वो राजा हैं रियासत के, नफ़ा नुकसान देखेंगे/ नियम क़ानून तो उनके बड़े दीवान देखेंगे

ग़ज़ल
वो राजा हैं रियासत के, नफ़ा नुकसान देखेंगे,
नियम क़ानून तो उनके बड़े दीवान देखेंगे.
तुम इतना बोलते क्यों हो, तुम्हारी हैसियत क्या है,
प्रजा के लोग भी राजा में क्या ईमान देखेंगे.
ज़रा दो लाइनें लिख लीं, तो हिम्मत बढ़ गई इतनी,
वज़ीरों में भी अब इंसानियत, इंसान देखेंगे.
सियासत काट देगी आदमी को आदमी से ही,
कभी सोचा नहीं था ऐसा हिंदुस्तान देखेंगे.
यही बर्ताव नदियों से अगर करते रहेंगे हम,
तो पानी की जगह निश्चित है रेगिस्तान देखेंगे.
चलो अच्छा है कोई सोचने को आसरा तो है,
जिन्हें ये आज भी लगता है सब भगवान देखेंगे.
मुनासिब तो यही है मुश्किलों से सीख लें लड़ना
कहीं फंस जाएँगे यदि रास्ता आसान देखेंगे.
समझ लेंगे कि दुनिया में कहीं ईमान बाक़ी है,
किसी बच्चे के होठों पर अगर मुस्कान देखेंगे.
2.
कभी सोचा कहाँ से और ये कैसे निकलते हैं,
जो नफ़रत की सियाही से लिखे परचे निकलते हैं.
जो सच्चे हैं उन्हें झूठा बना देती है ये दुनिया,
जो झूठे हैं अदालत से भी वो सच्चे निकलते हैं.
ये आलम है कि अब कोई नमस्ते भी नहीं करता,
गली से जब मोहल्ले के बड़े बूढ़े निकलते हैं.
ये चूहेदानियाँ आखिर यहाँ किस काम आएँगी,
जहाँ बिल्ली दबा के दांतों में चूहे निकलते हैं.
वो काला हो कि पीला हो, हरा हो या कि नीला हो,
सियासी टोपियों के रंग सब कच्चे निकलते हैं.
सड़क सब एक जैसी हैं, सदर हो या सिविल लाइन,
जहाँ भी पाँव रखता हूँ वहाँ गड्ढे निकलते हैं.
ग़ज़ल की ख़ामियों पर हम ज़रा सा बोल क्या बैठे,
जो अच्छे दोस्त थे वो आजकल बचके निकलते हैं.
तअज्जुब है कि जिस डाली पे खिलते हैं महज़ दो फूल,
उसी डाली पे कितने देखिये काँटे निकलते है.
विदेशों में चले जाते हैं, क्यों अक्सर, ये सोचा है,
हमारे देश के बच्चे जो पढ़ लिख के निकलते हैं.
बड़े मायूस हो कर लौटते हैं शाम को अक्सर,
बड़ी उम्मीद लेकर रोज़ हम घर से निकलते हैं.
तुम्हारी बाँह थामी और हम चलते चले आये,
नहीं मालूम था हमको कहाँ रस्ते निकलते हैं.
- अशोक रावत
आगरा
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