काज़ी नज़रूल इस्लाम: ...अगर तुम राधा होते श्याम

होली के रंग फ़ज़ाओं में हैं। और बात जब होली की हो तो बृज याद आता है और याद आते हैं कृष्ण कन्हैया। और जब कृष्ण याद आते हैं तो याद आतीं ही राधा रानी, मीरा दीवानी। और याद आते हैं सूर, रसखान और नज़रूल इस्लाम। जी हां, आज़ादी और क्रांति के कवि नज़रूल इस्लाम कृष्ण के प्रेम में दीवाने थे। नज़रूल आज एक और वजह से भी बार-बार ज़ुबान पर आते हैं वो है बंगाल चुनाव। जी हां, कवि, संगीतकार, स्वतंत्रता सेनानी पद्म भूषण नज़रूल बंगाल की अन्यतम पहचान हैं। 1899 में बंगाल के वर्धमान ज़िले के चुरुलिया गांव में जन्में नज़रूल हिन्दू-मुस्लिम एकता और भाईचारा की वह पहचान जिसे आज चुनाव जीतने के लिए छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया जा रहा है। आइए ‘इतवार की कविता’ में पढ़ते हैं नज़रूल की अलग-अलग रंग की कविताएं।
कृष्ण कन्हईया आयो मन में मोहन मुरली बजाओ
कृष्ण कन्हईया आयो मन में मोहन मुरली बजाओ।
कान्ति अनुपम नील पद्मसम सुन्दर रूप दिखाओ।
सुनाओ सुमधूर नुपूर गुंजन
“राधा, राधा” करि फिर फिर वन वन
प्रेम-कुंज में फूलसेज पर मोहन रास रचाओ;
मोहन मुरली बजाओ।
राधा नाम लिखे अंग अंग में,
वृन्दावन में फिरो गोपी-संग में,
पहरो गले वनफूल की माला प्रेम का गीत सुनाओ,
मोहन मुरली बजाओ।
अगर तुम राधा होते श्याम
अगर तुम राधा होते श्याम।
मेरी तरह बस आठों पहर तुम,
रटते श्याम का नाम।।
वन-फूल की माला निराली
वन जाति नागन काली
कृष्ण प्रेम की भीख मांगने
आते लाख जनम।
तुम, आते इस बृजधाम।।
चुपके चुपके तुमरे हिरदय में
बसता बंसीवाला;
और, धीरे धारे उसकी धुन से
बढ़ती मन की ज्वाला।
पनघट में नैन बिछाए तुम,
रहते आस लगाए
और, काले के संग प्रीत लगाकर
हो जाते बदनाम।।
आज बन-उपवन में चंचल मेरे मन में
आज बन-उपवन में चंचल मेरे मन में
मोहन मुरलीधारी कुंज कुंज फिरे श्याम
सुनो मोहन नुपूर गूँजत है
बाजे मुरली बोले राधा नाम
कुंज कुंज फिरे श्याम
बोले बाँसुरी आओ श्याम-पियारी,
ढुँढ़त है श्याम-बिहारी,
बनमाला सब चंचल उड़ावे अंचल,
कोयल सखी गावे साथ गुणधाम कुंज कुंज श्याम
फूल कली भोले घुँघट खोले
पिया के मिलन कि प्रेम की बोली बोले,
पवन पिया लेके सुन्दर सौरभ,
हँसत यमुना सखी दिवस-याम कुंज कुंज फिरे श्याम
साम्यवादी
गाता हूँ साम्यता का गान
जहाँ आकर एक हो गए सब बाधा - व्यवधान
जहाँ मिल रहे हैं हिन्दू - बौद्ध - मुस्लिम - ईसाई
गाता हूँ साम्यता का गान !
तुम कौन? पारसी? जैन? यहूदी? संथाली, भील, गारो?
कनफ्यूसियस? चार्वाक के चेले? कहते जाओ, कहो और !
बन्धु, जितने ख़ुश हो जाओ,
पेट, पीठ, कान्धे, मगज में जो मर्ज़ी पाण्डुलिपि व किताब ढोओ,
कुरआन - पुराण - वेद - वेदान्त - बाइबिल - त्रिपिटक
जेंदावेस्ता - ग्रन्थसाहिब पढ़ते जाओ, जितनी मर्ज़ी
किन्तु क्यूँ ये व्यर्थ परिश्रम, मगज में हनते हो शूल?
दुकान में क्यूँ ये दर मोल-भाव? पथ में खिलते ताज़ा फूल !
तुममें है सभी किताब सभी काल का ज्ञान,
सभी शास्त्र ढूँढ़ सकोगे सखा, खोलकर देखो निज प्राण !
तुममे है सभी धर्म, सभी युगावतार,
तुम्हारा हृदय विश्व -देवालय सभी देवताओं का।
क्यूँ ढूँढ़ते फिरते हो देवता-ठाकुर मृत पाण्डुलिपि - कंकाल में?
हँसते हैं वो अमृत हिया के निभृत अंतराल में !
बन्धु, नहीं कहा झूठ,
यहाँ आकर लूट जाते हैं सभी राजमुकुट।
यह हृदय ही है वह नीलांचल, काशी, मथुरा, वृन्दावन,
बोधगया यही, जेरूसलम यही, मदीना, काबा भवन,
मस्जिद यही, मन्दिर यही, गिरिजा यही हृदय,
यहीं बैठ ईसा मूसा ने पाया सत्य का परिचय।
इसी रणभूमि में बाँसुरी के किशोर ने गाई महा-गीता,
इसी मैदान में भेड़ों का चरवाहा हुआ नबी खुदा का मीता।
इसी हृदय के ध्यान गुफ़ा में बैठ शाक्यमुनि
त्यागा राज्य मानव के महा-वेदना की पुकार सुनि।
इसी कन्दरा में अरब-दुलाल सुनते थे आह्वान,
यहीं बैठ गाया उन्होंने कुरआन का साम-गान।
मिथ्या नहीं सुना भाई,
इस हृदय से बड़ा कोई मन्दिर - काबा नाहीं।
मूल बंगला से अनुवाद : सुलोचना वर्मा
साभार : कविता कोश
कौन लोग
मनुष्य से घृणा कर के
कौन लोग
कुरान, वेद, बाइबल
चूम रहे हैं बेतहाशा
किताबें और ग्रन्थ छीन लो
जबरन उनसे
मनुष्य को मार कर ग्रन्थ पूज रहा ढोंगियों का दल
सुनो मूर्खों,
मनुष्य ही लाया है ग्रन्थ
ग्रन्थ नहीं लाया मनुष्य को!
- काज़ी नज़रुल इस्लाम
(25 मई 1899- 27 अगस्त 1976)
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