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यूपी: क्या इस बार 'मंडल बनाम कमंडल' के राजनीतिक असर की काट है बीजेपी के पास?

1993 में मुलायम सिंह यादव व कांशीराम ने मिलकर रामरथ पर सवार बीजेपी को सत्ता में आने से रोका था। हालांकि इस बार की स्थितियां अलग हैं और बीजेपी की सामाजिक भागीदारी की तस्वीर भी। ऐसे में इस फार्मूले का चुनाव में नए सिरे से लिटमस टेस्ट होने की संभावना है।
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एक पुरानी राजनीतिक कहावत है दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। यानी जो यूपी पर राज करेगा, उसी का दबदबा दिल्ली में चलेगा। कई मायनों में ये कहावत सच भी साबित हुई है और शायद यही कारण है कि सभी राजनीतिक दलों की खास दिलचस्पी उत्तर प्रदेश के चुनावों में रहती है। अब जब यूपी 2022 के विधानसभा चुनाव में महज़ ही कुछ दिन का समय बचा है, तो ऐसे में सभी राजनीतिक दल एक दूसरे के समर्थन में सेंध लगाने की तमाम कोशिश कर रहे हैं। प्रदेश में नित नए समीकरण सामने आ रहे हैं।

बीते हफ्ते बीजेपी से इस्तीफा देकर स्वामी प्रसाद मौर्य सहित कई बीजेपी विधायकों ने जब समाजवादी पार्टी की सदस्यता ली तो लगा कि चुनाव इस बार तीन दशक पुरानी रणनीति पर लड़ा जा रहा है। 1993 में उत्तर प्रदेश मंडल बनाम कमंडल की राजनीति की प्रयोगशाला बना था। ऐसे में करीब 29 साल बाद सपा एक बार फिर चुनाव को उसी फार्मूले की ओर से जाती नज़र आ रही है।

अगड़ा बनाम पिछड़ा की राजनीति

स्वामी प्रसाद मौर्य ने अपने भाषण की पूरी टोन भी अगड़ा बनाम पिछड़ा के इर्द-गिर्द ही रखी। उन्होंने कहा कि सरकार बनाए दलित व पिछड़ा और मलाई खाए 5% अगड़ा, यह नहीं चलेगा। स्वामी ने सीएम योगी आदित्यनाथ पर हमला बोलते हुए कहा कि वह हिंदू हितैषी होने का दावा करते हैं तो क्या उनके हिंदू की परिभाषा में पिछड़ा व दलित नहीं आता? उनका इशारा साफ तौर पर पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक बनाम अगड़ा की ओर ही था।

हालांकि इसके तुरंत बाद ही यूपी की राजनीति में एक दांव बीजेपी की ओर से सामने आया मुलायम सिंह की छोटी बहु अपर्णा यादव ने बुधवार, 19 जनवरी को समाजवादी पार्टी छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया। अपर्णा ने पार्टी की सदस्यता लखनऊ में नहीं बल्कि दिल्ली में बीजेपी के राष्ट्रीय मुख्यालय में ली जिससे साफ़ ज़ाहिर है कि बीजेपी इसे एक राष्ट्रीय उपलब्धि के रूप में सपा पर उसकी पार्टी के कुछ पिछड़े नेता तोड़ने के पलटवार के तौर पर पेश करना चाहती है। हालांकि इस घटना का लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश की राजनीति पर कोई असर देखने को मिलेगा, ये कहना अभी जल्दबाज़ी होगा।

लड़ाई 80 बनाम 20 की या 85 बनाम 15 की

आपको याद होगा कुछ दिन पहले यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक इंटरव्यू में कहा था कि यूपी में लड़ाई 80 बनाम 20 की है। उन्होंने इस अनुपात को बहुत स्पष्ट तो नहीं किया लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि उनका इशारा ‘हिन्दू बनाम मुसलमान' की ओर था। योगी सरकार के कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य जब बीजेपी छोड़कर समाजवादी पार्टी में गए तो उन्होंने पार्टी दफ्तर में अपने भाषण में इसी तर्ज पर कहा, "लड़ाई 85 बनाम 15 की है।”

स्वामी प्रसाद मौर्य ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा, "सरकार बनवाएं दलित-पिछड़े और मलाई खाएं अगड़े 5 फीसदी लोग। आपने 80 बनाम 20 फीसदी का नारा दिया है, लेकिन मैं कह रहा हूं यह 15 बनाम 85 की लड़ाई है। 85 फीसदी हमारा है और 15 फीसदी में भी बंटवारा है।”

स्वामी प्रसाद मौर्य के इस बयान को नब्बे के दशक की उस राजनीति की ओर लौटने के संकेत के रूप में देखा जा रहा है। 'मंडल बनाम कमंडल' की राजनीति के सहारे ही 1993 में मुलायम व कांशीराम ने मिलकर रामरथ पर सवार बीजेपी को सत्ता में आने से रोका था। तब राममंदिर आंदोलन के चरमोत्कर्ष के दौरान भी दलितों और पिछड़ों की एकजुटता यानी सपा और बसपा के गठबंधन ने बीजेपी को सत्ता से बाहर कर दिया था। ये दोनों ही पार्टियां मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद राजनीतिक पटल पर तेजी से उभरीं और उसके बाद यूपी की राजनीति में सरकारें बनाती रहीं। हालांकि इस बार की स्थितियां भी अलग हैं और बीजेपी की सामाजिक भागीदारी की तस्वीर भी। ऐसे में इस फार्मूले का चुनाव में नए सिरे से लिटमस टेस्ट होगा।

क्या है मंडल बनाम कमंडल का राजनीतिक इतिहास?

जानकार मानते हैं कि राजनीति उत्तर प्रदेश का शायद सबसे बड़ा उद्योग है। भारत में गठबंधन राजनीति का पहला प्रयोग भी उत्तर प्रदेश की ज़मीन पर ही किया गया। 1989 तक जिस जिस दल ने उत्तर प्रदेश में सबसे अधिक सीटें जीती, उसने केंद्र में सरकार बनाई। 1990 के अगस्त महीने में जब तत्कालिन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की मंडल आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने का ऐलान किया, तब बीपी मंडल की रिपोर्ट ने यूपी की राजनीति में भूचाल ला दिया।

बीजेपी ने केंद्र में वीपी सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया तो वहीं यूपी में मंडल आयोग की सिफ़ारिशों के दूरगामी राजनीतिक असर की काट के लिए 'हिंदू एकता' का नारा देते हुए राम मंदिर का आंदोलन तेज़ कर दिया। हालांकि बीजेपी ने कभी मंडल आयोग की सिफारिशों का खुलकर विरोध नहीं किया, लेकिन हमेशा ही जातियों में बंटे समुदायों को हिंदू धर्म के नाम पर जोड़ने की राजनीति की, जो कहीं न कहीं मुसलमानों को टारगेट करती नज़र आई। इसी हिंदुत्व बनाम सामाजिक न्याय के टकराव को मीडिया ने मंडल बनाम कमंडल का नाम दिया, कई सालों तक सतह के नीचे दबे रहने के बाद यह टकराव एक बार फिर उभरता दिख रहा है जो 2022 के चुनाव में ज़ोरदार ढंग से सामने आ सकता है।

सेक्युलर राजनीति का नाम लेने से घबराने लगी हैं पार्टियां

वैसे मोटे तौर पर यूपी में राजनीति की दो धाराएं हैं, एक धारा गांधी-आंबेडकर-जेपी-लोहिया से प्रेरणा लेने की बात करती है, तो वहीं दूसरी धारा शिवाजी, राणा प्रताप से होते हुए, भगवान राम की शरण में जाती है। हिंदूवादी धारा का आग्रह है कि सब हिंदू हैं और सभी हिंदू अच्छे हैं, उन्हें एकजुट होना चाहिए, अपने हिंदू होने पर गर्व करना चाहिए, अतीत की ओर लौटना चाहिए जो गौरवशाली था, सारी गड़बड़ी की जड़ में विदेशी, और ख़ास तौर पर मुसलमान हैं, वे ग़ैर हैं, हम एक हैं। इसी का विस्तार हिंदू राष्ट्र है, जिसे उसके विरोधी बहुसंख्यक वर्चस्ववादी हिंदू वोट बैंक बनाने की कोशिश कहते हैं।

दूसरी तरफ़, वे लोग हैं जो सामाजिक न्याय, बराबर हिस्सेदारी, आरक्षण, सामाजिक सशक्तीकरण और धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं। इन पर जातिवादी, मुसलमान परस्त और हिंदू विरोधी होने के आरोप लगते हैं। भ्रष्टाचार और वंशवाद के मामले में भी उनका ट्रैक रिकॉर्ड काफ़ी बुरा है।

वैसे तो बीते तीन दशकों में कुछ खास नहीं बदला, लेकिन पिछले कुछ सालों में एक बात ज़रूर बदली है, वह यह है कि कांग्रेस सहित सभी विपक्षी पार्टियां मुसलमानों के हक और हितों की बात करने या सेक्युलर राजनीति का नाम लेने से घबराने लगी हैं। उन्हें भी मंदिर का सहारा लेना पड़ रहा है। और तो और देशभक्ति और देशहित के नाम पर अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार पर भी चुप्पी साधनी पड़ रही है।

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