किसान आंदोलन और दलित आंदोलन के बीच एकता के गहरे राजनीतिक निहितार्थ हैं

चौतरफा बढ़ते संकट और कटाई के मौसम के बावजूद किसान-आंदोलन पूरे ओज के साथ जारी है। आज 14 अप्रैल को संयुक्त किसान मोर्चा ने अम्बेडकर जयंती संविधान बचाओ दिवस तथा दलित बहुजन एकता दिवस के रूप में मनाने का आह्वान किया है, जिसे सभी बॉर्डरों पर विशेष ढंग से आयोजित किया जा रहा है और दलित किसान-मजदूर युवा इसकी अगुवाई कर रहे हैं।
किसान-आंदोलन और दलित आंदोलन के बीच यह अंतःक्रिया स्वागतयोग्य है, शुभ है। आने वाले दिनों में इसके गम्भीर वैचारिक राजनैतिक निहितार्थ हो सकते हैं।
संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा जारी बयान में कहा गया है, " डॉ. अम्बेडकर देश के शोषित, उत्पीड़ित लोगों की आजादी के सपनों के नायक थे। हम उन्हें संविधान निर्माता के रूप में जानते हैं, जिस संविधान में आजादी के समय दिये गये कई मौलिक अधिकारों पर आज आरएसएस-भाजपा की मोदी सरकार तीखे व क्रूर हमले कर रही है। आज, जब बेरोजगारी बेइंतहा तेजी से बढ़ रही है और खेती में घाटा व कर्जदारी बढ़ रही है, तब इसके चलते खेती से जुड़े लोगों पर सकंट बढ़ता जा रहा है। "
" खेती के लिए बनाए गये ये तीन कानून और बिजली बिल 2020 भी मोदी सरकार की गरीब विरोधी नीतियों का अगला कदम है। आज ये कानून दोनों जमीन वाले व बिना जमीन वाले किसानों के लिए खतरा बन गए हैं। खेती का यह नया प्रारूप बटाईदार किसानों के लिए और भी घातक है क्योंकि खेती को लाभकारी बनाने के लिए कम्पनियां बड़े पैमाने पर इसमें मशीनों का प्रयोग कराएंगी और बटाईदारों का काम पूरा छिन जाएगा। बटाईदारों की बड़ी संख्या बहुजन समाज से आती है। देश के मेहतनकशों के लिए एक उत्साह की बात है कि जमीन वाले किसान और इनके संगठन, इन कानूनों को रद्द कराने के लिए लड़ रहे हैं। "
अम्बेडकर जयंती के सरकारी आयोजनों के विपरीत किसान नेताओं के लिए यह कोई रस्म अदायगी नहीं वरन संविधान निर्माता का स्मरण है, जिस संविधान से हासिल अधिकार के बल पर वे आज दमनकारी सत्ता के खिलाफ जीवन मरण संग्राम में अविचल खड़े हैं।
आंदोलन के दौर में किसानों की विकसित होती चेतना में आज डॉ. अम्बेडकर के दलित मुक्ति के संघर्ष ने एक नया अर्थ ग्रहण कर लिया है। न्याय, आर्थिक ही नहीं सामाजिक भी होना चाहिए, यह उनकी अनुभूति का हिस्सा बन रहा है और इसके माध्यम से उस ग्रामीण भारत में जहां आज भी सामन्ती अवशेष गहरे जड़ जमाये हैं, जहां दलित विरोधी अन्याय की अंतर्धारा हमेशा मौजूद रहती है, वहां अब किसानों, बंटाईदारों, मजदूरों की एकता का न्याय अध्याय लिखा जा रहा है, यह इस आंदोलन की सर्वोत्तम उपलब्धियों में है। हर घर में किसान नेता छोटू राम और बाबा साहब की फोटो एक साथ लगाने का आह्वान सच्चे जनांदोलन से निकली वैचारिक प्रेरणा का परिणाम है।
किसान आंदोलन ने संविधान के मूल्यों और आदर्शों से प्रेरणा ग्रहण की है और उसमें प्रदत्त अधिकारों से शक्ति अर्जित की है। बदले में, किसान आंदोलन आज संविधान की रक्षा के लिए, उसकी धर्मनिरपेक्ष-लोकतांत्रिक आत्मा को खत्म करने और देश में एक बहुसंख्यकवादी अधिनायकवादी निज़ाम कायम करने की कोशिशों के खिलाफ, सबसे बड़ी चुनौती बन कर खड़ा हो गया है।
सचमुच, आज हमारा गणतंत्र गम्भीर संकट का सामना कर रहा है। आज यह सवाल हर संवेदनशील नागरिक को मथ रहा है कि क्या हमारा संविधान अपने वर्तमान स्वरूप में बना रहेगा? क्या हमारे गणतंत्र का औपचारिक रूप भी खत्म हो जाएगा और भारत घोषित तौर पर एक हिन्दू राष्ट्र बन जायेगा, खुलेआम एक फासीवादी निज़ाम यहां कायम हो जाएगा?
इन तमाम आशंकाओं से घिरे देश में किसान आंदोलन उम्मीद की किरण बन कर आया है और पिछले 4 महीनों से फासीवादी ताकतों को निर्णायक चुनौती दे रहा है।
आज हमारा लोकतन्त्र जिस क्षत-विक्षत लहूलुहान हालत में पहुँच गया है, बंगाल चुनाव उसका आईना है जहां लोकतंत्र के अपने बुनियादी हक का प्रयोग करने गए युवा अपनी जान से ही हाथ धो बैठते हैं। ( उनमें एक नौजवान तो जीवन में अपने पहले मतदान के लिए गया था और ये चारों अपने गरीब मजदूर परिवारों का सहारा थे जो मतदान के लिए ही बाहर से घर आये थे।)। ऊपर से भाजपा के बंगाल प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष धमकी दे रहे हैं कि वे दुष्ट लड़के थे, ऐसी घटनाएं और होंगी!
सम्पूर्ण घटनाक्रम केंद्र सरकार के इशारे पर काम कर रहे चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा करता है- आखिर एक संवेदनशील बूथ पर जहां पिछले कई दिनों से तनाव था और हिंसक वारदातें हुई थीं,वहां ऐसी जगह के लिए अनुपयुक्त CISF जैसे बल को क्यों लगाया गया? लाठीचार्ज, हवा में फायरिंग, रबर बुलेट के विकल्प प्रयोग न कर सीधे हत्या के लिए फायर क्यों किया गया?
देश भारी अनिश्चितता और आशंकाओं भरे संकट के दौर में प्रवेश कर गया है। इस संकट का उत्स प्राकृतिक-जैविक से अधिक सामाजिक-राजनैतिक है।
आज़ादी के समय अंगीकार किये गए राष्ट्रनिर्माण के मॉडल की पुरानी जटिलताएं और समस्याएं तो थीं ही, अब 2014 के बाद से एक प्रतिगामी, नाकारा नेतृत्व ने संकट को चरम पर पहुंचा दिया है। हमारे लोकतंत्र की अंतर्निहित कमजोरियां, विसंगतियां, सीमाएं आज पूरी तरह सामने आ चुकी हैं। इन्हें हम देखते हैं, तो डॉ. आंबेडकर द्वारा संविधान निर्माण के समय व्यक्त की गई आशंकाएं, चेतावनियां, उनके द्वारा सुझाये गए समाधान बरबस ध्यान खींचते हैं।
डॉ. आंबेडकर ने इस खतरे का सटीक पूर्वानुमान किया था और इसके प्रति आगाह किया था।
डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा मे अपने अंतिम, सुप्रसिद्ध भाषण में यह चेतावनी दी थी कि भारत अगर सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में लोकतंत्र कायम न कर सका तो, यहां राजनैतिक लोकतंत्र भी जिंदा नहीं रह पाएगा। उनके ये शब्द prophetic साबित हुए। बुनियादी रूप से यही वह परिघटना है, जिसे आज हम अपने सामने घटित होते देख रहे हैं।
भारत को सामाजिक-आर्थिक लोकतंत्र की दिशा में ले जाने के लिए डॉ. आंबेडकर ने अपने चर्चित दस्तावेज, ' State and Minorities ' में भारत के अर्थतंत्र के लिए जो रोडमैप पेश किया था, वह आज बेहद मौजूं है। वे चाहते थे कि अर्थव्यवस्था के दोनों प्रमुख स्तम्भ उद्योग तथा कृषि कारपोरेट घरानों, पूँजीशाहों तथा ज़मींदारों के निजी मुनाफे के लिए इस्तेमाल न होकर पूरे समाज के हित में राज्य द्वारा संचालित हों। प्रमुख तथा बुनियादी उद्योग राज्य के स्वामित्व में रहें। कृषि राज्य उद्योग हो।
वे चाहते थे कि उद्योग और कृषि निजी स्वामित्व की बजाय सार्वजनिक मालिकाने और सामूहिक श्रम के आधार पर चलाये जाय।
डॉ. आंबेडकर के सुझाये रास्ते पर देश चलता तो आर्थिक गैरबराबरी का अंत तो होता ही, सामाजिक विषमता और अन्याय का भी अंत होता और एक लोकतांत्रिक चेतना से सम्पन्न आधुनिक राष्ट्र का निर्माण होता, जहां अतार्किकता, अंधआस्था, व्यक्तिपूजा, हर तरह की जड़ता का नाश हो जाता और उसकी जगह प्रत्येक नागरिक तार्किक, वैज्ञानिक, मानवीय, उदारतावादी चेतना व संवेदना से लैस होता!
ऐसा चेतना-सम्पन्न समाज राजनैतिक लोकतंत्र की सबसे बड़ी गारण्टी होता।
मोदी सरकार आज बाबा साहब की सोच के ठीक उल्टी दिशा में काम कर रही है और न सिर्फ सरकारी उद्यमों को वरन किसानों की कृषि भी कारपोरेट के हवाले कर रही है।
शिक्षा तो उनकी केंद्रीय चिंताओं में थी ही, public health भी उनके सबसे बड़े concerns में था। और यहां, मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर और उसमें बड़े पैमाने पर सरकारी निवेश के साथ ही उनकी मुख्य चिंता यह थी कि कैसे स्वास्थ्य सेवाएं समान ढंग से सबको सुलभ हों और कैसे सबको पौष्टिक भोजन मिले और वर्क-कंडीशन्स healthy हों जिससे आम जन, श्रमिक वर्ग स्वस्थ जीवन जी सकें। वे सबके लिए जीवन सुरक्षा कवच चाहते थे , इसीलिए वे चाहते थे कि बीमा राज्य के एकाधिकार में रहे ।
आज मोदी सरकार इन सब को उलट देने पर आमादा है, जिसका परिणाम है चौतरफा तबाही। देश आज कोरोना महामारी के आगे पूरी तरह असहाय हो गया है। देश का पूरा स्वास्थ्य ढांचा collapse कर गया है और मेडिकल इमरजेंसी के हालात हैं। न पर्याप्त अस्पताल हैं, न दवाएं हैं, न पर्याप्त वैक्सीन है। ऊपर से इस संवेदनहीन सरकार ने भारी मात्रा में दवाएं और वैक्सीन निर्यात कर दीं .
डॉ. आंबेडकर ने उदीयमान राष्ट्र को सचेत किया था, " भारत अगर वास्तव में हिन्दू राज बन जाता है, तो निस्संदेह इस देश के लिए एक गंभीर खतरा उत्पन्न हो जाएगा। ....यह स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा के लिये खतरा है। इस आधार पर प्रजातंत्र के लिये यह अनुपयुक्त है। इसे हर कीमत पर रोका जाना चाहिए।"
आज वह खतरा बिल्कुल प्रत्यक्ष हमारे सामने है। और उसके जिन सम्भावित परिणामों की उन्होंने चर्चा किया था, उसकी शुरुआती झलक हम देख रहे हैं। पिछले 7 साल से अहर्निश जारी विभाजनकारी, अंधराष्ट्रवादी फ़ासिस्ट प्रोपेगैंडा ने देश के पूरे माहौल को विषाक्त कर दिया है। इसने हमारी राष्ट्रीय एकता तथा composite culture को गम्भीर क्षति पहुंचाई है। इस प्रोपेगैंडा ने एक ऐसा जहरीला डिस्कोर्स बना दिया कि स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे के मूलभूत लोकतांत्रिक मूल्य न सिर्फ पृष्ठभूमि में धकेल दिए गए, बल्कि उनकी बात करने वाले अपराधी बना दिये गए और उनमें से अनेक जेलों में ठूंस दिए गए, अंग्रेज़ों के बनाये निरंकुश कानूनों को तो धड़ल्ले से इस्तेमाल किया ही गया, नए काले कानूनों की भी झड़ी लग गई। पूरे देश में ऐसा भय का माहौल बनाया गया ताकि कोई सरकार के खिलाफ बोलने की, सड़क पर उतरने की हिम्मत न करे।
इस सब की आड़ में दरअसल विभिन्न नीतियों और कदमों द्वारा देश के सारे संसाधनों को, सार्वजनिक संपत्ति को दोनों हाथों से चहेते कारपोरेट घरानों को लुटाने का, निजीकरण का खुला अभियान छेड़ दिया गया। कोरोना काल में ही अम्बानियों-अडानियों की संपत्ति दिन दूना रात चौगुना बढ़ती रही और व्यापक आमजन, श्रमिक, छोटे उत्पादक दरिद्रीकरण की ओर धकेले जाते रहे। करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए, सरकारी नौकरियां खत्म होती जा रही हैं, नौकरियों के अभाव में आरक्षण बेमानी होता जा रहा है। समाज के कमजोर तबकों दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं। संघ-भाजपा के poster-boy योगी आदित्यनाथ के राज में उत्तर प्रदेश इसका सबसे बड़ा गढ़ बन गया है।
वैसे तो जनता के तमाम तबके सरकारी हमले के खिलाफ लगातार लड़ ही रहे थे, पर अब जब कारपोरेट के हित में सरकार ने किसानों पर हमला बोला है, तब इन्हें पिछले 7 साल के अपने निरंकुश शासन की सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। किसानों ने अपनी उपज की वाजिब कीमत के लिए MSP की कानूनी गारण्टी का सकारात्मक एजेंडा सामने रखकर कृषि कानूनों की वापसी की मांग द्वारा सीधे कारपोरेट अर्थतंत्र को चुनौती दी है।
देश मे कोरोना की दूसरी लहर और हरियाणा में बढ़ते टकराव का इस्तेमाल क्या सरकार किसान आंदोलन को निपटाने के लिये करना चाहती है, ठीक वैसे ही जैसे पहली लहर और दिल्ली हिंसा का इस्तेमाल शाहीन बाग आंदोलन के लिए किया गया था ?
स्वास्थ्यमंत्री हर्षवर्धन का बयान कुछ इसी दिशा में इशारा करता है। उन्होंने कोरोना की इस दूसरी लहर की चर्चा करते हुए किसान आंदोलन का जिक्र किया। मजेदार यह है कि उन्होंने कुम्भ का भी जिक्र किया (शायद, असावधानी वश!), पर इसपर फटाफट स्वास्थ्य सचिव की सफाई आ गयी और नीति आयोग के डॉ. पॉल की भी।
यह और भी मज़ेदार है कि हर्षवर्धन को कोरोना के फैलने में पंजाब के निकाय चुनाव की भूमिका तो दिखी पर विधान सभाओं के चुनाव में मोदी, शाह समेत तमाम मेगा रैलियों और रोड शो में कोई समस्या नज़र नहीं आयी।
बहरहाल, किसान नेता सतर्क हैं। हरियाणा सरकार के साथ किसानों के बढ़ते टकराव के मद्देनजर संयुक्त मोर्चा बेहद सावधानी से अपने कार्यक्रम plan कर रहा है। उनकी नीति भाजपा-JJP नेताओं, मंत्रियों के कार्यक्रमों का विरोध करना है, पर शांतिपूर्ण ढंग से ताकि मोदी-खट्टर सरकारों के लिए आंदोलन को किसी भी तरह बदनाम करना तथा हिंसा के किसी जाल में फंसा पाना सम्भव न हो। इसी सतर्क रणनीति के तहत, उन्होंने 14 अप्रैल को खट्टर को छोड़कर अन्य भाजपा नेताओं, मंत्रियों के अम्बेडकर जयंती सम्बन्धी कार्यक्रमों के दौरान कोई विरोध प्रदर्शन न करने का फैसला किया है, ताकि सरकार उनके खिलाफ अम्बेडकर विरोधी, दलित विरोधी होने का आरोप न मढ़ सके।
आने वाले दिन किसान आंदोलन के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण होने जा रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि आंदोलन फिर इन परीक्षाओं से और ताकतवर होकर निकलेगा। इतना तो तय है कि सरकार ने अगर किसी चालबाजी से किसानों को बिना उनकी मांगें माने घर वापस लौटाने की कोशिश की तो उसे इसकी गम्भीर राजनैतिक कीमत चुकानी पड़ेगी।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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