माना कि राष्ट्रवाद की सब्ज़ी भी चाहिए/ लेकिन हुज़ूर पेट में रोटी भी चाहिए

मथुरा में सहकारिता विभाग में अपर जिला सहकारी अधिकारी और आगरा निवासी संजीव गौतम एक शानदार शायर भी हैं। अभी अयन प्रकाशन से आपका पहला ग़ज़ल संग्रह ‘बुतों की भीड़ में’ प्रकाशित हुआ है। इसके अलावा भी तमाम पत्र-पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। आप ‘सम्यक्’ आगरा अंक तथा ‘अनुभूति’ का सम्पादन भी करते हैं। आज ‘इतवार की कविता’ में आपकी चुनिंदा पांच ग़ज़लें :-
ग़ज़ल
1-
माना कि राष्ट्रवाद की सब्ज़ी भी चाहिए.
लेकिन हुज़ूर पेट में रोटी भी चाहिए.
हमको तो सिर्फ़ रोटियां दे दीजिए हुज़ूर,
हाकिम हैं आप आपको व्हिस्की भी चाहिए.
पूरा का पूरा चाहिए अपना वतन हमें,
पटना भी चाहिए हमें, दिल्ली भी चाहिए.
इंसानियत का ख़ून बहाकर हज़ार बार,
क़ातिल को अब सुना है ख़ुदाई भी चाहिए.
रक्खे हैं तुमने कैद में अम्नो-अमां के जो,
उन सब कबूतरों को रिहाई भी चाहिए.
बेशक ज़रूरतों के भंवर में फंसे हैं हम,
लेकिन हमें सुकून की कश्ती भी चाहिए.
दिन तो मिले हैं धूप में जलते हुए हमें,
अब रात कोई एक सुहानी भी चाहिए.
जिनको खड़ा किया था जिन्होंने क़तार में,
उनको उन्हीं के वोट से कुर्सी भी चाहिए.
तुमको हमारी बात से पहुंचा हो दुख अगर,
ऐसी अगर है बात तो कहनी भी चाहिए.
2-
हमारे साथ ने जिसको करिश्माई बना डाला.
उसी ने हमको आख़िर में तमाशाई बना डाला.
ये सच है मज़हबी हथियार ने सत्ता दिला तो दी,
मगर इसने नयी पीढ़ी को दंगाई बना डाला.
जहां से हम चले थे फिर वहीं आख़िर में जा पहुंचे,
हमारी सोच ने हमको क़बीलाई बना डाला.
चले हो जीतने दुनिया को लेकिन ध्यान में रखना,
समय ने अच्छे अच्छों को इलाक़ाई बना डाला.
दुखी होकर तुम्हारे पास आये थे मगर तुमने,
हमारी ज़िन्दगी को और दुखदाई बना डाला.
हमें भी डाक्टर, इंजीनियर बनने की चाहत थी,
सियासी मर्कज़ों ने हमको हलवाई बना डाला.
अभी भी और कितने ख़्वाब यूं दिन में दिखाओगे,
ये तुमने ज़िन्दगी को भी सिनेमाई बना डाला.
3-
हवा मुफ़ीद हुई तो बदल गए मंज़र.
ख़ुदा हुए हैं वो, सजदे में झुक गए हैं सर.
ज़रा सी आंख लगी शाम को चराग़ों की,
नक़ाबपोश अंधेरों के आ गए लश्कर.
छिड़क दिया है लहू आसमान पर किसने,
चमक रहे हैं हवा में ये कौन से ख़ंजर.
डरा के ख़ूब चराग़ों को आंधियां ख़ुश हैं,
मगर है रोशनी पहले से और भी बेहतर.
ये कैसा दौर है, ये कौन सी मुहब्बत है,
निकल रहे हैं किताबों में तितलियों के पर.
ज़रूर हमसे हुई है ख़ता नहीं तो फिर,
बहार आनी थी कैसे ये आ गया पतझर.
ख़ुदा का नूर हमेशा बरसता था जिससे,
बरस रहे हैं उसी आसमान से पत्थर.
4-
सागर को जब मथा था तो असुरों के साथ थे.
बिल्कुल ग़लत हैं आप कि देवों के साथ थे.
जो आज कह रहे हैं कि हम सबके साथ हैं,
मालूम कल चलेगा कि चोरों के साथ थे.
यूं तो हमारी बेटियां बेटों से कम न थीं,
हम ही थे बदनसीब कि बेटों के साथ थे.
दावा तो उनका था कि वो कश्ती के साथ हैं,
तूफ़ान जब उठा तो वो लहरों के साथ थे.
उनको भी अब ख़िताब मिलेगा सितारे-हिन्द,
जिनका पता है साफ़ कि गोरों के साथ थे.
जब तुम नहीं थे साथ अकेले नहीं थे हम,
कोई नहीं था साथ किताबों के साथ थे.
उस वक़्त जब हमारी उमर नौजवान थी,
उस वक़्त भी विचार बुजुर्गों के साथ थे.
5-
भला अब फ़ायदा क्या है यूं रिश्तों की दुहाई से.
हदें पहले तो तुमने तोड़ डालीं बेहयाई से.
भरोसा मत करो बेशक मगर तुम भाई ही तो हो,
मुझे कैसे खुशी होगी तुम्हारी जगहंसाई से.
वो रूठा भी तो आखि़रकार मुझसे इस तरह रूठा,
कि जैसे रूठ जायें चूड़ियां ज़िन्दा कलाई से.
कभी तो इनकी गर्माहट मिलेगी मेरे अपनों को,
जो रिश्ते बुन रहा हूं मैं, मुहब्बत की सलाई से.
अगर तुम मांगते तो मैं मना कर ही नहीं पाता,
मगर तुम ही बताओ क्या मिला तुमको लड़ाई से.
हवस है तुमको दौलत की, मुबारक हो तुम्हें दौलत,
हमें क्या लेना-देना है, तुम्हारी उस कमाई से.
मई और जून हैं तो धूप के तेवर भी तीखे हैं,
मगर उम्मीद के बादल भी आयेंगे जुलाई से.
- संजीव गौतम
आगरा
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