क्या सरकार किसान आंदोलन को बलपूवर्क खत्म करने की ओर बढ़ रही है?

आंदोलन के 150 दिन पूरे होने पर संयुक्त किसान मोर्चा ने जो बयान जारी किया है, उसने एक बार फिर साबित किया है कि ऐसे समय जब सरकार ने देश की जनता को मरने के लिए छोड़ दिया है, तब मानव मूल्य अगर कहीं जिंदा हैं तो वह किसान आंदोलन जैसे जनसरोकार के मंच पर ही हैं।
बयान में कहा गया है, " किसान मोर्चे से दिल्ली के अस्पतालों में जायेगा खाना व जरूरी सामान, बॉर्डर्स पर वालेंटियर कर रहे पूरी मदद। किसान मोर्चे के रास्ते मे जो भी ऑक्सिजन या अन्य सेवाएं लेकर वाहन पहुंच रहे है, वालंटियर उन वाहनों को पूरी मदद करके गन्तव्य स्थान पर पहुँचा रहे है। किसानों का यह आंदोलन मानवीय मूल्यों का आदर करता है।"
"हम कोरोना संक्रमण के तकनीकी पक्ष से वाकिफ है परंतु सरकार इसे अपने लिए ढाल न बनाए। कोरोना से लड़ने की बजाय इसके बहाने वह देश मे विरोध की आवाज को नहीं दबा सकती। किसान अपनी फसल के उचित दामों की सुरक्षा के लिए लड़ रहे है जो कहीं भी नाजायज नहीं है। कॉरपोरेट घरानों को खुश रखने की चाह में किसानो के आंदोलन को खत्म करना सरकार का मकसद हो सकता है परंतु किसान तीनों कानूनों की वापसी व MSP की कानूनी मान्यता न मिलने तक इस आंदोलन को वापस नहीं लेंगे। भय का माहौल बनाकर आंदोलन खत्म नहीं कर सकती सरकार।"
किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा है कि यह हमारा गाँव है। जैसे हम गांव में रहते हैं, वैसे ही यहां रहेंगे सारे एहतियात के साथ। क्या कोरोना के लिये गाँव से भी किसानों को भगाया जाएगा?
किसान नेता गुरनाम सिंह चढूनी ने किसानों की समवेत भावना को स्वर देते हुए कहा,
"वे गोली तो मार सकते हैं, लेकिन किसान जाने वाले नहीं हैं। बीजेपी दिमाग़ से यह ग़लतफ़हमी निकाल दे। हम गोलियां खाने को तैयार हैं पर बीजेपी अपनी सोच ले फिर। कोरोना बीजेपी का दलाल हो गया? बंगाल का चुनाव बन्द करा दो। किसानों के साथ षड्यंत्र नही चलेगा।"
किसान नेताओं ने इन आरोपों को ‘दुष्प्रचार’ कहकर खारिज कर दिया कि वे चिकित्सा ऑक्सीजन के वाहनों को शहर में नहीं जाने दे रहे हैं और कोविड-19 मरीजों की जान जोखिम में डाल रहे हैं। ज्ञातव्य है कि भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा ने यह खतरनाक आरोप किसानों के खिलाफ लगाया था। यह वही प्रवेश वर्मा हैं जिसने शाहीन बाग आंदोलन के खिलाफ लोगों को भड़काते हुए उस समय कहा था कि शाहीन बाग़ वाले लोगों के घरों में जाकर बलात्कार करेंगे।
किसान आंदोलन के खिलाफ इस तरह के भड़काऊ, उत्तेजक बयान पिछले साल शाहीन बाग़ आंदोलन और दिल्ली हिंसा के दौर के बिल्कुल ऐसे ही पैटर्न की खौफनाक यादें ताजा कर रहे हैं।
इस आशंका के मद्देनजर संयुक्त किसान मोर्चा की प्रेस कॉन्फ्रेंस में एलान किया गया, " मीडिया में कई रिपोर्ट आई है कि विधानसभा चुनाव पूरा होते ही “ऑपरेशन क्लीन” के नाम से हरियाणा और केंद्र सरकार ने किसानों के मोर्चों पर हमला कर उसका सफाया करने की योजना बनाई है। इसी योजना की भूमिका बनाने के लिए केंद्रीय कृषि मंत्री और हरियाणा के मुख्यमंत्री ने कोरोना संकट के चलते किसान आंदोलन को खत्म करने की अपील का नाटक भी किया है। संयुक्त किसान मोर्चा ने सरकार को चेतावनी दी है कि अगर ऐसी कोई कार्यवाही हुई तो किसान सरकार द्वारा “ऑपरेशन क्लीन” की धमकी का “ऑपरेशन शक्ति” से डटकर मुकाबला करेंगे।
24 अप्रैल से सभी किसानों को फिर दिल्ली चलो के नारे के साथ मोर्चा वापसी का आह्वान किया गया है। भारतीय किसान यूनियन (उग्राहा) पहले ही अपने सदस्यों को 21 अप्रैल से टिकरी बॉर्डर पर पहुंचने का आह्वान कर चुका है और उनके जत्थे बॉर्डर पहुंचने लगे हैं। 10 मई को किसान आंदोलन के नेताओं और समर्थकों के प्रतिनिधियों का राष्ट्रव्यापी सम्मेलन आयोजित किया जाएगा।"
संयुक्त किसान मोर्चा ने यह भी फैसला किया है कि आने वाले एक सप्ताह में मोर्चे की तरफ से कोरोना का मुकाबला करने के लिए पुख्ता इंतजाम किए जाएंगे। किसान नेताओं की इस बात में दम है कि कोरोना संक्रमण नया नहीं है। दिल्ली के बाहर मोर्चे लगाते समय भी देश में कोरोना का संक्रमण फैला हुआ था। लेकिन पिछले 5 महीने में किसान आंदोलन के किसी भी मोर्चे में कभी भी कोरोना संक्रमण फैलने की खबर नहीं आई है। इसलिए सरकार द्वारा इस आधार पर किसान आंदोलन पर उंगली उठाने का कोई औचित्य नहीं है।
संयुक्त किसान मोर्चा ने कोरोना से बचाव के अपने दायित्व को स्वयं अत्यंत गम्भीरता पूर्वक लेते हुए घोषणा की है कि सभी मोर्चों पर हर ट्रॉली या टेंट में कोरोना से बचाव के लिए सावधानियों की जानकारी दी जाएगी। सभी मोर्चों पर किसानों को मास्क उपलब्ध करवाए जाएंगे और उसके इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाएगा। सभी मोर्चों पर वैक्सीनेशन कैंप का इंतजाम किया जाएगा ताकि 45 साल से ज्यादा उम्र के किसान टीका लगा सकें। मोर्चों पर होने वाली दैनिक बैठकों में भीड़ के चलते संक्रमण फैलने से रोकने के इंतजाम किए जाएंगे। सभी मेडिकल कैंप में थर्मामीटर, मास्क और ऑक्सीमीटर की संख्या को बढ़ाया जाएगा। कोविड-19 के लक्षण दिखने पर तुरंत इलाज की व्यवस्था की जाएगी। कोविड से बचाव और इलाज में संयुक्त किसान मोर्चा स्थानीय प्रशासन से पूरा सहयोग करेगा।
इसी के साथ आंदोलन के नेताओं ने किसानों को महामारी से बचने की नसीहत देने के सरकार के नैतिक प्राधिकार पर प्रश्नचिह्न लगाया है, " कोरोना का मुकाबला करने में बीजेपी सरकारों का निकम्मापन और पाखंड अब पूरे देश के सामने आ चुका है, खुद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री विधानसभा चुनाव में बड़ी से बड़ी भीड़ जुटाने का दावा करते रहे । इस सरकार को किसानों को महामारी से बचने की नसीहत देने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। " सुपरस्प्रेडर माने जा रहे कुम्भ के आयोजन में भाजपा सरकार की सक्रियता की ओर भी किसान-नेताओं ने इशारा किया है।
किसानों की बात में दम है
उस दिन (17 अप्रैल को) जब देश मे कोरोना के 2 लाख 50 हजार मामले एक दिन में आये, आसनसोल में चुनावी रैली में जो आदमी खुशी का इज़हार कर रहा था कि मैंने आज तक ऐसी भीड़ नहीं देखी, कौन यकीन करेगा कि वह व्यक्ति कोरोना को लेकर जरा भी चिंतित है या गम्भीर है? मद्रास हाई कोर्ट ने चुनाव आयोग के बारे में बेहद सख्त टिप्पणी की है कि कोरोना की दूसरी लहर और उससे होने वाली मौतों के लिए वही जिम्मेदार है, और उसके खिलाफ हत्या का मुकदमा चलना चाहिए।
मुख्य चुनाव आयुक्त के रिटायर होते ही जिस तरह उन्हें राज्यपाल पद का तोहफा दिया गया है, उसके बाद भी क्या किसी शक की गुंजाइश बची है कि चुनाव आयोग ने जो भी फैसले लिए हैं, उनके पीछे मोदी सरकार है?
सारी पार्टियों की अपील के बाबजूद उन्होंने जो बंगाल चुनाव के चरण कम नहीं करने दिए उसका उनके पास क्या जवाब है?
8 चरण के चुनाव का तो पहले दिन से ही कोई औचित्य नहीं था और यह शुद्ध रूप से भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए किया गया था। पर इस abnormal स्थिति में भी जब एक पूरे राज्य के करोड़ों लोगों का जीवन दांव पर लगा हुआ था, तब भी एक चरण कम करने पर भी टस से मस न होना यह दिखाता है कि मोदी-शाह को जनता की जिंदगी से कोई लेना देना नहीं है, उन्हें केवल लोगों के वोट से मतलब है, जरूरी हो तो लोगों के जान की कीमत पर!
यह सरकार देश की आम जनता का विश्वास पूरी तरह खो चुकी है। परसेप्शन के खेल में यह तेजी से हारती जा रही है, जनता अब इसके किसी गढ़े नैरेटिव पर विश्वास करने वाली नहीं है ।
सरकार अगर सचमुच कोरोना को लेकर चिंतित है तो किसानों की न्यायाचित मांगों को स्वीकार कर ले और वे अपने गांवों को लौट जाय। वरना उन्हें स्वविवेक के आधार पर अपने फैसले लेने दे। अब यह साबित हो चुका है कि किसान-आंदोलन का नेतृत्व, एक संस्था के बतौर, इस निर्दयी, निकम्मी, संवेदनहीन सरकार की तुलना में लाख गुना अधिक संवेदनशील, समझदार और सक्षम है।
सरकार किसी भी हाल में इस विराट आपदा के दौर में किसान-आंदोलन को बलप्रयोग द्वारा खत्म करवाने के दुस्साहस से बाज आये।
क्योंकि अगर ऐसा होता है तो यह महज कुछ किसानों का राजधानी से अपने घरों को बलात वापस खदेड़ा जाना नहीं होगा, वरन देश की 80 करोड़ ग्रामीण आबादी के भारतीय राज्य से उम्मीदों का टूट जाना होगा, इस सरकार से उनके न्यूनतम भरोसे का उठ जाना होगा। देश की बेहद संवेदनशील जाट-सिख पट्टी में इस पूरी राज्य-व्यवस्था से सम्पूर्ण मोहभंग के परिणाम प्रलयंकारी हो सकते हैं, जिसके बारे में अभी से ठीक ठीक अनुमान लगा पाना भी असम्भव है।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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