बकरीद बनाम ‘क्लाउडबर्स्ट’ : मुसलमान, मांसाहार और भ्रम

"तुम्हारा ख़ंजर शाकाहारी है, दोस्त !
तुम्हारे बम-बंदूक, बारूद, टैंक सब शाकाहारी हैं…!"
बात एक दोस्त से बहस से शुरू हुई, जो पत्रकार भी हैं। बकरीद (ईद-उल-अज़हा) पर मैंने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट किया–
कुछ तथ्य: उनके लिए जिन्हें बकरीद पर बकरे के प्रति बहुत प्रेम उमड़ता है–
1. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS-5, 2019–21) के अनुसार, 57.3% पुरुष और 45.1% महिलाएं सप्ताह में कम से कम एक बार मांसाहार (चिकन, मछली या अन्य मांस) का सेवन करती हैं।
यानी कुल औसत आया क़रीब 52 फ़ीसद। यानी भारत में 52 फ़ीसदी लोग मांसाहारी हैं।
और इसमें अगर अंडा भी शामिल कर लेंगे तो ये प्रतिशत बहुत बढ़ जाएगा और औसतन 70 से 75 फ़ीसदी आबादी मांसाहारी मानी जाएगी।
2. प्यू रिसर्च सेंटर (2021) के अनुसार, भारत में लगभग 61% वयस्क स्वयं को मांसाहारी बताते हैं, जबकि 39% स्वयं को शाकाहारी मानते हैं।
3. कुछ अन्य अध्ययनों के आधार पर प्रकाशित रिपोर्ट में पाया गया कि केवल 20% भारतीय शाकाहारी हैं, जबकि 80% मांसाहारी हैं।
अब अहम सवाल– भारत में मुसलमान कितने प्रतिशत है?
भारत में मुस्लिम आबादी का अनुमानित आंकड़ा 2025 में लगभग 20 करोड़ है, जो देश की कुल जनसंख्या का लगभग 14.2% से 14.3% हिस्सा बनाता है।
अब तक उपलब्ध 2011 की जनगणना के अनुसार भी कुल मुस्लिम आबादी– 17.22 करोड़ थी। यानी देश की कुल जनसंख्या का 14.2%.
अब बताइए यह जो मांसाहार का आंकड़ा 70-75 फ़ीसद तक है। यह कौन लोग हैं!
और हां यह भी भ्रम है कि सभी मुसलमान मांसाहारी हैं। मेरे मुसलमान दोस्तों में कई शाकाहारी हैं और तो कई प्याज़-लहुसन भी नहीं खाते।
इसके अलावा एक और रोचक तथ्य नोट कर लीजिए--
भारत के प्रमुख मांस निर्यातक और उनके मालिक हिंदू यानी ग़ैर मुस्लिम हैं। (गूगल कर सकते हैं)
यह सब आंकड़े उन लोगों के लिए जो बकरीद पर बकरा या पशु प्रेम दिखाकर मुसलमानों को निशाने पर लेते हैं और शाकाहार पर प्रवचन देते हैं। इसी बार बीजेपी के कई ‘उग्र’ नेताओं ने ‘केक का बकरा’, ‘मिट्टी का बकरा’ बनाकर मुसलमानों को सांकेतिक क़ुर्बानी की सलाह दी।
इसी मैसेज से हमारे व्हाट्सऐप ग्रुप में बात या बहस शुरू हुई।
पत्रकार मित्र ने कहा—"मुकुल जी, अंतर आहार का नहीं, क्रूरता का है।"
मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया, "यानी अब मांसाहार में दो तरह के वर्ग हो गए—उदारवादी मांसाहारी और कट्टर मांसाहारी।
मैं बहुत प्रेम से हलाल करता हूं, वो बेरहमी से काटता है। वाह!"
मैं उदारवादी हूं– इसलिए ख़ुद बकरा-मुर्गा नहीं काटता। हां पैसा देकर कसाई से कटवा लेता हूं या ख़रीदता हूं। मेरे उदारवाद को सलाम। पुरस्कार मिलना चाहिए। क्यों?
मैं थोड़े व्यंग्य के मूड में था।
सवाल– "मैं क्रूरता की बात कर रहा हूं"
मेरा जवाब- किस क्रूरता की। मॉब लिचिंग की!
मैंने फिर व्यंग्य के जरिये उसे टटोला।
दोस्त कुछ देर के लिए ख़ामोश हो गया, तो मैं उसके सवालों पर गंभीरता से सोचने लगा। क्योंकि दोस्त, पत्रकार भी है, और मैं समझ रहा था कि यह उसके अकेले के सवाल नहीं है। बल्कि बरसों से एक सुनियोजित भ्रामक और नफ़रती अभियान के चलते एक बड़ा तबका अपने गिरेबान में झांके बिना, इसी तरह की सोच रखता है कि मुसलमान मांसाहारी होता है, इसलिए कट्टर होता है। धर्म और आस्था के नाम पर जानवरों को बेरहमी से मार डालता है, आदि-आदि।
हालांकि यह वही लोग हैं जिन्हें किसी इंसान की मॉब लीचिंग से फ़र्क़ नहीं पड़ता है। बल्कि तरह तरह के तर्क देकर उसे जायज भी ठहराने लगते हैं।
इन्हें फ़िलिस्तीन में इज़रायल का नरसंहार भी जायज लगता है। निर्दोष बच्चों पर बरसते बम भी ख़ुशी देते हैं। ये हमेशा भारत और पाकिस्तान को युद्ध में झोंकने पर आमादा रहते हैं, लेकिन मौक़ा देखकर मानवतावादी, अहिंसक भी बन जाते हैं। और कभी गाय और कभी बकरा प्रेम दिखाते हुए जीव हत्या पाप है के नारे लगाने लगते हैं।
फिर भी मुझे लगा कि इनसे अलग भी बहुत लोग हैं जो इनके प्रोपेगेंडा का शिकार होते हैं। क्योंकि हर बार बकरीद पर सोशल मीडिया पर ऐसे ही मैसेज वायरल होने लगते हैं। तो यह ज़रूरी है कि इसी बहाने इन सवालों को अपनी समझ से जांचा-परखा जाए। कई सवालों का जवाब Google और ChatGPT के जरिए खोजा—ताकि तर्क, विज्ञान, और नैतिकता के आधार पर संतुलित रूप में पूरे विषय को परखा जा सकें।
पहला सवाल– क्या मांसाहार क्रूरता है?
जब हम इस सवाल पर सोचते हैं तो हमें पता चलता है कि यह एक नैतिक और भावनात्मक दृष्टिकोण है—यह मूलतः इस पर निर्भर करता है कि हम क्रूरता को कैसे परिभाषित करते हैं, और हमारी संस्कृति, नैतिक मान्यताएं, और सहानुभूति किन प्राणियों तक सीमित है।
नैतिक दृष्टिकोण से देखें तो यह सही है कि मांस खाने के लिए प्राणियों की हत्या करनी पड़ती है। यदि कोई व्यक्ति मानता है कि हर जीवित प्राणी को जीने का अधिकार है, तो उसके लिए मांसाहार नैतिक रूप से क्रूर होगा।
प्राकृतिक दृष्टिकोण (Biological View) से समझे तो समझ आता है कि मनुष्य सर्वाहारी (omnivore) है – हमारा शरीर मांस और पौधों दोनों को पचाने में सक्षम है।
बहुत से जानवर मांस खाते हैं – शेर, मगरमच्छ, पक्षी, मछलियाँ आदि। वे नैतिक विकल्प नहीं लेते; वे प्रकृति के नियम पर चलते हैं।
इस तरह यदि भोजन को केवल जैविक आवश्यकता माना जाए, तो मांसाहार क्रूर नहीं, बल्कि प्राकृतिक क्रिया है।
संस्कृति और समाज: भारत में कुछ समुदायों ने मांस को हिंसा और अधर्म से जोड़ा है।
हालांकि हिंदू धर्म में भी बलि की परंपरा रही है — ऋग्वेद, यजुर्वेद में यज्ञों के दौरान पशुबलि का उल्लेख मिलता है। राजाओं और क्षत्रिय वर्ग में भी बलि को शोर्य से जोड़कर देखा जाता था। राजसूय, अश्वमेध आदि यज्ञों में शक्ति और वैभव प्रदर्शन हेतु बलि दी जाती थी।
जनजातीय/ग्रामीण/लोक परंपराओं में बलि की परंपरा रही है और कई जगह आज भी बनी हुई है।
देवी पूजन (काली, दुर्गा, ग्रामदेवी) में बकरे, मुर्गे, सूअर की बलि का प्रचलन रहा।
नेपाल और असम के कामाख्या मंदिरों में अभी भी जानवरों की बलि दी जाती है। दशहरा पर कई जगहों पर बकरे, भैंसे की बलि होती है। होली पर ख़ूब चिकन-मटन बिकता है। लेकिन यह बहस तब नहीं उठती।
यही नहीं बंगाल, असम, नगालैंड, केरल जैसे राज्यों में मांस एक सामान्य आहार है और उसे क्रूरता नहीं माना जाता।
अगर नैतिकता का पैमाना केवल “जीव की हत्या” है, तो:
पौधे भी जीव हैं। आधुनिक शोध बताता है कि वे प्रतिक्रिया देते हैं।
अंडा भी जान है, पर अधिकांश शाकाहारी लोग अंडा खाते हैं।
डेयरी उद्योग (दूध उत्पादन) में भी बछड़ों को मारने, गायों को बार-बार गर्भवती करने जैसी क्रूरताएं होती हैं। और अब तो जो वीगन वर्ग बना है वो सभी डेयरी प्रोडेक्ट का भी बहिष्कार करता है और इसे भी जीव हत्या का रूप बताता है।
यदि एक सुसंगत नैतिक दृष्टिकोण हो, तो सिर्फ मांस नहीं बल्कि डेयरी व चमड़ा भी इसी बहस में आते हैं।
इतने जवाब ढूंढकर जब पत्रकार मित्र के सामने पेश किए तो उसने क्रूरता के संदर्भ में कहा–
आप समझ नहीं पा रहे हैं। इतना सीधा सा फ़र्क़ है। इससे फूड साइकिल डिस्टर्ब होता है। वैज्ञानिक आधार नहीं है जब किसी आहार प्रणाली का, तब वो क्रूरता ही मानी जाएगी।
क्या वाकई मांसाहार से फूड साइकिल डिस्टर्ब होता है! यह एक वैज्ञानिक दावा है, इसलिए इसे प्रमाण की कसौटी पर परखना जरूरी है।
सच्चाई क्या है? फूड साइकिल (Food Chain) या फूड वेब (Food Web) एक पारिस्थितिकी तंत्र में ऊर्जा का स्थानांतरण दर्शाता है: सूरज → पौधे (Producers) → शाकाहारी (Herbivores) → मांसाहारी (Carnivores) → अपघटक (Decomposers)
मनुष्य इस चक्र का हिस्सा है, और वह एक सर्वाहारी (Omnivore) जीव है—पौधे और मांस दोनों खा सकता है।
प्राकृतिक फूड साइकिल में मांसाहार से कोई असंतुलन नहीं होता, जब तक वह स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुरूप हो।
मांसाहार अपने आप में फूड साइकिल को डिस्टर्ब नहीं करता।
हां, औद्योगिक स्तर पर मांस उत्पादन (factory farming) और अति-उपभोग (overconsumption) से ज़रूर पर्यावरणीय संकट हो सकता है (ग्रीनहाउस गैसें, भूमि क्षरण आदि)।
इसके अलावा मांसाहार का वैज्ञानिक पोषण आधार मौजूद है। मांस, मछली, अंडा आदि में: उच्च गुणवत्ता का प्रोटीन, विटामिन B12 (जो शुद्ध शाकाहारी आहार में नहीं होता), ओमेगा-3 फैटी एसिड (विशेषकर मछली में), हीम आयरन (शाकाहारी स्रोतों की तुलना में अधिक आसानी से अवशोषित)
इस तरह मांसाहार का पोषण और विकास में योगदान वैज्ञानिक रूप से सिद्ध है। हां, यह भी सच है कि शुद्ध शाकाहारी आहार भी यदि संतुलित हो तो पर्याप्त पोषण दे सकता है। लेकिन ये शायद मांसाहार से भी महंगा होगा।
लेकिन पहले से दुराग्रह पाले लोग इतनी आसानी से नहीं समझते। इसलिए फिर सवाल आया–
सवाल– बक़रीद पर क़ुर्बानी को आप ऐसे समझिए कि आजकल उत्तराखंड में कैसे बादल फट रहे हैं। एक साथ अगर 6 महीने का बारिश एक छोटे से क्षेत्रफल में हो जाए तो क्या होगा। क्लाउड बर्स्ट। यही तो क्रूरता है। और हिंदू सिख ईसाई की ओर से कोई भूमिका इस क्लाउडबर्स्ट में नहीं निभाई जा रही है।
यह क्लाउडबर्स्ट क्या होता है आपको मालूम होगा– बादल फटना। यानी एक समय एक जगह इतना पानी इकट्ठा होकर बरस जाए तो हम कहते हैं क्लाउडबर्स्ट हो गया यानी बादल फट गया। यह एक आपदा ही है लेकिन इसे बकरीद से जोड़ने का क्या मतलब है।
तो पत्रकार मित्र का मानना है कि बकरीद पर एक समय में बड़े पैमाने पर जानवरों की हत्या प्रकृति में एक असंतुलन (disruption) पैदा करती है—जैसे कि क्लाउडबर्स्ट। और वह कहना चाहता है कि "क्या इतनी बड़ी संख्या में जानवरों की क़ुर्बानी वाकई ज़रूरी है?"
तो मैं भी यहां साफ़ कर दूं कि मैं भी व्यक्तिगत तौर पर केवल रिचुअल के नाम पर इस तरह क़ुर्बानी या बलि प्रथा के पक्ष में नहीं हूं। लेकिन लोगों की अपनी अलग-अलग आस्थाएं और मान्यताएं हैं। बकरीद हज़रत इब्राहीम की क़ुर्बानी की याद में होती है। जिसका मूल संदेश है– “अपने सबसे प्यारे को ईश्वर की राह में देना।”
तो मैं केवल क़ुर्बानी के आधार पर उनसे घृणा करुं, उन्हें निशाने पर लूं, या एक ही दिन जीव प्रेम दिखाऊं मैं इसे भी सही नहीं समझता। यह नैतिकता नहीं पाखंड है।
आइए अब यह जांचे कि पत्रकार मित्र का बकरीद की क़ुर्बानी को क्लाउडबर्स्ट की तरह सोचना क्या सही है या ग़लत।
यहां दो-तीन बातें ध्यान रखने योग्य हैं--1- रोज़ ज़रूरत से ज़्यादा नहीं कम बारिश हो रही है, मतलब रोज जितने जानवर खाने के लिए काटे जा रहे हैं वो आबादी के हिसाब से बेहद कम हैं। क्योंकि एक बड़ी आबादी रोज़ मीट नहीं खाती और एक बड़ी आबादी को तो सप्ताह-महीने में ही मिल पाता है या नहीं भी मिलता।
2- बकरीद के दिन मांस विक्रेता अपनी दुकान पर अपना बकरा-मुर्गा काटकर नहीं बेचते, लोग अपना जानवर लाते हैं। इस दिन आमतौर पर होटल भी बंद रहते हैं, क्योंकि सब जानते हैं कि आज घर-घर मीट पक रहा है।
3- और सब लोग ही क़ुर्बानी नहीं दे पाते। सिर्फ़ सक्षम लोग ही जो बकरा, भैंसा खरीदने में सक्षम हैं वही क़ुर्बानी देते हैं। तभी तो इस्लाम में यह परंपरा है कि किसी भी क़ुर्बानी के गोश्त को कम से कम तीन बराबर भागों में बाँटा जाए: एक तिहाई हिस्सा गरीबों और ज़रूरतमंदों में, जो ख़ुद क़ुर्बानी देने में सक्षम नहीं हैं,एक तिहाई रिश्तेदारों और दोस्तों को सामाजिक मेल-जोल और भाईचारे के लिए और एक तिहाई अपने परिवार के लिए।
यानी आज के दिन वे लोग भी मटन खा-पका लेते हैं जो कभी ख़ुद ख़रीद कर खाने में सक्षम नहीं हैं।
इसलिए जैसा आप कहते हैं क्लाउडबर्स्ट, उसकी कोई संभावना नहीं है। यानी बकरीद के दिन जानवरों की क़ुर्बानी इतनी ज्यादा नहीं होती कि उसे किसी “असंतुलन” या “अतिरेक” की संज्ञा दी जा सके?
इसका उत्तर अन्य तथ्यों के आधार पर देखा जा सकता है।
1. भारत में औसतन प्रति व्यक्ति सालाना मांस की खपत लगभग 5–6 किलोग्राम है।
जबकि दुनिया का औसत है– 35–40 किलोग्राम, अमेरिका में 100 किलो से भी ज़्यादा।
इसका मतलब भारत में मांस खाने वालों की संख्या भले हो, लेकिन खपत बेहद कम है।
2. बकरीद के दिन कितने जानवर क़ुर्बान होते हैं?
भारत सरकार बकरीद पर क़ुर्बानी के आंकड़े आधिकारिक रूप से नहीं रखती, क्योंकि यह निजी धार्मिक कार्य है।
मगर शोधकर्ताओं और राज्य स्तर की रिपोर्टों के आधार पर, भारत में बकरीद पर क़ुर्बानी में लगभग 50 लाख से 1 करोड़ जानवरों (बकरा, भैंस, गाय, ऊंट) तक की संख्या अनुमानित है।
आइए इसकी तुलना करें:
भारत में हर साल लगभग 30 करोड़ मवेशी और मुर्गे वध के लिए काटे जाते हैं, सामान्य उपभोग के लिए।
मतलब बकरीद का हिस्सा कुल वार्षिक वध का 3% से भी कम है।
3. क्या एक दिन में इतना मीट असामान्य है? नहीं। बकरीद पर वाकई एक दिन में ज्यादा मीट पकता है, लेकिन: यह एक ही समय पर, एक ही शहर में नहीं होता। यह पूरे देश में फैला होता है।
4. तो क्या ये "फूड साइकिल" या "इकोलॉजी" पर प्रभाव डालता है?
ऐसा कोई वैज्ञानिक या सामाजिक अध्ययन नहीं मिला है जो यह साबित करे कि: बकरीद जैसे त्योहार पर एक दिन की क़ुर्बानी ने किसी प्राकृतिक असंतुलन, स्थानीय जैविक चक्र, या खाद्य आपूर्ति को नुकसान पहुंचाया हो।
उल्टा, बकरीद पर: जानवर पहले से पाले जाते हैं, बाज़ार में सप्लाई पहले से नियंत्रित होती है।
तो कुल मिलाकर बकरीद पर हिन्दुत्ववादियों का बकरा प्रेम, शाकाहार या जीव प्रेम नहीं बल्कि एक सांप्रदायिक नफ़रती और सियासी एजेंडा है। यह उसी इस्लामोफ़ोबिया का हिस्सा है जिसके जरिये मुसलमानों को अमानवीय और दुश्मन साबित करने की साज़िश देश और दुनिया में लंबे समय से चल रही है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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