सुप्रीम कोर्ट ने बिल्क़ीस मामले में 11 दोषियों की 'चुनिंदा रिहाई' पर उठाया सवाल

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को 2022 के गोधरा दंगों के दौरान बिल्कीस बानो के साथ सामूहिक बलात्कार करने वाले 11 दोषियों की समयपूर्व रिहाई में गुजरात सरकार की "चुनिंदा" छूट की नीति पर सवाल उठाया है और चेतावनी दी कि यह "कमजोर आधार" पर लिया गया निर्णय है।
न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना ने पिछले साल स्वतंत्रता दिवस के मौके पर, बिल्कीस बानो के साथ बलात्कार करने और उसके परिवार की हत्या करने वाले लोगों की असामयिक रिहाई पर कई याचिकाओं की सुनवाई करते हुए पूछा कि “छूट की नीति को चुनिंदा तरीके से क्यों लागू किया जा रहा है और यह कानून जेल में कैद अन्य क़ैदियों पर कितना लागू किया जा रहा है? हमारी जेलें खचाखच क्यों भरी हुई हैं? विशेष रूप से विचाराधीन कैदियों की इतनी बड़ी संख्या क्यों है?”
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस नागरत्ना और उज्जल भुइयां की पीठ ने यह सवाल तब पूछा जब गुजरात सरकार ने 11 लोगों की रिहाई का समर्थन करते हुए सवाल उठाया कि क्या जघन्य अपराध के दोषी व्यक्ति को खुद को सुधारने का मौका नहीं दिया जाना चाहिए।
राज्य सरकार की ओर से पेश होने वाले अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) एसवी राजू ने पूछा कि "छूट का उद्देश्य क्या है? क्या माफ़ी का उद्देश्य सज़ा है? सवाल ये है कि क्या जघन्य अपराध करने से दोषी को इसका लाभ नहीं मिलना चाहिए, भले ही दोषी ने खुद को सुधार लिया हो, पश्चाताप किया हो और फिर से नई जिंदगी शुरू करना चाहता हो? क्या अतीत हमेशा उसके सिर पर मंडराता रहना चाहिए? क्या आने वाले समय में भी दोषियों की निंदा जारी रहनी चाहिए?”
जब एएसजी ने तर्क दिया कि 14 या अधिक वर्षों का कठोर कारावास पर्याप्त निवारक है और "जिस अपराध के लिए मौत की सजा हो और अदालत उस अपराध के लिए आजीवन कारावास की सजा दे, तो यह इस बात का संकेत है कि अदालत उस अपराध को इतना जघन्य अपराध और दुर्लभतम से भी दुर्लभ अपराध नहीं मानती है।" फिर न्यायमूर्ति नागरत्ना ने स्पष्ट किया, "इस अपराध को जघन्यतम माना गया था लेकिन दुर्लभ से दुर्लभतम नहीं।"
गुजरात सरकार ने किया छूट का समर्थन
यह तर्क देते हुए कि, जब किसी दोषी को मौत की सजा इसलिए नहीं दी गई कि अदालत की नज़रों में मामला 'दुर्लभ से दुर्लभतम' नहीं है तो इसका मतलब दोषी में सुधार की गुंजाइश है, राजू ने आगे तर्क दिया कि, "जब मामला दुर्लभ से दुर्लभतम तो नहीं है, निश्चित रूप से एक दोषी को खुद को सुधारने का मौका दिया जाना चाहिए। हो सकता है कि उन्होंने जो अपराध किया हो, लेकिन बाद में उन्हें उनके परिणामों का एहसास हुआ हो।'
समय से पहले रिहाई का समर्थन करते हुए, एएसजी ने आगे तर्क दिया कि, "क्या दोषी को अंजाम का एहसास हुआ है या नहीं, यह जेल में उनके आचरण के आधार पर निर्धारित किया जा सकता है या जब उन्हें पैरोल या फर्लो पर रिहा किया जाता है - ये सभी कारक बताते हैं कि दोषी को अब एहसास हो गया है कि उन्होंने जो किया था वह गलत था।”
यह कहते हुए कि "कानून यह नहीं कहता है कि हर दोषी को फांसी दी जानी चाहिए या हमेशा के लिए दंडित किया जाना चाहिए।" राजू ने जोर देकर कहा, "कानून सबसे कठोर अपराधी को भी खुद को सुधारने का मौका देने की बात करता है।"
नागरत्ना ने हस्तक्षेप करते हुए पूछा, “यह कानून जेल में कैदियों पर कितना लागू हो रहा है? हमारी जेलें अत्यधिक भीड़भाड़ वाली क्यों हैं- विशेषकर विचाराधीन कैदियों से क्यों भरी हुई हैं? छूट की नीति चुनिंदा तरीके से क्यों लागू की जा रही है?”
यह स्वीकार करते हुए कि उनके लिए इसका जवाब देना मुश्किल है, राजू ने कहा कि, “किसी मामले के तथ्यों के आधार पर, मैं जवाब देने में सक्षम हो सकता हूं। आपके पास आंकड़े होने चाहिए, राज्यवार आंकड़े। प्रत्येक कैदी को सुधार का अवसर दिया जाना चाहिए। सिर्फ कुछ कैदियों को ही नहीं। मुझे बताया गया है कि यह मामला दूसरी अदालत में चल रहा है [न्यायाधीश संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ में]। कुछ दिशानिर्देश तैयार किये जा रहे हैं। इनका जवाब सभी राज्य देने जा रहे हैं।”
जब वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ लूथरा ने कहा कि, जैसे ही एक दोषी 14 साल पूरे कर लेता है, उसे "समय से पहले रिहाई के लिए अपना मामला साबित करना होता है।" न्यायमूर्ति नागरत्ना ने फिर पूछा, "लेकिन उन मामलों में छूट नीति कितनी लागू की जा रही है जहां दोषियों ने 14 साल पूरे कर लिए हैं? क्या ऐसे सभी मामलों में छूट की नीति लागू की जा रही है, निश्चित रूप से, क्या यह उनकी पात्रता के आधार पर तय की जा रही है?”
प्रसिद्ध रुदुल शाह मामले के संदर्भ में अपनी बात को स्पष्ट करते हुए, जिसमें एक कैदी द्वारा मुआवजे की मांग करते हुए एक रिट याचिका दायर की गई थी, जो अपनी पत्नी की हत्या के मामले में ट्रायल कोर्ट द्वारा बरी किए जाने के बावजूद 14 साल से अधिक समय तक अवैध रूप से जेल में बंद था। नागरत्ना ने कहा, “दूसरी ओर, आपके पास रुदुल शाह जैसे मामले हैं। बरी होने के बावजूद वह जेल में ही रहे। इस किस्म के मामले- इस तरफ और उस तरफ, दोनों तरफ हैं।"
छूट नीति
राजू ने तर्क दिया कि जिस अदालत ने 11 लोगों को दोषी ठहराया था और जिसने उनकी दोषसिद्धि और सजा की पुष्टि की थी, वह छूट नीति से अवगत थी जो अन्य मानदंडों को पूरा करने के बाद दोषियों की समयपूर्व रिहाई की अनुमति देती है।
“अदालतों के विचार को फैसले की सामग्री और दिए गए सज़ा के संदर्भ में भी समझा जाना चाहिए। तथ्य यह है कि अदालतों ने अधिक कठोर कारावास की सजा नहीं दी, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अदालत ने इसे संभव माना था, और मेरे प्रस्तुतीकरण के हिसाब से भी, निश्चित रूप से अदालत का यह विचार था कि दोषियों को 1992 की नीति से लाभ मिलेगा। इससे अदालतों के विचार जाहिर होते हैं।”
बेंच को यह समझाने की कोशिश करते हुए उन्होंने कहा कि दोषियों को दी गई समवर्ती सजा (कनकरेंट सेंटेंस) उन्हें छूट नीति का लाभ मिलने पर अदालत के दृष्टिकोण के बारे में बताती है। उन्होंने आगे कहा, “सामान्य नियम एक समवर्ती सजा है, लेकिन अदालतें कंजेक्यूटिव सेंटेंस देने के लिए जानी जाती हैं। इसलिए, अदालत इस तथ्य से इतनी प्रभावित नहीं थी कि ये अपराध इतने जघन्य थे कि उन्हें कंजेक्यूटिव सेंटेंस देने की जरूरत थी।
हालांकि, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने फिर से हस्तक्षेप किया और कहा कि, “इस मामले में, मृत्युदंड के बाद सबसे अधिक सज़ा दी गई है। जब आजीवन कारावास की सजा दी जाती है, तो यह समवर्ती होनी चाहिए। यह कंजेक्यूटिव सेंटेंस नहीं हो सकता क्योंकि जीवन तो एक ही है…”
जब राजू ने कहा कि "अदालत कह सकती थी कि पहली सजा में छूट के बाद दूसरी सजा जारी रहेगी, लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं किया गया।" न्यायमूर्ति नागरत्ना ने पूछा, "तो, आप कह रहे हैं कि चूंकि कोई अवधि तय नहीं की गई थी और उनकी सज़ा बिना किसी योग्यता के केवल आजीवन कारावास की थी, वस्तुतः उन्हें 14 साल बाद बाहर आने का अधिकार है?”
एएसजी ने अपनी बात को और समझाने की कोशिश की। “नीति के कारण, उनकी दलील पर विचार किए जाने का अधिकार है। और यदि राय अनुकूल है, तो उन्हें राज्य के विवेक पर रिहा किया जाएगा। मुद्दा यह है कि क्या राज्य ने अपने विवेक का सही ढंग से प्रयोग किया है?”
यह कहते हुए कि गुजरात सरकार ने छूट देते समय कानून के तहत सभी आवश्यकताओं का अनुपालन किया है, राजू ने कहा कि राज्य शीर्ष अदालत द्वारा जारी विशिष्ट परमादेश के संचालन के कारण पूरे गुजरात में 1992 में लागू छूट नीति का पालन करने के लिए "कर्तव्यबद्ध" थी जिसे राधेश्याम शाह (2022) मामले में, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि छूट के आवेदन पर उस नीति के अनुसार गुजरात सरकार द्वारा निर्णय लिया जाना था।
यह तर्क देते हुए कि न्यायमूर्ति नागरत्ना की अध्यक्षता वाली पीठ उनके निष्कर्ष से असहमत है, राजू ने कहा कि इसका परिणाम आदेश को उलटना नहीं होगा। “इसे परिणामी कार्यवाही में उलटा नहीं किया जा सकता है। सही हो या गलत, ऐसे आदेश को केवल अपील, समीक्षा या वापस लेने पर ही पलटा जा सकता है। असहमति से उलटफेर का असर नहीं होगा। इसका प्रभाव भविष्य में पड़ेगा और इसका इस्तेमाल किया जाएगा, और इसे एक लपरवाही माना जाएगा। या फिर इसे एक बड़ी बेंच द्वारा ही पलटा जा सकता है। एक निर्णय जिसे खारिज कर दिया गया है लेकिन उलटा नहीं किया गया है वह अभी भी पार्टियों पर बाध्यकारी है।
राजू ने यह भी कहा कि याचिकाकर्ताओं के लिए यह तर्क देना कि "बहुत देर हो चुकी है" कि 1992 की नीति के बजाय 2014 में गुजरात सरकार द्वारा अधिसूचित छूट नीति लागू होनी चाहिए, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने लागू माना है। "कि उनकी बस छूट गई है ठीक बात नहीं है।"
पीठासीन न्यायाधीश की राय
प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख एसके मिश्रा के 2021 के कॉमन कॉज फैसले में अदालत द्वारा जारी आदेश का अनुपालन न करने पर एक्सटेंशन के मामले में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले का सहारा लेते हुए एएसजी ने कहा, "यदि किसी विशिष्ट आदेश को कानून द्वारा पलटा नहीं जा सकता है, तो निश्चित रूप से इसे इस अदालत के फैसले से भी नहीं पलटा जा सकता है।"
राजू ने कहा कि गुजरात सरकार ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 432 की उप-धारा (2) के तहत न्यायिक राय लेने की जरूरत का भी अनुपालन किया है। उन्होंने तर्क दिया कि 11 दोषियों की समयपूर्व रिहाई को मंजूरी देने वाली जेल सलाहकार समिति के सदस्य, गोधरा के जिला न्यायाधीश की सकारात्मक राय इसका "पर्याप्त अनुपालन" थी।
"इस मामले में, दोषसिद्धि का आदेश पारित करने वाले सत्र न्यायाधीश सेवानिवृत्त हो गए हैं। यहां तक कि दोषसिद्धि की पुष्टि करने वाले उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीश भी सेवानिवृत्त हो गए हैं।"
हालांकि, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने बताया कि धारा के तहत विशिष्ट मामले की बात नहीं की जा रही है, बल्कि अदालत के पीठासीन न्यायाधीश की राय मांगी गई थी। “संस्था बनी हुई है। यह धारा कहती है कि मामले की नहीं, बल्कि अदालत के पीठासीन न्यायाधीश की राय पर विचार किया जाना चाहिए। हर तीन साल में जजों का तबादला कर दिया जाता है।”
गुजरात सरकार का निर्णय 'जोख़िम भरा' और कमजोर बुनियाद पर आधारित है
जब राजू ने तर्क दिया कि मामले की प्रकृति के कारण, सीबीआई से परामर्श करने की आवश्यकता नहीं है, जिसने इस मामले की जांच अपने हाथ में ले ली थी, तो न्यायमूर्ति नागरत्ना ने चेतावनी दी, “सभी ने कहा और किया, इसकी जांच सीबीआई द्वारा की गई थी। इसमें कोई विवाद नहीं है। आप कमजोर बुनियाद पर हैं। इस बात पर चर्चा करना कि क्या सीबीआई से परामर्श लेने की जरूरत है या नहीं, यह अकादमिक है। परामर्श हुआ...एजेंसी ने क्या राय दी?”
तब राजू ने बताया कि सीबीआई ने नकारात्मक राय दी थी, तो न्यायमूर्ति नागरत्ना ने पूछा, "सभी मामलों में?" राजू ने उत्तर दिया, "हां" लेकिन तर्क दिया कि सीबीआई की राय से पता चलता है कि "दिमाग का कोई इस्तेमाल नहीं किया गया।" वे सिर्फ तथ्य बताते हैं। अपराध को जघन्य बताने के अलावा कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है। इसीलिए, मेरा पहला निवेदन जिसके बारे में माननीय न्यायाधीश आपने कहा कि 'मैं कमजोर बुनियाद पर हूं', यह प्रासंगिक है। मुंबई के एक अधिकारी को जमीनी हकीकत की जानकारी नहीं है।
जब न्यायमूर्ति भुइयां ने पूछा कि, "आपको जमीनी हकीकत के बारे में कैसे पता चलेगा?" राजू ने तर्क दिया कि पुलिस अधिकारी या न्यायाधीश अपने अधिकार क्षेत्र के मामलों के संबंध में सबसे अधिक सक्षम होते हैं।
हालांकि, न्यायमूर्ति नागरत्ना ने बताया कि स्वतंत्र और निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए कार्यवाही को गुजरात से बाहर स्थानांतरित करते समय अधिकार क्षेत्र के विचार को प्राथमिकता नहीं दी गई थी। “मामले की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखें। मुकदमे को अधिकार क्षेत्र से बाहर दूसरे राज्य में भेज दिया गया था।”
अगली सुनवाई 24 अगस्त को होगी।
मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित रिपोर्ट को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
SC Questions ‘Selective Remission’ for 11 Bilkis Bano Convicts
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