कोयला आयात के “मुख्य लाभार्थी” को लेकर जांच की मांग तेज़

कोयला आयात के “मुख्य लाभार्थी” कौन हैं? इस बात की स्वतंत्र जांच की मांग के लिए आवाज़ उठने लगी है। बिजली इंजीनियरों ने कोयला संकट और कोयले के आयात का मुद्दा उठाते हुए कहा है कि केंद्र सरकार को “आयातित कोयले” की “अतिरिक्त लागत” वहन करनी चाहिए ताकि इसका बोझ डिस्कॉम और आम उपभोक्ताओं पर न पड़े।
उपभोक्ताओं पर बढ़ सकता है भार
बिजली इंजीनियरों के फेडरेशन का कहना है भारी क़ीमत पर कोयले का आयात करने से, बिजली उत्पादन की कीमत में वृद्धि होगी। ज़ाहिर तौर पर इसका वृद्धि का बोझ “डिस्कॉम” और “आम उपभोक्ताओं” पर पड़ेगा। ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन (एआईपीईएफ) के चेयरमैन शैलेन्द्र दुबे ने न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहा कि आयातित कोयले से बिजली उत्पादन करने से आम उपभोक्ताओं पर क़रीब 70 पैसे से 01 रुपये 20 पैसे प्रति यूनिट का अतिरिक्त भार बढ़ सकता है।
आयातित कोयला मिश्रित करने का आदेश
एआईपीईएफ के चेयरमैन दुबे ने आगे बताया कि केंद्र सरकार ने मनमाने ढंग से सभी राज्य सरकारों के बिजली घरों को एक आदेश जारी किया था कि “स्वदेशी कोयले” के साथ, 06 प्रतिशत “आयातित कोयले” का अनिवार्य रूप से मिश्रित किया जाये और बॉयलर में डाला जाये। हालांकि बाद में इसे वजन के हिसाब से 4 प्रतिशत कर दिया गया।
संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन
दुबे ने बताया कि केंद्र सरकार ने बिजली अधिनियम, 2003 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल किया और आयातित कोयले की ख़रीद और उपयोग को अनिवार्य कर दिया। जबकि एआईपीईएफ यह मानना है कि यह बिजली के “समवर्ती विषय” में होने के कारण, यह “संवैधानिक प्रावधान” का पूरी तरह से उल्लंघन था। उन्होंने आशंका ज़ाहिर कि है इसका परिणाम यह होगा कि राज्य उपयोगिताएं जो पहले से ही घाटे में चल रही हैं, और अधिक घाटे में चली जाएगी। जिससे अंत यह होगा कि इनका “निजीकरण” कर दिया जायेगा या इसकी संपत्तियों को मुद्रीकरण के रूप में घोषित किया जाएगा।
“फाइनेंशियल टाइम्स” में प्रकाशित एक लेख के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि एक बार फिर कोयले के आयात, बिलिंग और वैध व्यापारिक सौदों से परे असाधारण मुनाफे की निकासी के मुद्दे पर एक समाचार पत्र ने ध्यान केंद्रित किया है।
एआईपीईएफ ने अनुसार गुजरात के मुंद्रा में “अडानी और टाटा” द्वारा स्थापित “अल्ट्रा मेगा पावर प्लांट” को प्रतिस्पर्धी बोली में, सबसे कम टैरिफ के आधार पर पावर प्लांट बनाने का ठेका दिया गया था। लेकिन जब इंडोनेशिया में कानून में बदलाव के कारण कोयले की कीमतें बढ़ीं, तो अडानी और टाटा ने स्वचालित रूप से टैरिफ बढ़ाकर पूर्ण मुआवजे की मांग की थी। हालंकि दुबे ने बताया कि सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अस्वीकार कर दिया और कहा कि किसी अन्य देश में कानून में बदलाव के कारण “संविदात्मक दायित्वों” को नहीं बदला जा सकता है।
जांच की मांग
बिजली इंजीनियरों के नेता दुबे कहते हैं कि “यह मानने का हर कारण है कि कोयला संकट वास्तव में कोयले के आयात को सक्षम करने के लिए बनाया गया था, न कि कोयला संकट की मजबूरियों के कारण, कोयले के आयात का सहारा लिया जा रहा था”। वह कहते हैं इन्हीं सब कारणों से कोयले के आयात की स्वतंत्र जांच की मांग उठाई जा रही है और जांच के संदर्भ में यह शामिल होना चाहिए कि कोयला आयात के मुख्य लाभार्थी कौन हैं?
उप्र राज्य विद्युत उपभोक्ता परिषद का भी कहना है कि कोयला आयात और कोयला संकट की जांच होनी चाहिए। परिषद के अध्यक्ष अवधेश वर्मा का कहना है कि समय समय केंद्र सरकार दावा करती है कि उनके पास पर्याप्त मात्रा में कोयला है तो फिर बीच में यह कोयला संकट क्यों उत्पन हो जाता है? वह कहते हैं इस संकट को जानने के लिए केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) से जांच करना चाहिए।
वर्मा के अनुसार भारतीय कोयला 3000 हज़ार प्रति टन मिलता है। वहीँ आयात का कोयला उससे कई गुना महंगा यानी 20 हज़ार रुपये प्रति टन होता है। यह आयात का कोयला बिजली उत्पादन की क़ीमत को बढ़ा देता है। वर्मा के अनुमान के अनुसार कोयला आयात बढ़ने से बिजली की कीमतें लगभग 85 पैसा प्रति यूनिट बढ़ सकती है। हालांकि वर्मा ने बताया इस वक़्त उत्तर प्रदेश में पर्याप्त कोयला मौजूद है।
एफडीजी की आवश्यकता क्यों?
दुबे का कहना है कि कोयले के आयात की सक्रिय तैयारी में, सभी बिजली स्टेशनों को “सल्फर” हटाने के लिए फ्ल्यू-गैस डिसल्फराइजेशन (एफडीजी) स्थापित करने की आवश्यकता थी जिसका कारण है कि आयातित कोयले में सल्फर सामग्री होती है, जबकि भारतीय कोयले में बड़ी मात्रा में सल्फर नहीं होता है। इसलिए सात दशकों से अधिक समय से किसी भी भारतीय बिजली संयंत्र ने फ्ल्यू-गैस डिसल्फराइजेशन (एफडीजी) पर निवेश नहीं किया है।
“वैज्ञानिक मिश्रण”
एआईपीईएफ का कहना है कि आयातित और भारतीय कोयले के “वैज्ञानिक मिश्रण” के बिना आयातित कोयले को जलाने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए है, ताकि “बॉयलर” और “बिजली उत्पादन उपकरणों” को नुकसान न हो। एआईपीईएफ ने यह भी मांग की है कि यदि कोयला आयात करने हेतु राज्य के बिजली घरों को मजबूर किया जाता है, तो केंद्र सरकार को आयातित कोयले की अतिरिक्त लागत वहन करनी चाहिए ताकि इसका भार “डिस्कॉम” और “आम उपभोक्ताओं” पर नहीं आना चाहिए।
बॉयलरों का स्वास्थ्य
बिजली इंजीनियरों की मांग है कि केंद्र सरकार को “कोल इंडिया” के माध्यम से यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आयातित कोयले को ठीक से मिश्रित किया जाए। मिश्रित कोयले की कीमत भारतीय कोयले की कीमत के समान सिद्धांतों और आधार पर होनी चाहिए। अनुचित सम्मिश्रण बॉयलरों के स्वास्थ्य और दीर्घायु के लिए हानिकारक है। केंद्र सरकार को विभिन्न राज्यों को उनकी आवश्यकताओं के अनुसार भारतीय कोयले के समान मूल्य पर मिश्रित कोयले की आपूर्ति करनी चाहिए।
कोयला संकट के लिए केंद्र सरकार ज़िम्मेदार
बिजली इंजीनियर मानते हैं कि मौजूदा कोयला संकट की जिम्मेदारी पूरी तरह से केंद्र सरकार की है। “कोल इंडिया” का प्रबंधन भारत सरकार के पास है। इंजीनियरों का कहना है केंद्र सरकार ने कोल इंडिया को उसके नकदी भंडार से वंचित कर दिया है और अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक की नियुक्ति में देरी करने सहित विभिन्न प्रशासनिक पहलुओं में व्यवस्थित रूप से हस्तक्षेप किया है।
दुबे कहते हैं कि केंद्र सरकार भारतीय रेलवे का स्वामित्व व संचालन करती है और बंदरगाहों को नियंत्रित करती है। इसलिए नीति के सभी उपकरण भारत सरकार के पास हैं, इसलिए कोयले के आयात की एकमात्र ज़िम्मेदारी उसी की है।
कोयले का केंद्रीकरण
उत्तर प्रदेश बिजली मज़दूर संगठन के नेता सुहेल आबिद मानते हैं कि, अगर कोयला आयात आवश्यक है तो एक ही विक्रेता से कई राज्य सरकारों द्वारा “स्वतंत्र आयात” से विभिन्न राज्यों की सौदेबाजी की क्षमता कम हो जाएगी और कोयले की लागत बढ़ जाएगी।
आबिद कहते हैं, आयातित कोयले की खरीद को केंद्रीकृत किया जाना चाहिए और इसकी निगरानी और नियंत्रण केंद्र सरकार द्वारा किया जाना चाहिए। कोयले का केंद्रीकरण आवश्यक है क्योंकि अकेले केंद्र सरकार के पास अपने दूतावासों और विभिन्न अन्य उपकरणों के माध्यम से पूरे देश के लिए सर्वोत्तम नियम और कीमतें प्राप्त करने के लिए सौदेबाजी की क्षमता के साथ-साथ प्रशासनिक क्षमता भी है।
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