ग़ुलाम नबी आज़ाद के राजनीतिक एजेंडे में क्या-क्या हो सकता है?

जिस वक्त दिल्ली के रामलीला मैदान में राहुल गांधी महंगाई को लेकर केंद्र सरकार के ख़िलाफ हुंकार भर रहे थे, 7 सितंबर से शुरु होने वाली भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने के लिए कांग्रेस कार्यकर्ताओं और देशवासियों से आह्वान कर रहे थे, ठीक उसी वक्त गुलाम नबी आज़ाद ख़ुद की नई पार्टी बनाने और पार्टी का एजेंडे समझा रहे थे।
अब इसे संयोग कहिए या सोचा समझा प्रयोग... कि गुलाम नबी आज़ाद ने वही दिन और वही समय अपने भाषण के लिए चुना जो कांग्रेस ने राहुल गांधी के लिए तय किया था।
ख़ैर... गुलाम नबी आज़ाद ने इतना तो साफ कर दिया कि वो अपनी नई पार्टी बनाने वाले हैं, और उनकी पार्टी का झंडा ऐसा होगा जो सभी धर्मों को स्वीकार हो। गुलाम के अनुसार उनकी पार्टी का झंडा और नाम कश्मीर की आवाम तय करेगी।
गुलाम नबी आज़ाद की बातों से ये भी तय है कि उनकी पार्टी की राजनीति जम्मू-कश्मीर पर आधारित होगी, हालांकि वो ख़ुद दिल्ली की केंद्रीय राजनीति में जगह बनाने की कोशिश भी ज़रूर करेंगे।
अब आज़ाद की पार्टी के तीन प्रमुख एजेंडों से समझने की कोशिश करेंगे कि भविष्य में वो भाजपा के खांचे में कितना फिट बैठते हैं।
जम्मू में दिए अपने भाषण में आज़ाद ने तीन एजेंडों पर फोकस किया
- जम्मू कश्मीर को राज्य का दर्जा मिले
- बाहरी आदमी ज़मीन न खरीदे
- नौकरी केवल जम्मू-कश्मीर के लोगों को मिले
वैसे ये कहना ग़लत नहीं होगा कि जबसे कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म हुआ है, कश्मीर की राजनीति जैसे थम सी गई है। क्योंकि यहां के राजनेता ज्यादातर या तो नज़रबंद रहे या फिर किसी न किसी मुकदमें में उलझे रहे। ऐसे में मौजूदा वक्त भाजपा समर्थित उपराज्यपाल प्रशासन चला रहे हैं तो नियुक्तियों में राजनेताओं के शोषण आरोप भी खूब लग रहा है। अब इन अजीब से माहौल में गुलाम नबी आज़ाद का जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अचानक सक्रिय हो जाना ये बताता है कि फिलहाल थमी हुई राजनीति आगे ज़रूर बढ़ेगी।
लेकिन मुद्दा ये है कि जिस तरह गुलाम नबी आज़ाद कह रहे हैं कि यहां अनुच्छेद 370 की बहाली हो, दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी आरोप लगा रही है कि आज़ाद अब मोदीफाइड हो गए हैं। फिर ऐसे मोदीफाइड वाले बयानों को साफतौर पर गुलाम नबी आज़ाद खंडन क्यों नहीं कर रहे हैं।
यानी ये समझा जा सकता है कि जम्मू-कश्मीर में चुनावों के बाद क्या होगा इसके लिए भी गुलाम नबी आज़ाद ने विकल्प तैयार रखा है।
जैसे कश्मीर के अवाम के बीच एक चीज़ बहुत ज्यादा साफ है, कि किसी भी हालत में अनुच्छेद 370 फिर से बहाल होना चाहिए, और आज़ाद ने अपने एजेंडे में भी इसे शामिल कर लिया है, यानी अगर आज़ाद का ये एजेंडा और मुद्दा काम कर जाता है, और विधानसभा चुनावों में उनको फायदा हो जाता है, तो फिर वो भाजपा की ओर रुख करने से और अपनी विचारधारा के विपरीत जाने से बचेंगे ज़रूर। दूसरी ओर अगर आज़ाद को जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनावों में थोड़ा बहुत फायदा होता है, और गठबंधन के लिए भाजपा की ज़रूरत होती है, तो समझौता करने से पीछे नहीं हटेंगे।
क्योंकि जम्मू-कश्मीर की राजनीति इन दिनों थमी हुई है, कोई नेता वहां है नहीं, ऐसे में गुलाम नबी आज़ाद के पास उस खाली स्पेस को भरने का भी बहुत बड़ा मौका है। कोई बड़ी बात नहीं है कि नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी जैसी बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों के कार्यकर्ता और नेता, गुलाम नबी आज़ाद के समर्थन में आ जाएं। अगर आजाद की नई पार्टी ऐसा करने में कामयाब होती है तो कश्मीर की 47 विधानसभा सीटों पर गुलाम नबी आज़ाद को फायदा ज़रूर होगा।
ऐसे ही गुलाम नबी आज़ाद के दूसरे एजेंडे हैं कि जम्मू कश्मीर में सिर्फ यहीं के लोगों को ज़मीन ख़रीदने की इजाज़त हो और कश्मीर में सिर्फ कश्मीरियों को ही नौकरी दी जाए। ये दोनों मुद्दे भी कश्मीर की 47 सीटों पर असर डालने के लिए काफी हैं।
गुलाब नबी आजाद के साथ बेहद महत्वपूर्ण तथ्य ये भी है कि भारत के पांच प्रधानमंत्रियों की कैबिनेट में पिछले 50 साल के दौरान उन्होंने महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाले हैं, ये उनका प्रभाव ही है कि उनके समर्थन में 100 से ज्यादा कांग्रेसियों ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया। जिसके तुरंत बाद उन्हें भाजपा का एजेंट बता दिया गया, हालांकि इतिहास विपक्ष को इस बात की इजाज़त नहीं देता है, क्योंकि नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी दोनों ने बारी बारी भाजपा के साथ सत्ता में भागीदारी की है।
लेकिन आख़िर में बात जाकर चुनाव जीतने पर ही टिक जाती है। जो गुलाम नबी आज़ाद के लिए बहुत आसान नहीं होने वाला है। भले ही गुलाम नबी आज़ाद ने कश्मीर से संबंधित मुद्दों को अपने एजेंडे में शामिल कर लिया हो लेकिन कश्मीर के अवाम में अभी उन्हें लेकर शक करने की कई वजह हैं। ख़ासकर भाजपा की तरफ़ झुकाव का मसला। उधर जम्मू की जनता को लुभाने के लिए ख़ुद को हिंदुओं का भी हितैषी साबित करना होगा। शायद इसी वजह से आज़ाद कह चुके हैं कि उनकी पार्टी का झंडा ऐसा होगा जो सभी धर्मों को स्वीकार हो।
ऐसे में 1983 के चुनावों को याद करना बहुत ज़रूरी है, जब कांग्रेस की जीत हिंदू कार्ड खेलने से ही हुई थी, लेकिन अब जब गुलाम नबी आज़ाद कांग्रेस के सामने खड़े होंगे तब फिर से कांग्रेस अपनी पुरानी चाल दोहरा सकती है। और भाजपा तो पहले से ही जम्मू में अपना सिक्का मज़बूत कर चुकी है।
जहां तक सरकार बनाने की बात है, तो अगर आज़ाद और भाजपा की सीटें मिलाकर बहुमत के करीब पहुंची तो केंद्र में हस्तक्षेप की शर्त के साथ समझौता ज़रूर हो सकता है, ऐसे में भाजपा हिंदू मुख्यमंत्री बनाने वाले अपने एजेंडे से पीछे भी हट सकती है।
हम केंद्र के साथ समझौते की बात इस लिए कर रहे हैं क्योंकि पिछले 50 सालों से ज्यादा की राजनीति में आज़ाद केंद्र में अहम भूमिका में रहे हैं, इस तरह वो एक राष्ट्रीय नेता के तौर पर भी जाने जाते हैं।
पिछले वर्षों में जब कांग्रेसी नेताओं ने कांग्रेस के लिए गांधी परिवार से अलग अध्यक्ष बनाने की मांग की थी तब उसमें गुलाम नबी आज़ाद भी शामिल थे। जब आज़ाद कांग्रेस से अलग हुए तब उन्होंने जी-23 के नेताओं से दिल्ली में मुलाकात भी की थी।
यानी गुलाम नबी आज़ाद भले ही जम्मू-कश्मीर की राजनीति में ख़ुद को समर्पित दिखा रहे हैं, लेकिन एक आंख उनकी राष्ट्रीय राजनीति पर भी है। और उनके एजेंडे में पहले कांग्रेस छोड़ चुके और भविष्य में छोड़ने वालों को खुद के साथ मिलाने की मुहिम भी ज़रूर शामिल होगी। हां लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अगर गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा होता है, अगर कांग्रेस जीतती है तो गुलाम नबी आज़ाद के इरादों पर पानी ज़रूर फिर सकता है। हालांकि सभी बातें अभी भविष्य के गर्भ में हैं और आने वाले कुछ समय में साफ हो जाएगा कि गुलाम नबी की राजनीति किस करवट बैठती है।
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