यूपी: पूर्वांचल में अखिलेश की 15 घंटे चली रथयात्रा में उमड़े हुजूम ने भाजपा के भरोसे को झकझोरा

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की विजय रथयात्रा ने सत्तारूढ़ दल भाजपा का पसीना छुड़ा दिया है। करीब पंद्रह घंटे तक चली इस यात्रा में जुटे भारी हुजूम के बाद सियासत ने नई करवट ली है।
यूपी में अब से पहले भाजपा विपक्ष को डराए हुए थी। सत्तारूढ़ दल के पास मीडिया भी थी और संसाधन भी। विपक्ष मौन बैठा था, तो अब तक लग रहा था कि सीएम योगी सब पर भारी हैं। लेकिन अखिलेश की विजय रथयात्रा के बाद यूपी की सियासत में नया उभार आया है और पूर्वांचल में भाजपा को अपना किला दरकता नजर आ रहा है। भाजपा को उम्मीद थी की पश्चिम के नुकसान की भरपाई पूर्वांचल में कर लेंगे। पूर्वांचल एक्सप्रेस पर अखिलेश की सरपट यात्रा ने सत्तारूढ़ दल के भरोसे को बुरी तरह झकझोर दिया है। अखिलेश की विजय रथयात्रा में उमड़ी भीड़ से हड़बड़ाई भाजपा ने अपने सभी महारथियों को यूपी के चुनावी मैदान में उतार दिया है, जिसमें अमित शाह हैं, तो राजनाथ सिंह भी।
अखिलेश की रथयात्रा में उमड़ी भीड़
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप कुमार कहते हैं, "पूर्वांचल के सियासी मिजाज में अचानक हुए बड़े बदलाव को देखकर लगता है कि इस वोटरों ने अब एक बड़ा राजनीतिक बदलाव करने का मन बना लिया है। गाजीपुर से शुरु हुई अखिलेश यादव की विजय रथयात्रा पूरी रात चलती रही और लाखों लोग पलक-पांवड़े बिछाए खड़े रहे। यह सियासी उभार कुछ उसी तरह का था, जिस तरह साल 1980 में इंदिरा गांधी बनारस आई थीं। बेनियाबाग में उनकी सभा थी और हजारों लोग पूरी रात उनका इंतजार करते रहे। इंदिरा गांधी भोर में तीन बजे बेनियाबाग आईं। उस समय कांग्रेस के कमलापति त्रिपाठी का मुकाबला राजनारायण से था। पूर्वांचल की जनता ने निजाम बदल दिया। उस घटना की पुनरावृत्ति अखिलेश की रथयात्रा में देखने को मिली। करीब 350 किमी लंबी यात्रा ने साफ-साफ संकेत दे दिया है कि यूपी की सियासत बड़ा गुल खिलाएगी। पूर्वांचल में अखिलेश की कामयाब रैली और सुल्तानपुर में पीएम मोदी की सभा में खाली कुर्सियों ने सरकार को कृषि विधेयक वापस लेने पर विवश ओर दिया। किसानों को आतंकवादी और आंदोलनजीवी करार देने में जुटी गोदी मीडिया अब मुंह चुराती नजर आ रही है। यह भी संभव है कि देर-सबेर लखीमपुर कांड के गुनहगार अजय सिंह टेनी का गृह राज्यमंत्री का पद छिन जाए।"
अखिलेश की पूर्वांचल रथयात्रा-रैली में रात का नजारा
हतप्रभ हैं भाजपा नेता
अखिलेश की यात्रा में उमड़ी भारी भीड़ से भाजपा नेता हतप्रभ हैं। सत्तारूढ़ दल यह सफाई देने में जुट गया है कि यह भीड़ वोट में तब्दील होने वाली नहीं है। लेकिन ऐसा सवाल उस भीड़ के बारे में उठाया जाता है जो जुटाई जाती है। अखिलेश की रथयात्रा में शामिल भीड़ स्वतःस्फूर्त थी। वरिष्ठ पत्रकार विनय मौर्य कहते हैं, "लाखों लोगों का हुजूम रात में किसी का इंतजार यूं ही नहीं करता। इस तरह का मंजर तब दिखता है जब जनता इंकलाब लाने का मन बना चुकी होती है। सपा की रथयात्रा में भीड़ का जुटान बड़े राजनीतिक बदलाव की आहट है। जन-सैलाब ने यह अलार्म तो बजा ही दिया है कि यूपी के अबकी भाजपा की राह आसान नहीं है।"
पत्रकार विनय यह भी कहते हैं, "राजभर, बिंद, मल्लाह, प्रजापति सरीखी छोटी जातियां भले ही छोटी लगती हैं, लेकिन चुनाव में इनके वोटों का इंपैक्ट बहुत मजबूत होता है। भाजपा ने जिन यूपी में जिन एजेंसियों से चुनावी सर्वे कराया था उसमें सत्तारूढ़ दल बुरी तरह हारता दिख रहा है। सीएम योगी की सभा में बेरोजगारों की नारेबाजी और भाजपा नेताओं की सभाओं में खाली कुर्सियां संकेत देने लगी हैं कि भाजपा की चुनौतियां आसान नहीं हैं। अखिलेश ने बिजली के बिल और मुफ्त उच्च शिक्षा का जो वादा किया है उस पर जनता यकीन कर रही है। यही वजह है कि पिछड़े तबके के लोग अखिलेश यादव के पक्ष में बुलंद हौसले के साथ खड़े होते नजर आ रहे हैं।"
अखिलेश यादव की विजय रथयात्रा के सारथी थे ओमप्रकाश राजभर और जनभागीदारी मोर्चा में शामिल उनके साथी। गाजीपुर और आजमगढ़ तक जगह-जगह ओमप्रकाश ने भीड़ को संबोधित किया। उन्होंने अपने सधे अंदाज में भाजपा को ललकारा तो सीएम योगी को चुनौती भी दी। नया नारा दिया, "जब तक भाजपा की विदाई नहीं, तक तक कोई ढिलाई नहीं।"
सपा ने पूर्वांचल एक्सप्रेस वे पर 16 नवंबर को ही गाजीपुर में अखिलेश का रोड शो और रैली की अनुमति मांगी थी, लेकिन प्रशासन ने मना कर दिया था। पीएम नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम के बाद 17 नवंबर को अखिलेश यादव ने गाजीपुर से लखनऊ तक पूर्वांचल एक्सप्रेस वे पर विजय रथयात्रा निकाली, जिसमें लाखों लोग जुटे। अखिलेश यादव ने साल 2001 और 2011 में भी अपना रथ घुमाया था तो साल 2003 और 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी थी। साल 2016 में उन्होंने इस भ्रम को तोड़ना चाहा तो यूपी का मुख्यमंत्री रहते हुए सत्ता से हाथ धो बैठे। अब एक बार फिर उन्होंने अपना कानपुर से जुडा पुराना टोटका आजमाया है, जिसके बाद उन्हें प्रदेश की सत्ता में वापस आने का पूरा विश्वास है।
पूर्वांचल के गाजीपुर में अखिलेश की रैली में उमड़ा जन-सैलाब
दरअसल, समाजवादी पार्टी के लिए कानपुर हमेशा शुभ साबित हुआ है। फिर चाहे वह पिता मुलायम सिंह यादव हो अथवा उनके बेटे अखिलेश यादव। सबसे पहले कानपुर से रथयात्रा की शुरुआत समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने की थी। तब वह जनता दल में हुआ करते थे। उन्होंने जनता दल के नेता चौधरी देवीलाल के हाथों सौंपा गया क्रांति रथ पूरे प्रदेश में घुमाया था और वह पहली मर्तबा साल 1989 में यूपी के मुख्यमंत्री बने थे।
बनारस में जनवार्ता के संपादक डा.राजकुमार सिंह कहते हैं, "भाजपा नेतृत्व से बड़ी चूक हुई है, खासतौर पर सियासत की नब्ज टटोलने और अखिलेश की साख को आंकने में। विजय रथयात्रा के बाद पूर्वांचल की सियासत में नया उभार देखने के बाद भाजपा के होश उड़ गए हैं। भाजपा हाईकमान को काशी और अवध प्रांत के लिए पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह को आनन-फानन में चुनाव प्रभारी बनाना पड़ा। यह इस बात को तस्दीक करता है कि भाजपा के सामने जितनी बड़ी चुनौती पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नहीं है, उससे बड़ी पूर्वांचल में है।"
डा.राजकुमार यह भी कहते हैं, "पिछले दो-तीन सालों में अखिलेश यादव ने खामोशी के साथ काम किया है। इस बीच उन्होंने सूक्ष्म लेबल तक छोटे-छोटे जातीय समूहों के बीच सत्ता में भागीदारी की राजनीतिक आकांक्षा पैदा करने में सफलता हासिल की है। मौजूदा दौर में अखिलेश यादव के नारे काफी लोकलुभावन हैं। उन्होंने बच्चों को लैपटाप और रोजगार देने के जो वादे के थे उसे शिद्दत से निभाया था। सूबे की जनता यह भी देख रही है कि सपा ही मुख्य विपक्षी पार्टी है। उसका गठबंधन पूर्वांचल में सुभासपा के ओमप्रकाश राजभर और पश्चिम में रालोद के जयंत चौधरी से गठबंधन किया है। सपा का गठबंधन बड़ा और काफी मजबूत दिख रहा है। यही वजह है कि पीएम को कृषि बिल वापस लेना पड़ा। दूसरी बात, हिन्दुत्व के एजेंडे पर जो भाजपा चुनाव जीतती आ रही थी वह अब कमजोर होती दिख रही थी। ओबीसी जातियों के ज्यादतर लोग खेतिहर किसान और मजदूर हैं। यह तबका भाजपा से खासा नाराज है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के लोग अपना झंडा लगाकर गांवों में नहीं जा पा रहे थे। भाजपा समझ गई थी कि किसानों को नाराज करके वह कोई चुनाव नहीं जीत सकती है। सरकार की भी हो, वह पहले अन्नदाता को देखती है। वही भगवान होता है। उसे नाराज करके भला कैसे कोई सरकार चला सकता है?"
खामोशी के साथ छोटे दलों को जोड़ा
समाजवादी पार्टी पूर्वांचल में इसलिए भी ताकतवर नजर आ रही है क्योंकि उसने खामोशी के साथ छोटे-छोटे दलों को सत्ता में भागीदारी के लिए अपने साथ जोड़ा है। भारतीय सुहेलदेव समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर ने छोटे दलों को मिलाकर जो भागीदारी संकल्प मोर्चा बनाया था उसमें बाबू सिंह कुशवाहा और असदुद्दीन ओबैसी को छोड़कर सभी दल अब तनकर अखिलेश के साथ खड़े हो गए हैं। अपना दल की कृष्णा पटेल, बाबू राम पाल की राष्ट्रीय उदय पार्टी, अनिल सिंह चौहान की जनता क्रांति पार्टी, प्रेमचंद प्रजापति की राष्ट्रीय उपेक्षित समाज पार्टी, रामकरण कश्यप की भारतीय वंचित समाज पार्टी समेत कई दल अब समाजवादी पार्टी की छतरी के नीचे आ गए हैं। कुशवाहा समाज का नेतृत्व करने वाले महान दल समेत कई छोटी पार्टियों के नेता तो सपा के सिंबल पर चुनाव लड़ने के लिए राजी हो गए हैं।
पूर्वांचल की राजनीति में अब से पहले नाई, बिंद, प्रजापति, मल्लाह, लोहार, पाल, राजभर, चौहान, काछी आदि जातियों के नेताओं को तबज्जो नहीं दी जाती थी। कोई भी दल न तो इनकी बात करता था और न ही टिकट बंटवारे में इन्हें कोई खास तरजीह दी जाती थी। यह वो जातियां हैं जो पूर्वांचल के वाराणसी, गाजीपुर, बलिया, सोनभद्र, मिर्जापुर आजमगढ़, मऊ, जौनपुर व भदोही आदि जिलों की करीब 40 सीटों के चुनाव नतीजों पर खासी असर डालती रही हैं।
पूर्वांचल के कई जिलों में अनेक ऐसी जातियां हैं, जो न तो संगठित हैं और न ही इनकी संख्या ही इतनी है कि ये सियासी दलों का ध्यान अपनी ओर खींच सकें। इसी का नतीजा है कि कोई भी दल चुनाव में इन्हें तरजीह नहीं देता था। अबकी कम जनसंख्या वाली गोंड, लोहार, कुम्हार, बिंद, मल्लाह, मुसहर, डोम, धरकार तक सियासी दलों के एजेंडे में शामिल हो गए हैं। सपा प्रवक्ता मनोज राय धूपचंडी कहते हैं, "पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने सभी छोटी जातियों की नुमाइंदगी को अहमियत देने का निर्णय लिया है। खासतौर पर वह जातियां जिनका बिखराव न हो तो वह चुनावी नतीजे को बदल सकती हैं।"
पूर्वांचल में बिंद जाति की सर्वाधिक तादाद मिर्जापुर और गाजीपुर में है। वाराणसी और चंदौली के सैयदराजा विधानसभा क्षेत्र में यही जाति प्रत्याशी की हार-जीत तय करती है। इस इलाके में इनकी कुल संख्या 6-7 लाख के करीब है। मूल रूप से खेतीबाड़ी में लगी इस बिरादरी के अधिकांश परिवार भूमिहीन हैं और दूसरे की जमीन पर खेती कर रोजी-रोटी चलाते हैं। इसके बावजूद इनके विकास का मुद्दा किसी दल के एजेंडे में नहीं है। पूर्वांचल में चौहान को स्थानीय भाषा में नोनिया के नाम से जाना जाता है। मऊ, गाजीपुर और जौनपुर के अधिकतर विधानसभा क्षेत्रों में इनकी तादाद अच्छी-खासी है। सियासत में इन्हें पहले तरजीह नहीं के बराबर मिलती थी।
गाजीपुर, बलिया, मऊ, आजमगढ़, चंदौली, भदोही, वाराणसी व मिर्जापुर में राजभर समुदाय की आबादी 12 लाख के आसपास है। इस बिरादरी के नेता के तौर पर ओमप्रकाश राजभर को पहचान तब मिली, जब अपने वजूद के लिए इस बिरादरी के लोग एक छतरी के नीचे लामबंद हुए। आज भी ये मछली पालने और खेती जैसे पारंपरिक कार्य में लगे हैं। पूर्वांचल के अधिसंख्य विधानसभा क्षेत्रों में लोहार जाति के तीन से सात हजार मतदाता हैं। उपेक्षा का आलम यह है कि आजादी के बाद से इस बिरादरी से कोई बड़ा नेता नहीं पैदा हो सका। चुनावों में इनका दर्द सुनने का कोई भी दल जहमत नहीं उठाता है।
वाराणसी के अलावा आसपास के सभी जिलों में कुम्हार बिरादरी की आबादी सात लाख से ज्यादा है। इस बिरादरी की दशा भी अच्छी नहीं है। सियासी तौर पर इस बिरादरी का नाम पूर्वांचल से नहीं जुड़ सका, जिसके चलते चुनावों में इनकी पूछ नहीं होती। बनारस के शिवपुर विधानसभा क्षेत्र में चाहे समीकरण जो भी हो, हार-जीत यही जाति तय करती है।
चंदौली, मिर्जापुर, गाजीपुर, बलिया व वाराणसी की करीब 32 सीटों पर मल्लाहों की तादाद सात-आठ लाख के आसपास है। आजादी के छह दशक बाद भी इनकी दशा में कोई सुधार नहीं हुआ है। मछली मारने और नाव चलाने में इनका जीवन बीत जाता है। इसलिए सियासी दलों की नजरों में इनकी कोई गिनती नहीं होती।
कृषि बिल से बिदक गई हैं खेतिहर जातियां
साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने पिछड़ी जातियों का 47 फीसदी वोट हासिल किया था। इस बार भी वह सवर्ण+गैर-जाटव दलित+गैर-यादव ओबीसी के अपने अजेय फॉर्मूले को प्रभावी रखने की जुगत में है। साल 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में यादव, कुर्मी और जाट को छोड़कर ओबीसी में शामिल अन्य जातियों के 60 फीसदी वोटरों ने भाजपा को वोट दिया था। अबकी बार स्थिति बदली हुई नजर आ रही है। केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री बनाने का वादा करके ऐन वक्त पर योगी आदित्यनाथ को कुर्सी थमाए जाने से मौर्य, कुशवाहा, कोइरी, काछी, सैनी, शाक्य जातियों के लोग भाजपा से अंदरखाने खासे नाराज हैं। बनारस के वरिष्ठ पत्रकार अमित मौर्य कहते हैं, "खेती-किसानी करने वाली जातियां नए कृषि बिल के चलते बिदकी हुई हैं। वह खुलकर किसान आंदोलन के साथ नहीं दिख रही हैं, लेकिन अंदरखाने उनके दिलों में बहुत खदबदाहट है। पिछली दफा सिर्फ 29 फीसदी पिछड़ी जातियों ने सपा को वोट दिया था। अखिलेश यादव ने अबकी गैर-जातियों के नेताओं को जिस तरह से तवज्जो दिया है, उससे लगता है कि सपा के वोटबैंक का ग्राफ काफी ऊपर चढ़ सकता है।"
अमित यह भी कहते हैं, ''कोई भी ऐसी जाति नहीं है जिसका सौ फीसदी वोट किसी एक दल को मिलता हो। यदि किसी एक जाति का 60 फीसदी से ज्यादा वोट एक पार्टी को मिल रहा है तो मान जा सकता है कि वह जाति उस पार्टी के साथ है। इस लिहाज से यादव समाजवादी पार्टी के साथ हैं। भाजपा ने पिछले एक दशक के दौरान ओबीसी वोटरों के बीच जो पकड़ बनाई थी, उसमें अब छीजन आ गया है। इसकी पुख्ता वजह यह है कि योगी सरकार में ठाकुर और अन्य अपर कास्ट के लोगों को खास तरजीह दिया जाना। जिलों में तैनात कलेक्टरों और थानों में ठाकुर जाति के दरोगाओं की बड़े पैमाने पर नियुक्ति से छोटी जातियों का हौसला टूटा है। इन जातियों पर अत्याचार की घटनाएं तो बहुत हुईं, लेकिन मीडिया में मुद्दा नहीं बनने दिया गया। अबकी ओबीसी का जनाधार नाटकीय रूप से बदला हुआ नजर आ रहा है। ऐसे में पूर्वांचल में नुकसान भाजपा को ही होगा।"
सीएसडीएस का सर्वे कहता है कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में ओबीसी वर्ग से 77 फीसदी जाटों, 53 फीसदी कुर्मियों और 27 फीसदी यादवों ने भी भाजपा को वोट किया। उस समय नरेंद्र मोदी मोस्ट पॉपुलर फेस थे। भाजपा के पास केशव प्रसाद मौर्या और अनुप्रिया पटेल के रूप में दो ऐसे चेहरे थे जिसने कोईरी, कुशवाहा, मौर्य शाक्य और कुर्मी वोट बैंक को उसके पाले में खींचा। खाद-बीज का दाम बढ़ने और छुट्टा पशुओं से बर्बाद हो रही खेती के चलते किसानी करने वाली ये जातियां भी इस बार बिदकी नजर आ रही हैं। पहले की तरह इनके थोक वोट भाजपा को मिलने के आसार नहीं हैं।
यूपी के विधानसभा चुनाव में इस बार भाटिया, अग्रहरी, वैश्य, रुहेला, हिंदू कायस्थ, मुस्लिम कायस्थ, भूटिया, बगवां, दोहर, दोसर वैश्य, मुस्लिम शाह, केसरवानी वैश्य, हिंदू और मुस्लिम भाट जैसी जातियां हैं भी अपना सियासी वजूद ढूंढ रही हैं। अखिलेश यादव ने इन जातियों को अपने पाले में खींचने की पुख्ता रणनीति बनाई है। सबसे बड़ी बात यह है कि अखिलेश के पास जोशीले कार्यकर्ता हैं, जिसके चलते पिछड़ी जातियां उन पर लट्टू होती नजर आ रही हैं। खासतौर पर वह जातियां भी जो पिछले चुनाव में पाला खींचकर भाजपा के साथ तनकर खड़ी थीं।
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