क्या उनके ‘हिन्दूराष्ट्र’ के सपने को साकार करने में मददगार साबित होगा कोरोना संकट!

वैसे तो कोरोना महामारी (कोविड-19) का संकट बहुत बड़ा है, लेकिन दक्षिणपंथी राजनीति के लिए शायद ये संकट भी एक अवसर है, अपनी राजनीति की पूर्ति के लिए।
भारत में मोटे तौर पर इसे दो स्तर पर देखा जा सकता है। एक साफ़-सफ़ाई और सामाजिक दूरी के नाम पर छुआछूत इत्यादि की ज़रूरत को पुनर्स्थापित कर अपनी ऊंच-नीच पर आधारित मनुवादी व्यवस्था को और मज़बूत करना और दूसरा मुसलमानों को इसका मुख्य विलेन घोषित कर उनके ऊपर हमले को तेज़ करना है जिसका इस्तेमाल अंतत: प्रस्तावित राष्ट्रव्यापी एनआरसी को जल्द से जल्द लागू करने में किया जाएगा। यह परियोजना लंबे समय से चल रही है लेकिन पहले सीएए और अब कोरोना संकट ने इसमें नये आयाम जोड़ दिए हैं और नफ़रत की हवा को आंधी और फिर इसे तूफ़ान या सुनामी में बदलने की पूरी कोशिश की जा रही है। जिसमें उसका साथ सोशल मीडिया से लेकर मुख्य धारा का मीडिया तक दे रहा है।
इसे हाल-फिलहाल की कुछ घटनाओं के जरिये आसानी से समझा जा सकता है :-
देश भर में नागरिक संशोधन कानून यानी सीएए विरोधी आंदोलन को किस तरह पहले ‘केवल मुसलमानों का आंदोलन’ में बदला गया और फिर उसे मुसलमान विरोध में बदल दिया गया आपने पिछले दिनों देखा ही है। इसकी एक परिणीति दिल्ली में दंगों के रूप में भी हुई और इसके अलावा भी देशभर में कैसा उत्पीड़न अत्याचार किया गया ये सबके सामने है।
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कोरोना संकट आने पर लगा कि शायद अब ये परियोजना कुछ दिन के लिए रुक जाएगी। क्योंकि कोरोना वायरस जात-धर्म नहीं पहचानता है, ये एक महामारी है जो एक समान हिन्दू-मुस्लिम सभी पर हमला करती है, लेकिन नहीं, ये हमारी भूल थी। कुछ लोगों ने बाकायदा अभियान चलाकर साबित कर दिया कि कोरोना मुसलमान है और जानबूझकर हिन्दुओं को मार डालना चाहता है। इसे उन्होंने कोरोना जेहाद तक का नाम दे दिया।
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दिल्ली के निज़ामुद्दीन मरकज़ ने इसमें सोने में सुहागा का काम किया। मरकज़ में हुए तबलीग़ी जमात के इज़्तिमें से जैसे नफ़रती आकाओं को मन मांगी मुराद मिल गई और फिर शुरू हो गया घृणा अभियान। इसके बाद से तो रोज़ एक से बढ़कर एक झूठी कहानी व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी से निकलकर हवा में तैरने लगी। दिलचस्प ये कि खुद को मुख्य धारा का मीडिया कहने वालों ने भी इन झूठी और ग़लत कहानियों को बाकायदा अपने टेलीविज़न के पर्दों पर ब्रेक्रिंग न्यूज़ बना दिया। और ये सब अनजाने में नहीं बल्कि जानबूझकर किया गया। क्योंकि पुलिस रोज़ ऐसी ख़बरों का खंडन करती और रोज़ एक नयी कहानी बिना जांच-पड़ताल के ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाती।
ये ख़बरें आम तौर पर क्या हैं-
1. तबलीग़ी जमात वालों ने हंगामा किया।
2. तबलीग़ वाले भाग गए, छिप गए, पथराव किया।
3. जमातियों ने स्वास्थ्य टीम को पीटा, थूका, नर्सों से बदतमीज़ी की, आइसोलेशन वार्ड में नंगे होकर घूमे।
4. मुसलमानों ने फलों को थूक लगाकर बेचा, नोटों पर थूक लगाकर फेंका।
आदि...आदि...आदि
यह पहली बार है कि पुलिस ने ऐसी ख़बरों पर तत्काल संज्ञान लेकर इनका पुरज़ोर खंडन किया। लेकिन ऐसी ख़बरें आज भी बदस्तूर जारी हैं। कुछेक ख़बरें जिनपर पुलिस ने सख्ती दिखाई और लताड़ लगाई, उसपर ही इन कथित मेन मीडिया ने खेद जताया।
आप समझ सकते हैं कि एक फेक न्यूज़ या Miss information, Disinformation यानी झूठी या ग़लत सूचना, दुष्प्रचार, अफ़वाह देश-समाज को कितना बड़ा नुकसान पहुंचा सकती है।
पुलिस ने शायद पहली बार ऐसी खबरों की सच्चाई जानने और बताने के लिए फेक्ट चेक वेबसाइट्स का भी सहारा लिया। आपको मालूम है कि ऑल्ट न्यूज़ और तमाम फेक्ट चेक वेबसाइट और स्वतंत्र लोग रात-दिन मेहनत करके इन ख़बरों का सच या झूठ सबसे सामने रख रहे हैं। न्यूज़क्लिक ने ही ऐसी कई ख़बरों का फेक्ट चेक ऑल्ट न्यूज़ और अन्य माध्यमों से आपके सामने रखा है।
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लेकिन अफसोस जब तक हम लोग एक झूठ पकड़ते हैं तब तक दूसरे लोग दस झूठ फैला चुके होते हैं। इस झूठ और नफ़रत के चलते नई शब्दावली निकल आई कि “जमाती छिपे हैं और श्रद्धालु फंसे हैं” इसकी सोशल मीडिया पर खूब चर्चा रही।
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ये हिटलर के प्रचार मंत्री जोसेफ गोएबल्स की शैली या रणनीति है कि एक झूठ इतनी बार दोहराओ कि वह सच लगने लगे। इसके चलते मीडिया ने नफ़रत इस कदर फैलाई है कि लोगों की जान पर बन आई है। बताया जाता है कि हिमाचल के ऊना जिले के बनगढ़ गांव में मोहम्मद दिलशाद (37) ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि गांव के लोग उसे ताने मारते थे। जमात के लोगों के संपर्क में आने के बाद दिलशाद ने कोरोना टेस्ट भी कराया था, जो नेगेटिव आया, आरोप है कि इसके बाद भी गांव वाले उसका सामाजिक बहिष्कार कर रहे थे। इस बात से दिलशाद इतना आहत हुआ कि उसने आत्महत्या कर ली।
इसके अलावा नाम पूछकर फल वालों, सब्ज़ी वालों को पीटे जाने की घटनाएं तो जगह-जगह रोज़ हो रही हैं। उनसे आधार कार्ड मांगा जा रहा है। आर्थिक बहिष्कार की बात की जा रही है। इससे पहले गाय के नाम पर मॉबलिंचिंग की घटनाएं तो आपको याद ही होंगी।
उन्होंने तो मुंबई के ब्रांदा स्टेशन वाली घटना में भी मस्जिद का एंगल ढूंढ लिया!
इस सबने डर और अविश्वास का ऐसा वातावरण तैयार कर दिया है जिसमें इस तरह की घटनाएं या ग़लतियां वाकई होने लगी हैं या उनकी संभावना बढ़ गई है कि लोग जानकर भी स्वास्थ्य विभाग या पुलिस के सामने न आएं या उनके पहुंचने पर पथराव करने लगें या भागने लगें। जैसे अभी मुरादाबाद में हुआ।
अभी देखा कि एक राष्ट्रीय चैनल ने तो यहां तक चलाया कि मरकज़ की वजह से लॉकडाउन बढ़ा। हालांकि मरकज़ में गलतियां हुईं, लेकिन इसमें ज़्यादा ग़लती आम तबलीग़ी की बजाय तबलीग़ के लीडरान और उस शासन-प्रशासन की है, जिसकी जानकारी में पूरा इज़्तिमा यानी सत्संग हो रहा था। और उसमें विदेश ख़ासतौर से कुछ संक्रमित देशों से भी बड़ी संख्या में आलिम और मौलाना आ रहे थे।
अगर आम जमाती की भी कोई ग़लती है तो वह उससे कम है जिसमें ज़िम्मेदार लोग ऐसे काल में भी सरकार बनाने और गिराने के खेल में मशगूल रहते हैं। एक राज्य के मुखिया दूसरों के लिए हर जुलूस-जलसे पर प्रतिबंध लगाकर खुद धार्मिक आयोजन में शिरकत करते हैं।
उन ग़लतियों का क्या कहा जाएगा जो 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के दिन हुई। उस दिन शाम पांच बजे ताली-थाली और घंटे बजाते, शंख फूंकते लोग जिनमें अफसर भी शामिल थे जुलूस की शक्ल में सड़कों पर निकल आए।
5 अप्रैल को निराशा के ख़िलाफ़ आशा के दीये जलाने के प्रधानमंत्री के आह्वान पर जश्न मनाया गया और फिर एक बार सड़कों पर निकलकर मशाल जुलूस निकाले गए। यहां तक कि आतिशबाज़ी तक की गई।
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इन सभी मौकों पर सोशल डिस्टेंसिंग की खुलकर धज्जियां उड़ाई गई। लोगों जिनमें बीजेपी के नेता शामिल थे, उनके मुंह पर न मॉस्क थे, न एक-दूसरे से शारीरिक दूरी। जो कम से कम 6 फीट अनिवार्य की गई है। और 5 अप्रैल तक तो इसका काफी प्रचार-प्रसार कर दिया गया था।
धर्मांधता हो या भक्ति इसी तरह की मूर्खताएं और ग़लतियां कराती है। जैसे गौमूत्र से कोरोना दूर भगाने का दावा करना और गौमूत्र पार्टियां करना। रामनवमी पर जुलूस निकालना।
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लेकिन इन सब सच्चाईयों नज़रअंदाज़ कर व्हाट्सऐप से लेकर टेलीविज़न पर दिन रात कोरोना संकट के नाम पर मुसलमान विरोध जारी है। अगर कहीं एक भी जमाती कोरोना पॉजेटिव मिलता है तो उसे पीड़ित या मरीज़ की तरह नहीं बल्कि एक गुनाहगार, एक अपराधी के तौर पर पेश किया जाता है। इसी के चलते अन्य लोग भी डर के मारे छिप रहे हैं। सामने नहीं आ रहे। क्योंकि उनका सरकार, पुलिस-प्रशासन पर भरोसा ही नहीं रहा। ये भरोसे की कमी बेहद नुकसानदेह है। व्यक्ति के लिए भी, देश के लिए भी।
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मगर भरोसा कैसे जागे, हद तो ये है कि अब हमने अस्पताल को भी हिन्दू-मुसलमान में बांट दिया है। जो वार्ड अभी तक आईसीयू, एचसीयू, जनरल वार्ड या महिला-पुरुष में बांटे जाते थे वे भी हिन्दू और मुसलमान में बांट लिए गए हैं।
गुजरात से ख़बर है कि अहमदाबाद सिविल अस्पताल में हिन्दू-मुस्लिम के आधार पर कोरोना वार्ड बनाए गए हैं। इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर के मुताबिक़, चिकित्सा अधीक्षक डॉ. गुणवंत एच राठौड़ का कहना है कि हिंदू मरीज़ों के लिए अलग वार्ड और मुस्लिम मरीज़ों के लिए अलग वार्ड की व्यवस्था राज्य सरकार के आदेश के आधार पर की गई हैं। इसी ख़बर पर बीबीसी ने फॉलोअप भी किया है, जिसमें राठौड़ इस बात से मुकरते हैं कि ऐसा धर्म के आधार पर किया गया लेकिन यह ज़रूर कहते हैं कि मरीज़ों की स्थिति के अनुसार डॉक्टरों का ऐसा सुझाव था।
ऐसी एक घटना राजस्थान के भरतपुर से सामने आईं। जहां कथित तौर पर सरकारी अस्पताल ने एक गर्भवती को इसलिए भर्ती करने से मना कर दिया क्योंकि वो मुस्लिम थी। अस्पताल से निकलने के बाद महिला ने एंबुलेंस में बच्चे को जन्म दिया, लेकिन कुछ ही देर में बच्चे की मौत हो गई। इस मामले में जांच बैठाई गई है।
ये तो हुई हिन्दू-मुस्लिम की बात लेकिन इसी तरह उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में एक क्वारंटीन सेंटर में रह रहे कुछ लोगों ने दलित महिला प्रधान के हाथ से बना भोजन खाने से इंकार कर दिया। शिकायत मिलने पर एसडीएम ने इसकी जांच शुरू करा दी है।
कोरोना वायरस को फैलने से रोकने के लिए दुनियाभर में सोशल डिस्टेंसिंग का फार्मूला सुझाया गया है। हालांकि ये शब्द हमारे लिए नहीं था, और वही हुआ हमारे यहां सामाजिक दूरी कि बजाय सामाजिक और धार्मिक भेदभाव को बढ़ावा दिया जा रहा है।
कार्टून क्लिक : कोरोना के नाम पर सामाजिक दूरी या सामाजिक भेदभाव!
मगर अफसोस कोरोना वायरस से भी तेज़ी से फ़ैलते इस नफ़रत और सांप्रदायिकता के वायरस के ख़िलाफ़ हमारे प्रधानमंत्री ने आज तक एक भी राष्ट्र के नाम संबोधन नहीं किया।
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कोई समझाए कि कोरोना के वायरस पर हम आज नहीं तो कल जीत हासिल कर लेंगे, लेकिन ये नफ़रत का वायरस जो हमारे ज़ेहनों में घुस गया है वह हम सबको तबाह और बर्बाद कर देगा।
इसी सबको देखते हुए ये आशंका निराधार नहीं है कि कोरोना संकट निपटते ही एनपीआर-एनआरसी का काम इतने ज़ोर-ज़ुल्म से शुरू होगा जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। और इस कोरोना काल में ही झूठ और नफ़रतें इतनी बढ़ा दी जाएंगी कि शायद आप भी कहने लगें कि हां, इनके (मुसलमानों के) साथ जो हो रहा है, ठीक हो रहा है। एक आवाज़ भी इसके ख़िलाफ़ न उठ सके। यही वजह है कि इस संकट काल में भी वे एक-एक कर विरोध और असहमति की आवाज़ों को ठिकाने लगा रहे हैं।
आप यक़ीन जानिए इस संकट काल में भी उनका कोई ‘काम’ नहीं रुका है, न जामिया, एएमयू और जेएनयू विरोध, न दिल्ली दंगों के नाम पर युवाओं की गिरफ़्तारी। न विरोध प्रदर्शन में हुए कथित सरकारी संपत्ति के नुकसान की भरपाई के लिए आंदोलनकारियों की गिरफ़्तारी या क्षतिपूर्ति के लिए नोटिस तामील कराने की प्रक्रिया।
कोई काम नहीं रुका... न टार्गेट करके पत्रकारों (सिद्धार्थ वरदराजन, द वायर) के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज कराने और लॉकडाउन में ही नोटिस तामील कराने की ज़िद और पेशी का आदेश देना, और न नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं (गौतम नवलखा, आनंद तेलतुम्बडे) की गिरफ़्तारी। या धार्मिक भावनाओं को आहत करने के नाम पर मानवाधिकार कार्यकर्ता और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण और पूर्व आईएएस कन्नन गोपीनाथन के ख़िलाफ़ एफआईआर।
इस सबके बावजूद अंत में आनंद तेलतुम्बडे के ये शब्द याद आते हैं जो उन्होंने इसी 14 अप्रैल, 2020 को गिरफ़्तारी से पहले अपने खुले पत्र में लिखे कि “मुझे नहीं पता कि मैं आपसे दुबारा कब बात कर पाऊंगा। हालांकि, मुझे पूरी उम्मीद है कि आप अपनी बारी आने से पहले ज़रूर बोलेंगे। ”
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