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युवा रोज़गार आंदोलन किसान-मज़दूर आंदोलन के साथ जुड़कर नवउदारवाद और फ़ासीवाद के लिए चुनौती बनेगा

27 सितम्बर का भारत बन्द इस मिशन का अहम पड़ाव है। इसके अलावा मोदी जी के जन्मदिन 17 सितंबर को इस वर्ष भी युवाओं ने जुमला दिवस-बेरोजगार दिवस के रूप में मनाने का आह्वान किया है।
इको गॉर्डन, लखनऊ में 10 सितंबर को युवाओं को सम्बोधित करते किसान नेता डॉ. दर्शन पाल।
इको गॉर्डन, लखनऊ में 10 सितंबर को युवाओं को सम्बोधित करते किसान नेता डॉ. दर्शन पाल।

मोदी जी के जन्मदिन 17 सितंबर को इस वर्ष भी युवाओं ने जुमला दिवस-बेरोजगार दिवस के रूप में मनाने का आह्वान किया है। बेरोजगारी, निजीकरण, महँगाई पर प्रधानमंत्री की जुमलेबाजी को याद करते हुए 17 सितंबर 2021 को छात्र-युवा सड़कों पर उतरेंगे और थाली बजाकर, बेरोज़गारी मार्च निकालकर, मशाल जुलूस आयोजित कर या जुमले का केक काटकर इसे मनाएंगे।

ठीक 1 वर्ष पूर्व इसी अवसर पर जब मोदी जी 70 वर्ष के हुए थे, बेरोजगारी के महासंकट से जूझ रहे छात्र-युवाओं ने राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस का जो आह्वान किया था, वह #NationalUnemploymentDay और #राष्ट्रीयबेरोजगारीदिवस

पूरे दिन सोशल मीडिया में टॉप ट्रेंड करता रहा था, यह 46 लाख बार शेयर किया गया था! ट्विटर पर मोदीजी के जन्मदिन के शुभकामना संदेशों को बहुत पीछे छोड़ते हुए नौजवानों का ट्विटर स्टॉर्म #17Sept17hrs17minutes छाया रहा।

इस साल 25 फरवरी को भी युवाओं ने #मोदीरोजगारदो, #ModiRojgarDo ट्विटर स्टॉर्म किया।

दरअसल, बेरोजगारी के मोर्चे पर पिछले 1 साल में हालत इतनी खराब हो गयी है कि यह अब लोगों की अनुभूति का हिस्सा बन गयी है। इंडिया टुडे के Mood Of The Nation सर्वे के अनुसार 83% लोगों का यह मानना है कि देश में बेरोजगारी आज एक गम्भीर समस्या बन चुकी है। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लोगों का यह realisation सरकार की झुठलाने, छिपाने-दबाने, भटकाने की लाख कोशिशों के बावजूद बना है, क्योंकि यह सीधे लोगों के जीवन का first hand experience है, जिसे नैरेटिव बदलकर या आंकड़ों को manipulate कर दबाया नहीं जा सकता।

यह अनायास नहीं है कि लोग महँगाई के साथ बेरोजगारी को मोदी सरकार की सबसे बड़ी विफलता मानते हैं। साफ है 2022 के UP और 2024 के आम चुनाव में यह बेहद अहम मुद्दा बनेगा।

9 सितंबर को वाराणसी में युवाओं को सम्बोधित करती किसान नेता जसबीर कौर नट

CMIE के अनुसार 2019 में जहाँ 8.7 करोड़ salaried जॉब्स थे, वहीं अब महज 7.6 करोड़ बचे हैं, अकेले इस जुलाई में 32 लाख नौकरियां चली गईं, जिसमें 26 लाख तुलनात्मक रूप से बेहतर शहरी क्षेत्र के रोज़गार थे।

दूसरे sectors की बात ही क्या, जब स्वयं मोदी जी के मंत्री संसद में स्वीकार करते हैं कि केंद्र सरकार की नौकरियों में 8.72 लाख पद खाली पड़े हैं, यह 3 साल पहले जितने पद खाली थे, उससे भी 2 लाख अधिक है !

गौरतलब है कि सरकारी नौकरियों में इन लाखों vacancies का कोविड और लॉकडाउन से होने वाले अर्थव्यवस्था के ध्वंस से कोई लेना देना नहीं है। इससे साफ समझा जा सकता है कि सरकार रोजगार के प्रश्न को लेकर कितनी गम्भीर है और इस पर उसकी नीतिगत दिशा क्या है !

राज्य सरकारें भी मोदी जी के दिखाये इसी रास्ते पर अमल कर रही हैं और राज्यों में भी कई लाख सरकारी पद सालों से रिक्त पड़े हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश व अन्य राज्यों में इसे लेकर प्रतियोगी छात्र-युवाओं में जबरदस्त बेचैनी है। युवाओं के मन में यह बात घर करती जा रही है कि सरकार ने उनसे वायदाखिलाफी की है, सत्ता में आने के पहले मोदी और उनके सिपहसालार उन्हें बड़े बड़े सब्जबाग दिखाते रहे, और सत्ता में आने के बाद वे हर सम्भव तरीके से उनकी नौकरियां छीनने में लग गए, उनके सारे नीतिगत कदम-demonetisation ( नोटबन्दी ) से monetisation ( मुद्रीकरण/निजीकरण ) तक- रोजगार के अवसरों को खत्म करते गए। सरकारी नौकरियों के बहुत से खाली पदों को खत्म कर दिया गया, तमाम पदों को लंबे समय तक विज्ञापित ही नहीं किया गया, फिर उन्हें बहुस्तरीय परीक्षाओं के जाल में अटकाया गया और अंततः उनमें से अनेक न्यायालय में लटक गईं। प्रतियोगी परीक्षाएं पंचवर्षीय योजना जैसी हो गईं !

बेरोजगारी की इस भयावहता के लिए सरकार कोविड की आड़ लेकर नहीं बच सकती। सच्चाई यह है कि 2019 में ही कोविड से भी पहले, बेरोजगारी दर 45 साल के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गई थी। जाहिर है इसमें मोदी सरकार की नोटबन्दी, बुरे ढंग से लागू GST जैसी disruptionist policies की भूमिका अहम है जिसमें बाद में कोविड ने कोढ़ में खाज का काम किया और इसे चरम पर पहुंचा दिया।

दरअसल देश में बेरोजगारी की वास्तविक स्थिति सरकारी आंकड़ों की तुलना में कई गुना अधिक भयावह है। आर्थिक मसलों के जानकार पत्रकार अनिंदयो चक्रवर्ती के अनुसार अगर हमारा लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट ( LFPR ) वैश्विक औसत से मैच करता तो 64 करोड़ लोग रोजगार मांग रहे होते, जब कि आज महज 45 करोड़ मांग रहे हैं, उनमें से 39 करोड़ के पास काम है। अर्थात आज जो 6 करोड़ लोग बेरोजगार हैं, उसकी जगह 25 करोड़ लोग बेरोजगार दिखते और बेरोजगारी दर आज के सरकारी आंकड़े की 5 गुना अर्थात 39% होती! बहुत सारे लोग रोजगार इस लिए नहीं मांग रहे कि उन्हें रोजगार मिलने की उम्मीद ही नहीं बची है!

युवाओं के लिए सबसे मुंह चिढ़ाने वाली बात यह है कि सरकार पूरी तरह denial mode में है। यह कितनी बड़ी धूर्तता है कि जहां 83% जनता इसे गम्भीर समस्या मानती है, वहीं सरकार के हिसाब से यह कोई समस्या ही नहीं है-योगी जी ने फरमाया कि उन्होंने 5 करोड़ रोजगार और 5 लाख सरकारी नौकरियां दे दी हैं, उत्तर प्रदेश में कोई बेरोजगारी नहीं है, बेरोजगार केवल वही हैं जिनके अंदर योग्यता नहीं है ! उधर उच्च शिक्षा प्राप्त बेरोजगार खुदकशी कर रहे हैं और पुलिस की लाठियां खा रहे हैं !

बेरोजगारों युवाओं का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है कि सरकार रोजगार-सृजन न कर पाने की अपनी नाकामी का ठीकरा उनके सर फोड़ रही है, उन्हें रोजगार भी नहीं दे रही और नालायक भी घोषित कर रही है !

दरअसल रोजगार और नौकरियों के बारे में योगी सरकार का प्रोपेगैंडा उतना ही सच है जितना इंडियन एक्सप्रेस में UP के विकास को लेकर छपा advertorial था, जहां कोलकाता का फ्लाईओवर और अमेरिका की फैक्ट्री UP का बनाकर पेश कर दी गयी!

शायद, इसी के प्रत्युत्तर में हाल ही में एक ऐसी घटना घटी जिसकी किसी को सपने में भी उम्मीद नहीं रही होगी। सोशल मीडिया में जबरदस्त वायरल हुई एक वीडियो में योगी जी अपने गृह जिले गोरखपुर में अधिकारियों-कर्मचारियों के साथ एक कॉलेज में निरीक्षण करते दिख रहे हैं और छात्रों की लगातार आवाज आ रही है," बाबा, भरतिया कब आयी, हो, बाबा सेना में भरतिया कब आयी ? ", जैसे वे उन्हें हूट कर रहे हों। योगी जी के पुलिस राज में सीधे योगी जी से इस तरह की गुस्ताखी आने वाले दिनों के लिए ट्रेंड-सेटर हो सकती है, जब किसानों के साथ नौजवान भी भाजपा सरकार के मंत्रियों-नेताओं को घेरकर तीखे सवाल पूछ सकते हैं और उनका राजनीतिक बहिष्कार कर सकते हैं।

बेरोजगारी सरकार की नीतियों का सीधा परिणाम है, इस सरकार के रहते बेरोजगारी के संकट का कोई समाधान होना तो दूर, इसका और बदतर होना तय है, इसलिए नौजवान इसे आगामी चुनाव में राजनैतिक मुद्दा बनाने की ओर बढ़ रहे हैं जिसका लक्ष्य भाजपा को सत्ता से बेदखल करना तथा विपक्ष को दसियों लाख खाली पदों को भरने तथा रोजगार सृजन के रास्ते पर बढ़ने के लिए कायल करना और सरकार बनने पर उसके लिए बाध्य करना होगा।

बिहार में एक साल पूर्व हुए चुनाव में जब महागठबंधन ने 10 लाख सरकारी नौकरी का वायदा किया तो उसके जवाब में भाजपा-नीतीश ने 19 लाख नौकरी देने की बात की। अब बिहार में नौजवान उस वायदे को पूरा करने की मांग कर रहे हैं।

बुनियादी तौर पर मुनाफे पर आधारित पूंजीवादी व्यवस्था में पूर्ण रोजगार की आदर्श स्थिति तो कभी भी नहीं होती है, बेरोजगारों की एक Reserve Army, पूंजीपति वर्ग के मुनाफे की उच्च दर की पूर्वशर्त होती है, अमेरिका में अभी साढ़े तीन करोड़ बेरोजगारों को मिलने वाला भत्ता बंद कर दिया गया है ताकि बेरोजगारी के कारण गिरती मजदूरी- दरों का पूंजीपति वर्ग को लाभ मिल सके।

सर्वोपरि, नवउदारवाद के दौर में जो हमारी वित्तीय सम्प्रभुता पर वैश्विक पूँजी का शिकंजा कसा है, इसने हालात को बेहद भयावह बना दिया है। आर्थिक संकट के दौर में जब देश के अंदर और विश्व बाजार में मांग (aggregate demand ) घट गई है - न घरेलू उपभोग बढ़ रहा है, न निर्यात, निजी निवेश ठप है, तब सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर सार्वजनिक निवेश ही अर्थव्यवस्था में जान फूंक सकता था। पर यह सम्भव नहीं हो पा रहा है क्योंकि वैश्विक वित्तीय पूँजी के दबाव में एक सीमा से अधिक सरकार खर्च नहीं कर सकती ( बजट घाटा एक सीमा के अंदर रखना बाध्यता है), संकट के कारण सरकार का राजस्व सीमित है, ऊपर से अपनी करपोरेटपरस्त नीतियों और गलत प्राथमिकताओं पर खर्च, नतीजतन जनता की क्रयशक्ति बढ़ाने के लिए वह कोई बड़ा सार्वजनिक निवेश करने की स्थिति में ही नहीं है। प्रो. प्रभात पटनायक कहते हैं, " हम अपनी अर्थव्यवस्था को वैश्विक अर्थव्यवस्था से detach कर सकें ताकि सरकार की fiscal policy वित्तीय पूँजी के dictates से आज़ाद हो सके, तभी सार्वजनिक निवेश को बड़े पैमाने पर बढ़ाकर अर्थव्यवस्था में कुल मांग ( aggregate demand ) बढ़ाई जा सकती है और रोजगार बढ़ सकता है।"

जाहिर है सरकार को अपनी वित्तीय सम्प्रभुता को assert करना होगा, बजट घाटे की सीमा की unreasonable शर्त को खारिज करना होगा, super-rich तबकों, कारपोरेट घरानों पर टैक्स बढ़ाना होगा और रोजगार सृजन, क्रयशक्ति में वृद्धि के लिए युद्धस्तर पर सार्वजनिक निवेश करना होगा। यह सब वित्तीय पूँजी और कारपोरेट हितों के प्रति समर्पित मोदी सरकार के एजेंडे के खिलाफ है।

साफ है कि रोजगार की लड़ाई भी आज नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ लड़ाई का ही हिस्सा बन गयी है, ठीक वैसे ही जैसे किसानों की जमीन बचाने और मजदूरों की आजीविका बचाने की लड़ाई उन्हीं नीतियों के खिलाफ केंद्रित है।

इसके लिए एकताबद्ध छात्र-युवा आंदोलन की किसान-आंदोलन तथा श्रमिकों के संघर्षों के साथ एकजुटता आज समय की मांग है। किसान नेताओं ने छात्र-युवा आंदोलन के साथ अंतःक्रिया शुरू कर दिया है।

इको गॉर्डन, लखनऊ में 10 सितंबर को युवाओं को सम्बोधित करते किसान नेता डॉ. दर्शन पाल

हाल ही में किसान-आंदोलन के शीर्ष नेता डॉ. दर्शन पाल ने इको गार्डन, लखनऊ में आंदोलनरत छात्र-युवाओं के धरने-प्रदर्शन में जाकर उनकी लड़ाई का समर्थन किया और उनसे सरकार की करपोरेटपरस्त नीतियों के खिलाफ लड़ने का आह्वान किया, " आप सभी को निजीकरण उदारीकरण के खिलाफ लड़ाई लड़नी होगी, क्योकि जब सार्वजनिक क्षेत्र बचेगा तभी रोजगार बचेगा और तभी आरक्षण भी मिल सकता है। इसलिए पब्लिक सेक्टर को प्राईवेट यानी कार्पोरेट के हाथो मे देने के खिलाफ लड़ना होगा। किसान आज दस महीने से इसी कार्पोरेटीकरण के खिलाफ दिल्ली बार्डर पर लड़ रहे है। हम सबकी मुक्ति व लड़ाई एक है। आप सभी किसान मजदूर के बेटे-बेटियां है। आज वक्त की मांग है कि सभी पीड़ित मिलकर एक होकर अपने अधिकार और मुक्ति की लड़ाई को लड़े।"

समय आ गया है कि जीवन के अधिकार ( Right to Life ) के अभिन्न अंग के बतौर रोजगार के अधिकार को संविधान के मौलिक अधिकारों में शामिल करने की मांग युवा-आंदोलन की केंद्रीय मांग व राजनीतिक एजेंडा बने। किसानों और मजदूर वर्ग के आंदोलन के साथ जुड़कर छात्र-युवाओं की रोजगार की लड़ाई नवउदारवादी नीतियों को पलटने और फासीवाद के ध्वंस में निर्णायक भूमिका निभाएगी।

27 सितम्बर का भारत बन्द इस मिशन का अहम पड़ाव है।

(लेखक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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