दादरी से पालघर: रक्तपिपासु भीड़ का ‘ह्यूबरिस सिंड्रोम’ कनेक्शन!

पालघर में दो संतों समेत तीन लोगों की हत्या दुखद है। इस कृत्य को सिर्फ एक आपराधिक घटना मान कर छोड़ना ठीक नहीं होगा। क्योंकि ऐसी घटनाएं निश्चित ही किसी उत्प्रेरक विचार से प्रेरित और पोषित होती है। क्या दादरी के अख़लाक़, क्या अलवर के पहलू ख़ान, क्या बुलंदशहर के एसआई सुबोध कुमार और अब पालघर में संतों की हत्या, भीड़ का चरित्र एक है, निशाने पर हर जगह निर्दोष हैं। ये एक ऐसी रक्तपिपासु भीड़ हैं, जिसे सिर्फ एक ऑबजेक्ट चाहिए। वह ऑबजेक्ट किसी भी जाति-धर्म का हो सकता है। तो सवाल उठता है कि आखिर, इस रक्तपिपासु भीड़ का निर्माण होता कैसे है?
ह्यूबरिस सिंड्रोम?
अब मैं अपनी तरफ से कोई उदाहरण दूं, उससे बेहतर है कि पहले ब्रिटिश चिकित्सक और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता डेविड ओवेन को पढा जाए। उन्होंने दुनिया के कुछ शीर्ष नेताओं (यूके, यूएस) के प्राइम मिनिस्टर और प्रेसीडेंट के व्यक्तित्व का अध्ययन किया है। अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि राजनीति और कॉरपोरेट दुनिया के कुछ ताकतवर लोगों में एक कॉमन सिंड्रोम पाया जाता है, जिसे “ह्यूबरिस सिंड्रोम” कहते है। ह्यूबरिस एक ग्रीक शब्द है, जिसका शाब्दिक अर्थ है, “मूर्खतापूर्ण गर्व या ख़तरनाक अतिआत्मविश्वास।” प्राचीन एथेंस में ह्यूबरिस शब्द को “दूसरों को शर्मिन्दा” करने के रूप में पारिभाषित किया गया है। अरस्तू ने ह्यूबरिस शब्द को पारिभाषित करते हुए कहा कि पीड़ित को शर्मिन्दा करने के पीछे वजह ये नहीं है कि उस पीड़ित से किसी को वाकई कोई नुकसान हुआ था या होने वाला था, बल्कि ऐसा काम सिर्फ आत्मखुशी या अत्मसंतोष के लिए किया जाता है। ऐसा कर के पीड़क अपनी सर्वोच्चता साबित करना चाहता है।
डेविड ओवेन की बात पर फिर लौटते हैं। वे इस सिंड्रोम की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जिन ताकतवर लोगों में ये सिंड्रोम पाया जाता है, वे ताकत का इस्तेमाल स्वयं के महिमामंडन में करते हैं। ऐसे लोग अपने इमेज को ले कर बहुत कॉशस (सतर्क) होते है। उनमें अत्याधिक आत्मविश्वास होता है, अपने निर्णय को ले कर बहुत ही कांफिडेंट होते है और खुद को मसीहा के तौर पर पेश करते है। ऐसा व्यक्ति अपने अतिआत्मविश्वस की वजह से किसी पॉलिसी के नट-बोल्ट (कमी-बेशी) पर ध्यान नहीं देता और अंतत: वह पॉलिसी बेकार सबित हो जाती है। इसके कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय उदाहरण देखने को मिल जाएंगे, जहां सरकारी योजनाएं/नीतियां कुछ ही समय बाद जा कर अपने लक्ष्य से भटक जाती हैं।
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ट्रंप की ह्यूबरिस और हिंसक समर्थक
अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप इस वक्त वैश्विक स्तर पर ह्यूबरिस सिंड्रोम के सबसे बेहतरीन उदाहरण माने जाते है। अब उनके इस सिंड्रोम ने अमेरिका में क्या कमाल किया है, इसे द गार्डियन की एक रिपोर्ट से समझा जा सकता है। द गार्डियन ने अगस्त 2019 की अपनी रिपोर्ट “वॉयलेंस इन द नेम ऑफ ट्रंप” में लिखा है कि कैसे ट्रंप समर्थकों ने 2015 से 2019 के बीच 52 ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया है, जहां ट्रंप का विरोध करने वाले लोगों पर खुलेआम हमला हुआ और उनकी जान ले ली गई। ट्रंप ने जिन राजनीतिक या नस्लीय समूह की निंदा की थी, उन पर हमला करते वक्त ये लोग ट्रंप की बेतुकी बयानबाजी को दुहराते हुए ट्रंप के समर्थन में नारे लगाते थे, ट्रंप विरोधी पर हमला करते हुए ट्रंप का समर्थन प्रदर्शित करने वाले कपड़े पहनते थे। आखिर ऐसा क्या हुआ कि अमेरिका में ट्रंप समर्थक इतने हिंसक हो गए?
डेविड ओवेन ने जो ह्यूबरिस सिंड्रोम बताया है, उसका राजनीतिक-सामाजिक विस्तार न हो, ये संभव नहीं है। कोई ताकतवर व्यक्ति कृत्रिम तरीके से निर्मित अपनी मसिहाई छवि के सहारे अपने समर्थन में एक ऐसी भीड़ तैयार कर सकता है, जो उसके मूर्खतापूर्ण गर्वानुभूति और ख़तरनाक अतिआत्मविश्वास पर भरोसा कर ले। जैसा कि ट्रंप ने अमेरिका में किया। उनके चुनावी भाषणों को याद कीजिए, वो कैसे अमेरिका को ग्रेट बनाने के लिए बेतुके वादे कर रहे थे।
भारतीय सन्दर्भ
पालघर हिंसा के बाद, महाराष्ट्र सरकार ने नफरत न फैलाने की अपील की। लेकिन हुआ क्या? एक नेशनल चैनल का मालिक और स्वघोषित राष्ट्रवादी टीवी एंकर, जो ह्यूबरिस सिंड्रोम से ग्रस्त है, नफरत की आग खुलेआम फैला रहा है। इतना अधिक कि उसके खिलाफ कई राज्यों में 16 एफआईआर तक दर्ज हो जाती है। लेकिन उसे चिंता नहीं कि उसके इस कृत्य से समाज में क्या सन्देश जा रहा है। समाज किस तरह उसके विचार से प्रेरित हो सकता है। क्योंकि आम लोग हमेशा अपने रोल मॉडल्स को सही मानते है और उसका अनुगमन करते हैं।
थोड़ा पीछे जाए तो तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा झारखंड के रामगढ लिंचिंग केस में फास्ट ट्रैक कोर्ट से मौत की सजा पा चुके एक अभियुक्त को माला पहुंचाने पहुंच जाते हैं। या कि दादरी में अख़लाक़ की हत्या के आरोपी की जब जेल में मृत्यु हो जाती है, तो फिर से एक केन्द्रीय मंत्री, महेश शर्मा उसे सम्मान देने उसके गांव पहुंच जाते हैं। हत्यारोपी को तिरंगा में लपेट कर सम्मान दिया जाता है। अब इसे शीर्ष केन्द्रीय मंत्रियों की हिम्मत, ताकत, अतिआत्मविश्वास, झूठा गौरव कहेंगे या चुनावी (वोट की) मजबूरी? शायद दोनों। लेकिन, ऐसे मूर्खतापूर्ण गौरव और ख़तरनाक अतिआत्मविश्वास से जो सन्देश निकला, वो देश के आमलोगों के बीच एक गहरा सन्देश दे गया। ये कि पीड़ित को पीडा पहुंचाना सही था, इससे एक खास समूह की सर्वोच्चता स्थापित होती है और इस तरह के कृत्य को अंजाम देना गलत नहीं है।
जाहिर है, एक हिंसक भीड़ भी किसी विचार से ही प्रेरित होती है। और यदि उस विचार के पोषक “ह्यूबरिस सिंड्रोम” से ग्रस्त हो तो फिर एक रक्तपिपासु भीड़ का निर्माण बहुत मुश्किल नहीं रह जाता। क्योंकि लोकतंत्र में भले बहुमत का शासन हो लेकिन जब रोल मॉडल्स अपनी छवि मसिहाई बना कर लोकतंत्र पर हावी होने लगते हैं, तब एक छोटी सी निरंकुश भीड़ भी बहुमत से अधिक ताकतवर हो जाती है। और इसी का नतीजा है, दादरी के अख़लाक़, अलवर के पहलू ख़ान, बुलंदशहर के एसआई सुबोध कुमार और अब पालघर में संतों की हत्या।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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