क्या हमारी रसोई गैस की कीमत भी सरकार की कमाई का ज़रिया बन चुकी है?

टीवी और सरकार वाले अब तालिबान के सहारे जनमानस को गढ़ने में लगे हुए हैं। हिंसक भाषा और अधकचरी जानकारियां परोस कर हिंदू-मुस्लिम में बांटने का नया प्रोजेक्ट शुरू हो चुका है। चौक-चौराहे से लेकर गांव-देहात सब तालिबान पर बात करते हुए इस्लाम से नफरत के शिकार में बदलते जा रहे हैं। इन सब को आगे कर पीछे से सरकारी देखरेख में वही काम होते आ रहा है जो हमेशा से होते आया है। खाना बनाने के लिए इस्तेमाल होने वाली 14.2 किलो रसोई गैस की कीमत फिर से 25 रुपए बढ़ गई है। पिछले महीने इसकी कीमत ₹834 थी। अब बढ़कर ₹859 हो चुकी है।
यह केवल एक महीने की बात नहीं है। सरकार के पद पर बैठी मोदी सरकार के पिछले 7 साल के दौर में देखा जाए तो रसोई गैस की कीमत में दोगुने से ज्यादा का इजाफा हुआ है। 1 मार्च 2014 को 14.2 किलो के घरेलू गैस सिलेंडर की कीमत 410.5 रुपए थी जो अब 859.50 रुपए है। अगर इस निष्कर्ष पर पहुंचा जाए कि मोदी सरकार के पिछले 7 सालों के दौरान कईयों को पेट भर खाना खाने का इंतजाम करने में बहुत अधिक परेशानी सहनी पड़ी होगी तो यह गलत निष्कर्ष नहीं होगा।
अब जरा आप ही सोच कर बताइए कि जिस सरकार की नीतियों की वजह से लोगों को भरपेट खाना खाना नसीब ना हुआ हो, वह सरकार लोगों को गरीबी से निकालने, बेरोजगारों को रोजगार देने, लोगों की जिंदगी आसान करने के मामले में कितनी फिसड्डी साबित हुई होगी। इन सभी मुद्दों को बैक सीट पर डाल दिया गया है। फ्रंट पर बैठकर तालिबान के सहारे मुस्लिम नफरत की सड़क पर चलते हुए चुनावी राजनीति करने की चाल चली रही है।
रसोई गैस की कीमत निर्धारण का फार्मूला बहुत जटिल है। साधारण शब्दों में इतना समझिए कि इस फार्मूले को इंपोर्ट पार्टी प्राइस कहते हैं। इस फार्मूले के आधार पर सऊदी अरब की अरामको कंपनी द्वारा तय किए गए एलपीजी के कीमत को बेंचमार्क के तौर पर अपनाया जाता है। इस कीमत में समुद्री भाड़ा, कस्टम ड्यूटी, पोर्ट ड्यूटी सहित वह सारे खर्च जोड़े जाते है, जो एलपीजी को दूसरे देश से मंगवाने के लिए खर्च किए जाते हैं। इसके बाद भी बहुत सारे लागतों को कीमत में जोड़ा जाता है जैसे सिलेंडर का खर्च, देश के कोने- कोने में पहुंचाने का भाड़ा, केंद्र सरकार द्वारा लगने वाली जीएसटी।
इन सभी खर्चों को जोड़कर सरकारी तेल कंपनियां एलपीजी गैस का भाव हर महीने तय करती हैं। क्योंकि एलपीजी की खरीददारी डॉलर में होती है इसलिए अगर डॉलर ऊपर नीचे घटता बढ़ता है तब एलपीजी की कीमतों पर भी असर पड़ता है। यानी ढेर सारे कारक मिलकर के एलपीजी के कीमत को प्रभावित करते हैं।
जब भी एलपीजी की कीमत बढ़ती है तो सरकार यह कहकर अपना बचाव करती है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार की परिस्थितियों की वजह से कीमतों में इजाफा हो रहा है। इसे कम और अधिक करना उसके बस की बात नहीं। लेकिन यह हिसाब भी समझ से परे बात है। विपक्ष का कहना है कि पिछले 7 महीने में रसोई गैस की कीमतों में ₹265 का इजाफा किया गया है। सऊदी अरामको की एलपीजी की कीमत 611 यूएस डॉलर प्रति मीट्रिक टन है। यह कीमत नहीं होना चाहिए। अगर रुपए और डॉलर की विनिमय दर को समायोजित करने के बाद एलपीजी की कीमत तय की जाए तो यह तकरीबन ₹600 प्रति सिलेंडर होनी चाहिए। रसोई गैस की यही कीमत तय होनी चाहिए। लेकिन ₹860 प्रति सिलेंडर की दर से रसोई गैस बेची जा रही है। पैसों का इतना बड़ा अंतर कहा जा रहा है? विपक्ष का कहना है कि सरकार एलपीजी गैस की कीमत के नाम पर मुनाफाखोरी कर रही है। आम लोगों का गला रेतकर और उनकी कमर तोड़कर कमाई कर रही है।
प्रधानमंत्री ने अपने एक भाषण में कहा था कि जब एक गरीब घर की औरत चूल्हा जलाकर अपने घर का खाना बनाती है तो 400 सिगरेट के बराबर धुआं अपने अंदर खींच लेती है। मैंने अपने बचपन में यह सब देखा है। कभी-कभी तो ऐसा होता था कि मां खाना बनाती थी और धुंए से उसका चेहरा नहीं दिखता था। यह प्रधानमंत्री के भाषण के वक्तव्य हैं। जो उन्होंने उज्जवला योजना के महत्व को बताते हुए दिया था। प्रधानमंत्री से ही पूछना चाहिए कि ₹860 प्रति सिलेंडर रसोई गैस आखिरकर कौन गरीब खरीदने के लिए आसानी से तैयार हो पाएगा। इतनी बड़ी कीमत क्या कोई गरीब मां दे पाएगी?
इस सवाल को सुनते हो सकता है कि सरकार के कामकाज के समर्थक लोग सब्सिडी की याद दिलाएं। रसोई गैस में सब्सिडी का मतलब यह कि अगर कीमतें बढ़ेंगी तो उसका बोझ आम लोगों पर पड़ने नहीं दिया जाएगा। सरकार खुद खाते में पैसा भेज देगी।
यही प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना थी। गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले महिलाओं को फ्री में गैस सिलेंडर दिया जाएगा और सब्सिडी रेट पर सिलेंडर में गैस भरने की सहूलियत दी जाएगी। सरकार ने दावा किया था कि इस योजना की वजह से भारत के 95% लोगों तक गैस सिलेंडर पहुंच पा रहा है। भारत की बहुत बड़ी आबादी लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाने की मजबूरी से मुक्त हुई है।
लेकिन जरा सोचिए अगर पिछले 7 साल में रसोई गैस की कीमतें बढ़कर दोगुना हो गई है, तो इस योजना से कितनी औरतों और परिवारों को लाभ पहुंचा होगा। साल 2018 के रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ कंपैशनेट इकोनॉमिक्स के सर्वे के मुताबिक उत्तर भारत में इस योजना के लाभ लेने वाले 85 फ़ीसदी परिवारों की औरतों ने इस योजना को छोड़ दिया। साल 2019 की कैग रिपोर्ट कहती है कि उज्ज्वला योजना से लाभान्वित होने वाले परिवार साल भर में मुश्किल से तीन या चार सिलेंडर का इस्तेमाल करते हैं। इन सभी आंकड़ों का इशारा इसी तरफ है कि रसोई गैस की बढ़ती कीमतों की वजह से भारत का गरीब समाज इस योजना का फायदा नहीं उठा सकता है। कोरोना जैसी महामारी के वक्त तो बिल्कुल भी नहीं।
जहां तक सब्सिडी की बात है तो टेक्निकली देखा जाए तो सब्सिडी खत्म नहीं हुई है। लेकिन वास्तविक तौर पर देखा जाए तो सब्सिडी खत्म हो गई है। नियम के मुताबिक 10 लाख से ऊपर की आमदनी वाले और जो स्वेच्छा से सब्सिडी छोड़ना चाहते हैं उनके सिवाय सभी एलपीजी पर सब्सिडी के हकदार होंगे। यह नियम है।
लेकिन हकीकत यह है कि पिछले साल से सब्सिडी मिलना बंद हो चुकी है। साल 2019-20 में सरकार ने एलपीजी पर सब्सिडी के लिए 20 हजार करोड़ रुपए का बजट में प्रावधान किया था। साल 2020-21 में यह घटकर महज 14 हजार करोड रुपए रह गया। सरकार के कामकाज पर नजर रखने वाले लोग का कहना है कि धीरे-धीरे सरकार इस सब्सिडी को बंद कर देगी।
रसोई गैस पर जीएसटी लगता है। पेट्रोल और डीजल की तरह टैक्स बढ़ाने को लेकर जीएसटी में हदबंदी है। इसमें सरकार यहां पर सब्सिडी न देने वाली नीति अपना रही है कि किसी भी तरह से उस पर बोझ न पड़े।
सबसे जरूरी बात कि महंगाई की मार लोगों पर कब पड़ रही है? जब महामारी की मार वजह से काम मिलना मुश्किल हुआ है। अर्थव्यवस्था लचर हो चली है। जब तकरीबन 34 करोड़ (अर्थशास्त्री संतोष महरोत्रा के अध्ययन के मुताबिक) लोगों की आय इतनी कम हो चुकी है कि वह गरीबी रेखा की दहलीज नीचे चले गए हैं। जब करोड़ों लोग बेरोजगार बने घूम रहे हैं, ऐसे समय में कमरतोड़ महंगाई का मतलब यही हुआ कि सरकार आम लोगों की नहीं है।
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