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परमाणु ऊर्जा बिल: नाम शांति और काम अशांति!

यह विधेयक इसका प्रावधान करता है कि नाभिकीय दुर्घटना भले ही किसी आपूर्तिकर्ता के दोषपूर्ण उपकरण बेचने की वजह से हुई हो, इसकी जवाबदेही सिर्फ और सिर्फ नाभिकीय संयंत्र के मालिक पर आयेगी।
SHANTI BILL
तस्वीर गूगल से साभार

 

मोदी सरकार जो एक नया विधेयक लायी है, सस्टेनेबल हार्नेसिंंग एंड एडवांसमेंट ऑफ न्यूक्लिअर इनर्जी फॉर ट्रान्सफोर्मिंग इंडिया (शांति बिल, 2025), जिस पर शीतकालीन सत्र में संसद के दोनों सदनों ने मोहर भी लगा दी, व्यवहार में नाभिकीय संयंत्रों और उपकरणों के आपूर्तिकर्ताओं को खुली छूट दे देता है। 

यह विधेयक इसका प्रावधान करता है कि नाभिकीय दुर्घटना भले ही किसी आपूर्तिकर्ता के दोषपूर्ण उपकरण बेचने की वजह से हुई हो, इसकी जवाबदेही सिर्फ और सिर्फ नाभिकीय संयंत्र के मालिक पर आयेगी। और इस जवाबदेही के लिए भी 30 करोड़ एसडीआर (स्पेशल ड्राइंग राइट्स) यानी वर्तमान मूल्य में 42 करोड़ अमेरिकी डालर की अधिकतम सीमा लगा दी गयी है। 

यह विधेयक निजी कंपनियों को नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में प्रवेश करने की भी इजाजत देता है, जबकि अब तक यह क्षेत्र पूरी तरह से केंद्र सरकार के ही हाथों में था। इस शांति विधेयक के कानून बनने के साथ, हमारे देश में नाभिकीय ऊर्जा गतिविधियों को नियंत्रित करने वाले दोनों कानून, एटमी ऊर्जा कानून-1962 और सिविल लाइबिलिटी फॉर न्यूक्लिअर डैमेज एक्ट, 2010 (सीएलएनडीए) निरस्त हो जाएंगे।

परमाणु सयंत्र आपूर्तिकर्ताओं को जवाबदेही से छूट मिली

अब तक नाभिकीय जवाबदेही के प्रश्नों को संसद का बनाया सीएनएलडीए कानून ही नियंत्रित करता था और इस कानून के आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदेही के प्रावधानों का अमेरिका-परस्त नाभिकीय लॉबी हमेशा से कड़ा विरोध करती आयी थी। लेकिन, भारत में सीएलएनडीए पर संसद में चर्चा भोपाल गैस त्रासदी की 25वीं बरसी की पृष्ठभूमि में हो रही थी। तब तक यह साफ हो चुका था कि भोपाल में यूनियन कार्बाइड कारखाने से निकली मिथाइल आइसो साइनेट (एमआईसी) गैस से हुई हानि, सरकार और अदालतों ने जो अनुमान लगाया था उससे कहीं बहुत ज्यादा थी। 

यह प्रकरण, इस तरह के जोखिमवाले संयंत्रों के मामले में आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदेही के महत्व को भी रेखांकित करता था। भोपाल गैस कांड में, अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन (यूसीसी) ने संयंत्र तथा उपकरणों को डिजाइन किया था और उनकी आपूर्ति की थी और यूनियन कार्बाइड इंडिया लि0 (यूसीआईएल) के 50.9 फीसद शेयर, इस कंपनी के ही पास थे। 

भोपाल गैस कांड के बाद, जो कि दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना थी और चूंकि इस दुर्घटना में यूनियन कार्बाइड  ने अपने मुनाफे को भारतीय जिंदगियों से ज्यादा तरजीह दी थी, जब संसद के सामने सीएनएलडीए का विधेयक विचार के लिए आया, आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदेही का मुद्दा, एक जीवंत राजनीतिक मुद्दा बन चुका था।

उस समय वामपंथ ही था जो इस पर अड़ गया था कि एक ऐसे उद्योग के मामले में, जो यूनियन कार्बाइड के भोपाल कारखाने से भी ज्यादा जोखिम वाला उद्योग है, आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदेही को कमजोर करने की इजाजत नहीं दी जा सकती है। उस समय भाजपा भी इस मुद्दे पर वामपंथ के साथ आ खड़ी हुई थी और तत्कालीन यूपीए सरकार को, जिसे राज्यसभा में बहुमत हासिल नहीं था, इस विधेयक में आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदेही के प्रावधानों को बनाए रखना पड़ा था। 

दूसरी ओर, आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदेही के ये प्रावधान अमेरिकी नाभिकीय उद्योग की नजरों में कुफ्र थे। अमेरिका में यह उद्योग एक काफी कम जवाबदेही वाली व्यवस्था के अंतर्गत काम करता है। दूसरी ओर, रूसी तथा फ्रांसीसी कंपनियां, भारत के इन जवाबदारी प्रावधानों में किसी बदलाव के बिना भी, भारत के लिए नाभिकीय संयंत्रों तथा उपकरणों की आपूर्ति करने के लिए तैयार थीं।

नाभिकीय आपूर्ति अमेरिका की शर्तें

नाभिकीय जवाबदेही के अब तक लागू प्रावधानों के अंतर्गत ही रूस ने कुडमकुलम में हजार-हजार मेगावाट की दो नाभिकीय इकाइयां स्थापित की हैं तथा चालू की हैं। रूसी कंपनी, रोसाटम ने नाभिकीय रिएक्टर की आपूर्ति का जिम्मा संभाला है। फ्रांसीसियों ने जैतापुर में रिएक्टर लगाने का प्रस्ताव किया था, लेकिन यह प्रस्ताव दो कारणों से विफल हो गया। अ) फ्रांसीसी रिएक्टरों की कीमत बहुत ज्यादा थी और इसलिए उनकी बिजली की भी कीमत बहुत ज्यादा पडऩे वाली थी। ब) फ्रांसीसी नाभिकीय कंंपनी, फ्रेमाटम खुद ही संयंत्रों के निर्माण की समय सीमाओं को पूरा करने में और इसके चलते संयंत्रों की और भी बढ़ती कीमतों के चलते खुद ही बैठ गयी। फ्रांस में फ्लेमेनविले और फिनलेंड में ओल्कील्यूटो की उसकी परियोजनाएं बैठ गयीं। करीब-करीब उसी दौर में अमेरिका में, दो अन्य प्रमुख नाभिकीय संयंत्र आपूर्तिकर्ता, वेस्टिंगहाउस और जीई भी लडख़ड़ा रहे थे। वेस्टिंगहाउस के नाभिकीय डिवीजन को तो दीवालिया होने की प्रक्रिया से गुजरना पड़ा और अब उसका अधिग्रहण दो कनाडियन कंपनियों ने कर लिया है, जिन्होंने उसकी पुनर्संरचना कर डाली है। उधर जीई और हिताची के नाभिकीय डिवीजनों का विलय हो चुका है और हिताची जीई वेरोनावा के नाम से यह नयी कंपनी, इस समय नये मोड्युलर रिएक्टरों की पेशकश कर रही है। इन कंपनियों के संकट की कहानी, समय सीमाओं तथा लागतों के बहुत पीछे छूट जाने के संकट की कहानी है। और यह संकट, अमरीकी नाभिकीय आपूर्तिकर्ताओं के पूरे इतिहास में उनके पीछे पड़ा रहा है।

अमरीकी आपूर्तिकर्ताओं और अन्य के बीच एक अंतर यह है कि नाभिकीय दादागीरी के चक्कर में अमेरिका ने नाभिकीय संयंत्रों के मालिकों तथा आपूर्तिकर्ताओं को किसी भी गंभीर जवाबदेही से बरी ही किए रखा है। ऐसा तो नहीं है कि अमेरिका में नाभिकीय उद्योग नियंत्रण-विहीन ही हो, लेकिन अमरीकी नाभिकीय नियंत्रण, संयंत्रों के सुरक्षा उपायों की निगरानी करने के बजाए, लाइसेंसिंग तथा डिजाइन संबंधी अनुमतियों पर ही केंद्रित रहा है। किसी दुर्घटना या नुकसान की सूरत में अमरीकी आपूर्तिकर्ता सुरक्षित ही बने रहेंगे क्योंकि उनकी जवाबदेहियां सीमित ही हैं और बाकी सारी की सारी जिम्मेदारियां प्राइस एंडर्सन कानून के तहत, ज्यादातर तो अमरीकी सरकार पर ही आती हैं।

देशी-विदेशी निजी क्षेत्र के लिए

2005 में भारत-अमेरिका नाभिकीय डील होने, 123 एग्रीमेंट पर दस्तखत होने की पृष्ठभूमि में (यह समझौता अमेरिकी एटमी ऊर्जा कानून की धारा-123 के अंतर्गत हुआ था) भारत पर इसके लिए दबाव डाला जाने लगा कि वह अमेरिका के नाभिकीय रिएक्टर खरीदे और आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदेही को या तो सीमित कर दे या उससे छूट ही दे दे। लेकिन, सीएलएनडीए कानून में आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदेही के स्पष्टï प्रावधान मौजूद थे। इसके अलावा 1986 के दिल्ली के ओलियम गैस रिसाव केस में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में भारतीय कानून के अंतर्गत सभी जोखिमवाले उद्योगों के मामले में पूर्ण जवाबदेही का सिद्धांत स्थापित कर दिया गया था। इन दोनों के तहत, नाभिकीय संयंत्रों के मामले में आपूर्तिकर्ताओं की जवाबदेही की व्यवस्था मौजूद थी और इसके  प्रावधान नाभिकीय संंयंत्रों तथा उपकरणों के आपूर्तिकर्ताओं पर लागू होते थे।

इसी पृष्ठभूमि में शांति विधेयक लाया गया है, जिसके दो लक्ष्य हैं। पहला, निजी खिलाडिय़ों को, संभवत: अडानी तथा टाटा समूहों को, इस क्षेत्र में लाना, जो अब तक सरकार के स्वामित्ववाली न्यूक्लिअर पॉवर कारपोरेशन ऑफ इंडिया लि0 (एनपीसीआइएल) के ही हाथों में रहा है। पिछले 60 साल में एटमी ऊर्जा विभाग/एनपीसीआइएल ने सात नाभिकीय संयंत्रों में फैली 25 इकाइयों में, 8,780 मेगावाट की कुल क्षमता स्थापित की है। इसलिए, बाहर से नाभिकीय संयंत्रों के आयात का रास्ता खोलना, नाभिकीय क्षेत्र में अपनी गतिविधियां शुरू करने में निजी खिलाडिय़ों की मदद करने के लिए भी हो सकता है।

दूसरा लक्ष्य संभवत: अमेरिका से नाभिकीय संयंत्रों का आयात करना ही है, ताकि ट्रंप प्रशासन का रुख भारत के प्रति अनुकूल किया जा सके। यहां हम ट्रंप के साथ समझौते की वार्ताओं के मुद्दे में नहीं जाएंगे, जबकि वह तो किसी समझौते तक पहुंचने में ही असमर्थ नजर आता है। इसके बजाए यहां मैं दो अन्य प्रश्नों की  चर्चा करुंगा: 1) क्या आज अमेरिकी कंपनियां नाभिकीय संयंत्रों की आपूर्ति करने की स्थिति में हैं भी; और 2) अगर ऐसे संयंत्र कामयाबी के साथ लग भी जाते हैं, तब भी क्या उनकी बिजली की कीमतें एनरॉन की गाथा की पुनरावृत्ति ही नहीं करा रही होंगी?

अमेरिकी नाभिकीय आपूर्तियों की चुनौतियां

पहले अमेरिका नाभिकीय उद्योग और उसके समय सीमा तथा तय लागतों में काम पूरा करने के रिकार्ड को ही ले लेते हैं। अमरीकी नाभिकीय उद्योग– मुख्यत: जनरल इलैक्ट्रिक तथा वेस्टिंगहाउस– का यह तर्क रहा है कि नाभिकीय संयंत्रों का आकार बढ़ाने से, बड़े पैमाने का लाभ हासिल होता है। जैसे-जैसे संयंत्र का आकार बढ़ता है, वैसे-वैसे प्रति मेगावाट लागत घटती है और इसलिए बिजली की कीमत भी कम हो जाती है। लेकिन, होता यह है कि संयंत्र का आकार बढऩे के साथ, उसके निर्माण में लगने वाले समय और लागत में अनुमान से ज्यादा बढ़ोतरी हो जाती है। अमेरिका में वेस्टिंगहाउस ने वोग्टल संयंत्र में जार्जिया पॉवर को दो नाभिकीय रिएक्टरों की जो आखिरी आपूर्ति की थी, सात साल की देरी से हो रही थी। इन रिएक्टरों की कीमत करीब 37 अरब डालर आयी थी, 14 अरब डालर के मूल अनुमान से दोगुनी से भी ज्यादा।

वोग्टल संयंत्र के निर्माण में समय और कीमत के अनुमान से बहुत ज्यादा बैठने ने ही वेस्टिंगहाउस के नाभिकीय डिवीजन को दीवालियापन में धकेल दिया और दो कनेडियाई कंपनियों ने उसका अधिग्रहण कर लिया—सेमेको, जो कि एक नाभिकीय ईंधन कंपनी है और ब्रुकफील्ड रिन्यूएबल्स, जोकि एक नवीकरणीय ऊर्जा कंपनी है। वेस्टिंगहाउस का मौलिक एपी300 स्मॉल मोड्यूलर रिएक्टर (एसएमआर) अब इन दो कनेडियन कंपनियों की ही मिल्कियत है, जिन्हें नाभिकीय ऊर्जा के क्षेत्र में कोई अनुभव है ही नहीं। दूसरा अमेरिकी एसएमआर जो इस समय चल रहा है, जीई वेर्नोवा हिताची न्यूक्लिअर इनर्जी बीडब्ल्यूआरएक्स-300 है और यह भी एक अप्रमाणित डिजाइन का रिएक्टर है। जीई के नाभिकीय डिवीजन और हिताची ने विलय कर, साझेदारी में कंपनी बनायी है और अपने नाभिकीय संसाधनों को एकजुट किया है। उनके पहले संयंत्र का निर्माण 2025 की मई में ओंटोरियो, कनाडा में शुरू हुआ था। 

फिलहाल हम किसी भी तरह से यह नहीं कह सकते हैं कि यह एक भिन्न जीई साबित होगी या फिर पहले वाली कहानी ही दोहरायी जाएगी और समय तथा लागत के अनुमान से बहुत ज्यादा बैठने की बीमारी इस परियोजना का भी पीछा करेगी। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि अमेरिका, रूस से तेल खरीदने के लिए भारत को तो बहुत भला-बुरा कहता है, लेकिन वह खुद अपने नाभिकीय रिएक्टरों के लिए यूरेनियम ईंधन के लिए रूस पर बहुत ज्यादा निर्भर है और वह रूसी, रोसाटम से करीब 1 अरब डालर के संवद्र्घित यूरेनियम का आयात करता है।

अमेरिकी एसएमआर रिएक्टरों का मुद्दा

अमेरिकी एसएमआर का तीसरा आपूर्तिकर्ता हॉल्टेक है, जिसने शुरूआत तो नाभिकीय कचरे के भंडारण से की थी। बाद में वह नाभिकीय संयंत्रों को बंद करने तथा तोडऩे के काम में आ गया और फिर वह नाभिकीय संंयंत्रों को तोड़ने के बाद, रेडियोधर्मी सामग्री के भंडारण में आ गया। इसका एक भारतीय कनेक्शन भी है। इसके संस्थापक, केपी सिंह का  जन्म पटना में हुआ था, उसने धनबाद से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की थी और यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वानिया से पीएचडी हासिल की थी। बाद में उसने हॉल्टेक की स्थापना की। इन रिएक्टरों की आपूर्ति करने वाली दो अन्य कंपनियों से भिन्न, हॉल्टेक को किसी भी आकार  के नाभिकीय संयंत्रों को डिजाइन करने तथा उनका निर्माण करने का कोई अनुभव ही नहीं है। बहरहाल, अब जबकि अमेरिका ने भारत के लिए नाभिकीय रिएक्टरों के निर्यात की इजाजत दे दी है, अमेरिका निर्मित एसएमआर की आपूर्ति की दौड़ में यही सबसे आगे नजर आता है।

इन अमेरिकी नाभिकीय आपूर्तिकर्ताओं में से किसी ने भी अब तक दुनिया में कहीं भी न तो एक भी एसएमआर की आपूर्ति की है और न कहीं कोई रिएक्टर चालू किया है। वास्तव में अब तक तो दो ही एसएमआर काम कर रहे हैं। पहला, एक तैरता हुआ एसएमआर है जो रूस के सुदूर पूर्व में, पेवेक में बनाया गया है और एक दूर-दराज के इलाके में बिजली की आपूर्ति में मदद करने के लिए है। दूसरा, 210 मेगावाट का एक डिमान्स्ट्रेशन प्रोजेक्ट है, जो चीन के शानडोंग प्रांत में शिडाओवान खाड़ी में बनाया गया है। एक तीसरा प्रोजेक्ट अर्जेंटीना में निर्माणाधीन है, सीएआरईएम एसएमआर; और यह भी अपने 25 मेगावाट के पायलट प्रोजैक्ट के मामले में समय सीमा तथा लागत के, अनुमानों को गंभीर रूप से लांघ जाने की समस्याओं से जूझ रहा है। जहां पहले वाला स्पष्ट रूप से एसएमआर की एक भौगोलिक आवश्यकता का मामला है, चीनी और अर्जेंटीनियाई परियोजनाएं तो नाभिकीय रिएक्टरों के आकार को घटाने का ही तजुर्बा लगती हैं। अब तक तो इन सब के नतीजे खास अच्छे नहीं हैं। 

पिछले साल, इंस्टीट्यूट फॉर इनर्जी इकॉनमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आइईईएफए) की रिपोर्ट में, एसएमआर रिएक्टरों की स्थिति की जो समीक्षा की गयी थी, यही दिखाती है कि अमेरिका के एसएमआर रिएक्टर भी, बार-बार समय सीमा तथा लागत के अनुमानों के लांघे जाने की, अमरीकी नाभिकीय उद्योग की जानी-पहचानी समस्या को ही दोहराते नजर आते हैं।

प्रमाणित घरेलू क्षमता छोड़ आयात के पीछे क्यों?

बेशक, ऐसे देश भी हैं जो नाभिकीय संयंत्र बनाने में सक्षम हैं। ये हैं—रूस, चीन, दक्षिण कोरिया और भारत। भारत जब पूरी तरह से स्वदेशी डिजाइनों तथा आपूर्तिकर्ताओं के बल पर, अपने मौलिक केंडू प्रेशराइज्ड वाटर रिएक्टरों को 220 मेगावाट से बढ़ाकर 700 मेगावाट तक करने की घरेलू क्षमता हासिल कर चुका है, तो इसका कोई तकनीकी-आर्थिक कारण बनता ही नहीं है कि वह अपनी इस क्षमता का परित्याग कर दे। अगर हमें अपेक्षाकृत छोटे मोड्यूलर रिएक्टर चाहिए, तो न्यूक्लिअर पॉवर कारपोरेशन व बीएआरसी यह कर सकते हैं और भेल, लार्सन टुब्रो, भारत फोर्ज व भारत हैवी प्लेट्स वेसल्स (जो अब भेल का हिस्सा है) आपूर्तिकर्ताओं के रूप में इस काम को अंजाम दे सकते हैं। हमारे वर्तमान नाभिकीय रिएक्टरों से आगे, आकार को बड़ा या छोटा करने की जरूरतें पूरी करने में ये आपूर्तिकर्ता बखूबी समर्थ हैं। रूसियों से मिले कुडमकुलम संयंत्र में हमारे पास 1000 मेगावाट की इकाइयों की पीडब्ल्यूआर प्रौद्योगिकी भी मौजूद है। इस संयंत्र में दो इकाइयां उच्च उपलब्धता के साथ काम कर रही हैं।

तब हम ऐसी कंपनियों और देशों के पीछे क्यों भाग रहे हैं, जो अब तक नाभिकीय संयंत्र प्रौद्योगिकी में हम से काफी पीछे हैं और जिनका कोई आजमाया हुआ रिकार्ड भी नहीं है? जैसे होल्टेक के एसएमआर के पीछे? बेशक, एक समय था जब अमेरिका के पास उन्नत प्रौद्योगिकी थी, लेकिन वह वक्त कब का निकल  चुका है। जिन लोगों ने अमेरिका के नाभिकीय संयंत्र बनाए थे, उनमें से ज्यादातर या तो इस दुनिया से ही जा चुके हैं या अरसा पहले सेवानिवृत्त हो चुके हैं। 

क्या हम अमेरिकी कंपनियों के साथ वाकई उनकी प्रौद्योगिकी के लिए गठबंधन करना चाहते हैं? या फिर हम ट्रंप की मांगों को पूरा करने के लिए ऐसा करना चाहते हैं, जो चाहे दोस्त हों या दुश्मन, सभी देशों से खिराज वसूल करना चाहता है। और हरेक बदमाश यह जानता है कि जबरिया वसूली का सबसे कारगर तरीका यही है कि पहले आसान निशानों पर चोट की जाए और ऐसा लगता है कि ट्रंप का भी यही ‘‘दर्शन’’ है।

आखिर क्या वजह है कि नाभिकीय उद्योग में अपनी गहरी जड़ों व दशकों की आत्मनिर्भरता के बाद और भारतीय कंपनियों के अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करने और हम आज जहां तक पहुंच चुके हैं, हमें वहां तक लाने के बावजूद, हम अपने देश में अपरीक्षित प्रौद्योगिकी का आयात करना चाहते हैं और वह भी बहुत ऊंचे दाम पर तथा अपनी जनता को जोखिम में डालकर? 

हम एक ऐसे क्षेत्र के लिए जवाबदेही की व्यवस्था को क्यों खत्म करना चाहते हैं, जिस क्षेत्र के संंबंध में सभी यह मानते हैं कि यह खतरे वाला क्षेत्र है? क्या हमने भोपाल गैस त्रासदी से इसका कटु अनुभव नहीं पा लिया है कि जोखिम वाले उद्योगों से किस तरह निपटा जाना चाहिए? 

 

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