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लापता हो गया कोसी पीड़ितों के विकास के लिए बना प्राधिकार!

आम लोगों को तो क्या खुद सरकार को भी नहीं पता चल पा रहा है कि यह कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार आखिर गया कहां। इसका दफ्तर कहां है, इसके अध्यक्ष कौन हैं, यह बिहार सरकार के किस विभाग से संबद्ध था, कुछ भी पता नहीं चल रहा?
कोसी
कोसी तटबंध के बीच का इलाका। फोटो : अजय कुमार

यह खबर सुनने में आपको अजीब लग सकती है, मगर यह सोलह आने सच है। बिहार में कोसी के पीड़ितों के विकास के लिए 1987 बना प्राधिकार कई सालों से गुम है। आम लोगों को तो क्या खुद सरकार को भी नहीं पता चल पा रहा है कि यह कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार आखिर गया कहां। इसका दफ्तर कहां है, इसके अध्यक्ष कौन हैं, यह बिहार सरकार के किस विभाग से संबद्ध था, कुछ भी पता नहीं चल रहा? एक आरटीआई का जवाब देने के लिए बिहार सरकार के अधिकार पिछले आठ महीने से इसकी ढुंढाई राजधानी पटना से लेकर सहरसा जिले के सरकारी दफ्तरों तक में कर चुके हैं। मगर प्राधिकार लापता हो गया है। इस खबर से आप बाढ़ पीड़ितों और खासकर कोसी पीड़ितों के प्रति बिहार सरकार की गंभीरता को समझ सकते हैं।

इस संबंध में 11 जनवरी, 2020 को कोसी नव निर्माण मंच के संस्थापक महेंद्र यादव ने आरटीआई कानून के तहत मंत्रिमंडल सचिवालय से सूचना मांगी थी। उन्होंने 1987 में बिहार कैबिनेट की स्वीकृति से गठित कोसी पीड़ित विकास प्राधिकार के वर्तमान अध्यक्ष, सदस्य और कर्मियों की सूची मांगी थी, उन्होंने इस प्राधिकार द्वारा अब तक किये गये कार्यों के बारे में भी जानकारी मांगी थी और यह भी पूछा था कि क्या इस फैसले में कोई बदलाव या संशोधन भी हुआ है। यानी क्या यह प्राधिकार स्थगित या बंद भी किया गया है।

महेंद्र यादव कहते हैं कि मेरे आवेदन को मंत्रिमंडल सचिवालय ने जल संसाधन विभाग को, विभाग ने मुख्य अभियंता को, अधीक्षण अभियंता ने कोसी कमिश्नर को, कमीश्नर ने सहरसा के डीएम को, डीएम ने जिला आपदा प्रबंधन कार्यालय को और आपदा प्रबंधन विभाग ने उसे उप विकास आयुक्त सहरसा को भेज दिया। यानी 22 जून, 2020 तक यह आवेदन कई अधिकारियों के दफ्तर में घूमता रहा और प्राधिकार का पता नहीं चल पाया। इस बीच महेंद्र यादव ने प्रथम अपील की वह आवेदन भी इसी तरह घूम रहा है। वे कहते हैं, इसका अर्थ तो यही निकलता है कि पटना के सचिवालय से लेकर सहरसा के समाहरणालय तक किसी को इस प्राधिकार के बारे में कोई सटीक जानकारी नहीं है। अगर होती तो मुझे इसका जवाब मिल गया होता।

बिहार की कोसी व दूसरी नदियों पर शोध करने वाले जानकार दिनेश कुमार मिश्र के मुताबिक उन्होंने भी 2005 में अपनी पुस्तक दुई पाटन के बीच के शोध के दौरान तलाशने की कोशिश की थी। तब उन्हें वह सहरसा के विकास भवन में मिला था। वहां कुछ कर्मचारी उन्हें ऊंघते हुए मिले थे, उन्होंने बताया कि वे यहां डेप्युटेशन पर भेजे गये हैं, इस प्राधिकार के पास न कोई कर्मचारी है, न बजट इसलिए कोई काम भी नहीं होता है। उन्होंने बताया कि अमूमन इस प्राधिकार का अध्यक्ष महिषी का विधायक हुआ करता था। उस वक्त महिषी के विधायक अब्दुल गफूर इसके अध्यक्ष थे। मगर वे कब तक इसके अध्यक्ष रहे यह कहना मुश्किल है।

अब्दुल गफूर की इसी साल जनवरी माह में दुखद मृत्यु हो गयी है। अभी महिषी के विधायक वही थे। उनके निधन के बाद चुनाव नहीं हुए हैं। इसलिए उनसे भी इस बारे में जानकारी नहीं ली जा सकती।

ऐसी जानकारी है कि 30 जनवरी, 1987 को बिहार मंत्री परिषद के फैसले से इस प्राधिकार का गठन हुआ था। यह प्राधिकार हर साल बाढ़ और कटाव की विभीषिका झेलने के लिए मजबूर कोसी तटबंध के बीच में रहने वाले लोगों की मदद के लिए गठित हुआ था और इसके पहले अध्यक्ष महिषी के तत्कालीन विधायक लहटन चौधरी थे। उन्हीं के प्रयासों से इस प्राधिकार का गठन हुआ था।

इस प्राधिकार के गठन के वक्त इसके प्रस्ताविक कार्यकर्मों के बारे में एक पुस्तिका प्रकाशित हुई थी, वह पुस्तिका बिहार में नदियों के सवाल पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता रंजीव के पास उपलब्ध थी। बाद में उसे कोसी नव निर्माण मंच के द्वारा प्रकाशित कर लोगों में बंटवाया गया।

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रंजीव कहते हैं कि दरअसल कोसी की विभीषिका को कम करने के ख्याल से 1962 में कोसी बराज और इस नदी के दोनों किनारे तटबंधों का निर्माण कराया गया था। मगर तीन सौ से अधिक गांव उन तटबंधों के बीच फंस गये, जो हर साल भीषण बाढ़ को झेलते और इस वजह से वहां विकास कार्य पूरी तरह ठप हो गया था। इन्हीं तीन सौ से अधिक गांव के लाखों लोगों की वर्षों पुरानी मांग को लेकर यह प्राधिकार गठित हुआ था। मगर फंड के अभाव में इस प्राधिकार की योजनाएं कभी ठीक से लागू ही नहीं हो पायी। और आखिरकार 2005 के बाद किसी रोज यह लापता भी हो गया। यह कब, कैसे और किसके आदेश से लापता हो गया, यह पता नहीं चल रहा है। 

इस प्राधिकार की पुस्तिका पढ़कर मालूम होता है कि इसकी योजनाएं काफी दूरदर्शी थी। इसमें अमूमन हर विभाग को शामिल किया गया था। किसानों को हर साल दो फसल मिलें, उन्हें आर्थिक सहायता मिले, पशुपालकों के लिए दुग्ध उत्पादक सहकारिता समिति का गठन हो, वहां लघु एवं कुटीर उद्योग की संभावना तलाशी जाये, वहां बैंकों की पहुंच हो, तीन वर्षों के भीतर उस क्षेत्र में विद्युतीकरण हो, बच्चों को प्राथमिक शिक्षा उनके एक किमी के दायरे में ही मिले, पांच पंचायतों पर प्राइमरी हेल्थ सेंटर हो, बाढ़ के वक्त चलते-फिरते औषधालय हो, वहां की जमीन लगानमुक्त हो, उस पर एक ही सेस लगाया जा सके, तटबंधों के किनारे स्थायी बाढ़ राहत केंद्र स्थापित हो, नाव पर यात्रा मुफ्त हो आदि।

एक सबसे क्रांतिकारी प्रस्ताव यह था कि चूंकि पूरे कोसी और पूर्णिया प्रमंडल के लोगों को कोसी तटबंध की वजह से बाढ़ से मुक्ति मिल रही है और इसकी सजा तटबंध के बीच बसे तीन सौ गांव के लोग भुगत रहे हैं। इसलिए इस पूरे क्षेत्र में सरकारी नौकरियों में तटबंध के बीच फंसे पीड़ितों को 15 फीसदी आरक्षण मिले।

इनमें से ज्यादातर सुविधाएं अभी तक कोसी तटबंध के बीच फंसे पीड़ित गांवों तक नहीं पहुंची है, जबकि इसके गठन के 33 साल हो चुके हैं। उपलब्ध जानकारियों के मुताबिक प्राधिकार फंड के अभाव में शायद ही कोई ढंग का काम कर पाया, सिर्फ कुछ हैंडपंप लगवाने के सिवा। आज भी इन तटबंधों के बीच सड़कों का और स्कूल, कालेजों का घोर अभाव है। बिजली भी ठीक से नहीं पहुंची है। वह 19वीं सदी की कोई छूटी हुई दुनिया लगती है।

महेंद्र यादव कहते हैं, इस प्राधिकार की तलाश का एक मकसद सरकार को यह याद दिलाना भी है कि कोसी तटबंधों के बीच छूटे हुए तीन सौ से अधिक गांवों के बारे में वह भूले नहीं। बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर 58 साल पहले उनके साथ जो अन्याय हुआ था, उसकी क्षति-पूर्ति अभी बाकी है। महेंद्र न सिर्फ सरकार से प्राधिकार का पता ढुंढवा रहे है, बल्कि इसकी पुस्तिका का भी कोसी पीड़ितों के बीच वितरण करवा रहे हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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