...गले में दिल को लिए चीख़ता है सन्नाटा

ग़ज़ल-1
सड़क पे फैल गया जा-ब-जा है सन्नाटा
घुटा-घुटा सा घरों से उठा है सन्नाटा
बन आई जान पे इंसानियत की क्या आफ़त
गले में दिल को लिए चीख़ता है सन्नाटा
मिलाने आया है हमको हमीं से ये वक्फ़ा
हमारी ओर खुला रास्ता है सन्नाटा
वो इंतज़ाम करेंगे ज़रूर चीख़ों का
कि चैनलों के लिए बेमज़ा है सन्नाटा
यही तो वक़्त है, ख़ुद पर उठाइए उंगली
कोई जो पूछे कि किसकी ख़ता है सन्नाटा
ग़ज़ल-2
किस तरह की भूख का मंज़र नज़र आने लगा
चांद रोटी की जगह बर्गर नज़र आने लगा
दोस्तो! इन बाग़बानों से ज़रा यह पूछ लो
ये गुलिस्तां आज क्यूं बंजर नज़र आने लगा
अब तो हर अख़बार, चैनल, हर गली, हर मोड़ पर
इक मदारी और इक बंदर नज़र आने लगा
लूट लेना जिसकी फ़ितरत है, वही बाज़ार अब
दोस्त बनकर घर के ही अंदर नज़र आने लगा
जिनके क़त्लेआम पर सबकी ज़ुबां ख़ामोश थी
उनको मेरा शे'र ही ख़ंजर नज़र आने लगा
ग़ज़ल-3
हमको सिला वफ़ाओं का अच्छा नहीं मिला
हमने जिसे भी टूट के चाहा, नहीं मिला
ताकतवरों के साथ सभी लोग हो लिए
कमज़ोर आदमी को सहारा नहीं मिला
सत्ता के हिप्नोटिज़्म की सब हैं गिरफ़्त में
उनका फ़रेब तोड़ने वाला नहीं मिला
महंगाई बढ़ रही है दिनोंदिन बुरी तरह
लेकिन किसी भी न्यूज़ में लिक्खा नहीं मिला
मुफ़लिस को राष्ट्रवाद का प्रवचन पिलाइए
किसकी मज़ाल कह दे कि खाना नहीं मिला
इक बेगुनाह भीड़ के हत्थे चढ़ा कि उफ़!
उसको सिवाय मरने के रस्ता नहीं मिला
पानी ही मर गया है नज़र का इसीलिए
दरिया दिलों के बीच से बहता नहीं मिला
हालत बुरी है अर्थ व्यवस्था की इस क़दर
जिनका छिना था काम, दुबारा नहीं मिला
बच्चों के सर पे इतनी उमीदों का बोझ है
जितना कि उनको पीठ पे बस्ता नहीं मिला
सस्ते में अपनी शर्मो हया हमने बेच दी
ख़ुद्दारियों का दाम भी अच्छा नहीं मिला
मज़बूत नींव थी कि इमारत नहीं गिरी
हमको, ख़ुदा का शुक्र है मलबा नहीं मिला
- विवेक भटनागर
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