ग्राउंड रिपोर्ट: एमएसपी पर बयान नहीं कानून में लिखित गारंटी चाहते हैं किसान

खेती से जुड़े विधेयकों को पारित करने के बाद सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ाने और इस व्यवस्था को जारी रखने की घोषणा की है, लेकिन यह बात न तो किसानों को हजम हो रही है और न ही विपक्षी दल भरोसा कर पा रहें हैं। उन्हें लग रहा है कि नए कानूनों के अमल में आने के बाद एमएसपी व पहले से चली आ रही मंडी व्यवस्था खत्म हो जाएगी और किसान कॉरपोरेट व बड़े व्यापारियों के शिकंजे में चले जाएंगे। साथ ही आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक के पारित होने के बाद निम्न व मध्यम वर्ग की भी चिंताएं बढ़ गई हैं, क्योंकि इससे अनाज, दलहन, तिलहन व आलू, प्याज आदि पर से सरकार नियंत्रण खत्म हो जाएगा और कंपनियों व व्यापारियों को अपनी मनमानी करने की छूट मिल जाएगी।
नए कानूनों के बारे में जब हरियाणा और यूपी के कुछ किसानों से बात की गई तो उनका कहना था कि उपज बेचने के लिए नए दरवाजे खुलते हैं तो अच्छी बात है, लेकिन पहले से चली आ रही एमएसपी और मंडी की व्यवस्था किसी भी सूरत बरकरार रखनी चाहिए। यदि इन्हें खत्म कर दिया गया या अप्रासंगिक बना दिया गया तो किसानों के साथ-साथ आम गरीब जनता भी मुसीबतें और बढ़ जाएंगी। उनकी मांग है कि सरकार नए कानून में एमएसपी की लिखित गारंटी करे।
सोनीपत में अपनी 20 बीघा जमीन पर खेत कर रहे किसान समुंदर का कहना है कि नए कानूनों से किसानों का कोई भी फ़ाएदा नहीं होने वाला है। एमएसपी और स्थानीय मंडियों की जो व्यवस्था पहले चली आ रही है, उसे किसी भी हाल में बरकरार रखना चाहिए। यदि मंडियां और आढ़ती खत्म हो गए तो किसान व खेतों के मालिक निजी कंपनियों और पूंजीपतियों के शिकंजे में आ जाएंगे। ऐसी सूरत में कंपनियां ही तय करेंगी कि उपज को किसानों से किस भाव खरीदना और बेचना है? अभी की व्यवस्था में दिक्कतें जरूर हैं, लेकिन इससे कुछ आसानी भी है। किसानों को जब अगली फसल या अपनी अन्य जरूरतों के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है तो वे आढ़तियों से उधार ले लेते हैं और उपज तैयार होने पर उसे चुकता करते हैं। यह लेन-देन भरोसे पर होता है और वर्षों से चला आ रहा है। किसानों को यह सुविधा कंपनियों से नहीं मिल पाएगी। समुंदर बताते हैं कि वे अपना अनाज या सब्जियां ट्रक में लदवा कर मंडी भेज देते हैं और इसकी पेमेंट भी आसानी से हो जाती है।
किसान समुंदर और जगपाल सिंह
एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा कि पिछले 5 वर्षों के दौरान खेती की उत्पादन लागत काफी बढ़ गई है। खाद, बीज, कीटनाशक दवाओं व ड़ीजल आदि सभी के दाम बढ़े हैं, लेकिन उसकी तुलना में उपज की कीमत नहीं बढी है। उन्होंने बताया कि लॉकडाउन के कारण तो उनकी करीब 7 लाख रुपये की सब्जियां बर्बाद हो गईं। इसी गांव के एक अन्य किसान जगपाल सिंह ने भी खेती की मुश्किलों की जिक्र करते हुए कहा कि एमएसपी की व्यवस्था किसी भी सूरत बरकार रखनी चाहिए, ताकि किसानों को उनकी उपज की एक निश्चित कीमत मिलने का सहारा तो बना रहे।
सोनीपत में ही परलीकलां गांव के एक अन्य किसान राजेंद्र ने कहा कि उन्हें अपनी उपज की कीमत तय करने का अधिकार नहीं है। जिन नए कानूनों की बात हो रही है, उससे किसानों को कोई फ़ाएदा नहीं होगा, क्योंकि जब मंडियां ही खत्म हो जाएंगी तो बाजार की कीमतें पता करने में दिक्कत होगी। कंपनियां तो वर्तमान में भी कई गांवों खरीददारी कर रही हैं। खुद उनके गांव में रिलायंस और मदर डेयरी जैसी कंपनियां सक्रिय हैं, लेकिन इनकी शर्ते काफी कड़ी होती हैं। मसलन उन्हें डेढ़ किलो का कद्दू चाहिए तो इससे ज्यादा और कम भार वाले फल को वे नहीं खरीदती हैं। फिर जो सब्जियां बच जाती हैं, उन्हें किसानों को कहीं और बेचना पड़ता है। अगर यह नहीं बिक सकीं तो बर्बाद हो जाती हैं।
राजेंद्र का कहना है कि यदि सरकार किसानों को दूसरे राज्यों में भी उपज बेचने की सुविधा दे रही है तो अच्छी बात है, लेकिन एमएसपी और मंडी की व्यवस्था को हर हालत में बनाए रखना होगा, वरना आने वाले दिनों में बड़ी मुश्किलें पैदा होंगी। इन्होंने भी बताया कि बहुत सारे किसान आढ़तियों के पैसे उधार लेकर अपनी जरूरतें पूरी कर लेते हैं, लेकिन कंपनियां तो उधारी नहीं देंगी।
एक अन्य किसान सतीश मलिक ने भी कहा कि पहले भी बहुत सारे किसानों एमएसपी नहीं मिल पाता था, लेकिन इसका जो कुछ आसरा था, वह भी खत्म होने जा रहा है। सरकार इसके बारे में मौखिक रूप से तो बोल रही है, लेकिन नए कानून में लिखित गारंटी देने को तैयार नहीं है। खेती में उत्पादन लागत बढ़ती जा रही है, जबकि किसानों को उस लिहाज से कीमतें नहीं मिल रही हैं। ऐसे में पहले चली आ रही एमएसपी और मंडी व्यवस्था भी खत्म हो गई तो भविष्य में बड़ी कॉरपोरेट कंपनियां किसानों का क्या हाल करेंगीं? उसका अंदाजा लगाया जा सकता है!
इसी तरह यूपी में बागपत के एक किसान शहज़ाद ने बताया कि उन्होंने पिछले 10-12 साल से 5 बीघा जमीन ठेके पर ले रखी है, जिसमें वे सब्जियां उगाते हैं। खेत के मालिक को उन्होंने 16000 रुपये सलाना देना पड़ता है। वे अपनी उपज दिल्ली लाकर फुटकर में बेचते हैं, क्योंकि मंडी में 10 फीसदी कमीशन देना पड़ता है। शहजाद के मुताबिक खेती में मुश्किलें काफी बढती जा रही हैं। उत्पादन लागत बढ़ने से पहले जैसी बचत भी नहीं रह गई है। उनके परिवार के लोग दर्जी का भी काम करते हैं, इसलिए मिलाजुला कर किसी सूरत से घर का खर्च चल जाता है। एक प्रश्न के जवाब में उन्होंने कहा कि जब छोटे किसान आम व्यापारियों से अपनी उपज बेचने के लिए मोल-भाव नहीं कर पाते हैं तो, वे बड़ी कंपनियों से कैसे डील कर पाएंगे?
उल्लेखनीय है कि किसानों और विपक्षी पार्टियों की ओर से एमएसपी की गारंटी और एग्रीकल्चर मार्केटिंग प्रोड्यूस कमेटी (एपीएमसी) के तहत चलने वाली मंडियों को बरकरार रखने की मांग की जा रही है। वैसे इन मंडियों में देशभर में करीब 36 फीसदी उपज की ही खरीद हो पाती है और यहां शोषण भी होता है, लेकिन लोगों का मानना है कि कम से कम यहां किसानों को मोल-भाव करने का मौका तो मिलता है। एक आढ़ती से सौदा नहीं पटा तो दूसरों से बात की जा सकती है। अब यदि यह मंडियां ही खत्म हो गईं तो सब कुछ कॉरपोरेट कंपनियों व बड़े व्यापारियों की मर्जी पर ही निर्भर करेगा। जहां तक एमएसपी की बात है तो सरकार समय-समय पर इसकी घोषणा करती है, लेकिन इसका फ़ाएदा सभी किसानों खासतौर पर छोटे किसानों को नहीं मिल पाता है, जिनकी संख्या करीब 86 फीसदी है। इनमें से अधिकांश औने-पौने दाम पर अपनी उपज व्यापारियों को बेचने पर मजबूर होते हैं, क्योंकि एक तरफ आनलाइन रजिस्ट्रेशन कराना, खसरा-खतौनी की कापी, आधार कार्ड, मोबाईल नंबर व बैंक की खाता संख्या देने समेत अन्य शर्तें पूरी करना उनके लिए मुश्किल होता है।
दूसरे सरकारी खरीद केंद्रों में भ्रष्टाचार और दलाली का भी बड़ा मकड़जाल होता है। इसलिए जब छोटे किसान एमएसपी नहीं हासिल कर पा रहे हैं तो वे मंहगी ढुलाई दे कर अपना 8-10 बोरा अनाज दूसरे राज्यों में ले जा कर कैसे बेच पाएंगे और किताना मुनाफा कमा लेंगे? अब नए कानून में जो कांट्रैक्ट खेती का प्रावधान है किया गया है तो उसमें भी किसानों को एमएसपी नहीं मिल पाएगा। कुछ जानकारों का यह आशंका भी है कि आने वाले दिनों में कंपनियां ही तय करेंगी की खेत में क्या पैदा होगा और उसकी कीमत क्या होगी? किसान कंपनियों की मर्जी पर चलने के लिए मजबूर होगा। कांट्रैक्ट में यदि कोई विवाद होता है तो उसके निपटारे में किसका पलड़ा भारी रहेगा? इसका भी अंदाजा सभी को है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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