस बात पर ध्यान देते हैं जब सुब्रमण्यन आपदा को अवसर में बदलने की बात कह रहे थे, तब नए कोविड-19 संक्रमण 224,000 पर थे, जो कि दुनिया का अब तक कि कोविड मामले की सबसे बड़ी संख्या थी। फिर पता चला कि महीने में (यानि 24 अप्रैल की शाम तक) 3.4 मिलियन से अधिक मामले दर्ज किए गए, जिनमें से आधे यानि 1.7 मिलियन - पूर्ववर्ती सप्ताह में दर्ज़ किए गए थे, जो विश्व स्तर पर अब तक की सबसे अधिक संख्या थी। भारत में कोविड-19 से सबसे अधिक यानि 2,624 मृत्यु दर्ज की गई है।
अप्रैल का महीना बड़ा क्रूर महीना रहा है। मई महीने के और भी अधिक खराब होने का खतरा है। इस गंभीर मोड़ पर चुनौती या आपदा को अवसर में बदलने की बात करना समझ से परे की बात है। यह अन्य मसलों पर भी गैर-माफी योग्य है, विशेष रूप से आवश्यक चिकित्सा आपूर्ति और बुनियादी ढांचे को प्रदान करने में विफलता के मामले में। और जो सबसे निंदनीय बात है वह यह कि सरकार पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन की खुराक या इलाज़ के लिए ऑक्सीजन की आपूर्ति प्रदान करने में पूरी तरह से असफल या अक्षम रही है, और ऑक्सीजन की कमी से लोगों की बड़ी संख्या में सीधे मौत हो रही है।
23 अप्रैल को यह भी बताया गया कि कोविड-19 पर बनी राष्ट्रीय टास्क फोर्स के एक सदस्य ने बिना आधिकारिक टिपणी के स्वीकार किया कि सरकार ने राष्ट्रीय और वैश्विक आंकड़ों की अनदेखी करते हुए दूसरी 'बड़ी लहर' के संकेत को नकार दिया था और वर्तमान संकट का कारण सरकार की बेपरवाही बताया गया है।
हालांकि, यह सच है कि मोदी सरकार कीचड़ से निकलने के लिए सारी तोहमत राज्यों पर डालने की कोशिश कर रही है। लेकिन ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि इसने पिछले साल मार्च में आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 को लागू कर सब शक्तियों को अपने हाथों में केंद्रीकृत कर लिया था और फिर जनता के लिए कुछ भी बेहतर नहीं कर पाई।
हालाँकि हर कोई अब ऑक्सीजन की स्थिति के बारे में जानता है, इस संबंध में भी सरकार की अयोग्यता को ध्यान में रखना होगा। मेडिकल ऑक्सीजन के उत्पादन के लिए नए कारखाने लगाने के लिए निविदा प्रक्रिया शुरू करने में आठ महीने लग गए। एक वर्ष से अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन 162 ऑक्सीज़न प्लांट में से केवल 33 ही काम कर रहे हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि मई के अंत तक, 80 संयंत्र लगाए जाएंगे, खैर, इसका जो भी मतलब हो। पिछले साल के लॉकडाउन (25 मार्च को) के लागू होने के बाद से 14 महीने से अधिक समय बीत चुका है।
टीकाकरण कार्यक्रम का भी कुछ ऐसा ही हाल है। जबकि मोदी खुद ‘वैक्सीन डिप्लोमेसी’ में लगे हुए हैं, जिस पर किसी को आपत्ति न होती अगर उनके निज़ाम में पर्याप्त घरेलू आपूर्ति की व्यवस्था होती, देश में टीके की कतारें लंबी होती जा रही हैं। कई लोगो को बिना टीके के घर जाना पड़ रहा है। टीके का मूल्य तय करना भी अब नियंत्रण से बाहर की बात हो गई है और अब न केवल केंद्र टीके का बोझ राज्यों पर डालने की कोशिश कर रहा है, बल्कि वह गैर- संघवाद की अपनी नीति को तीव्रता से लागू कर रहा है, और उस पर देश के सर्वोच्च नेता का यह भी विचार हैं कि यह संकट देश की अड़ियल आबादी के कारण पैदा हुआ है।
जब, लुटियंस दिल्ली के गलियारों में प्रतिभाशाली लोग आर्थिक प्रबंधन और उसकी मॉडलिंग की नई दिशाओं को तैयार करने में व्यस्त हैं, लोग ऑक्सीजन, वेंटिलेटर के बिना दम तोड़ रहे हैं या ज़िंदा रहने का संघर्ष कर रहे हैं। जीवनरक्षक दवाओं की आपूर्ति भी काफी कम हैं, और कोविड-19 जांच भी कम हैं।
जैसे-जैसे स्वास्थ्य प्रणाली चरमराती जा रही है और ढह रही है, अन्य गंभीर बीमारियों से पीड़ित मरीजों/लोगों को भी गहरे सदमें लग रहे हैं। हम नहीं जानते हैं कि कितने लोग इलाज की चाहत में मर रहे हैं क्योंकि हम अन्य वजहों से हो रही 'बेशुमार मौतों' की गिनती नहीं कर पा रहे हैं।
लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।