मुसलमानों के ख़िलाफ़ हो रही हिंसा पर अखिलेश व मायावती क्यों चुप हैं?

पिछले एक महीने से देश के विभिन्न हिस्सों, खासकर हिन्दी प्रदेशों में मुसलमानों के खिलाफ तरह-तरह की हिंसक वारदातें हो रही हैं उसमें राजधानी दिल्ली भी शामिल है। 16 मार्च को 13 विपक्षी दलों के नेताओं ने मुसलमानों के खिलाफ देश के विभिन्न भागों में फैलाए जा रही हिंसा के खिलाफ चिंता जाहिर की। जिन नेताओं ने उस अपील पर हस्ताक्षर किए हैं उसमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी, सीपीआई महासचिव डी राजा, तृणमूल अध्यक्ष ममता बनर्जी, डीएमके महासचिव के स्टालिन, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन, सीपीआईएमएल के दीपांकर भट्टाचार्य और आरजेडी के तेजस्वी यादव के नाम शामिल हैं। लेकिन हस्ताक्षर करने वालों में चौंकाने वाली अनुपस्थिति समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव और बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती की है जिनके राज्य में पिछले पांच वर्षों में सबसे भयावह सांप्रदायिक तनाव दिखता रहा है।
वैसे तो जब से बीजेपी की सरकार सत्ता में आई है तबसे मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिक हिंसा आम बात हो गयी है। लेकिन उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उस राज्य में सीएए-एनआरसी कानून के खिलाफ सबसे अधिक हिंसा हुई थी। उस दौरान भी राज्य के दोनों महत्वपूर्ण विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सिर्फ ट्विटर पर ट्वीट करके अपना फर्ज निभा लिया था जबकि संगठन के हिसाब से खत्म हो चुकी कांग्रेस पार्टी एनआरसी-सीएए के खिलाफ प्रदर्शन में हर जगह शामिल रही थी।
पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी प्रदर्शनकारियों के समर्थन में दिल्ली से चलकर लखनऊ पहुंच जा रही थीं जबकि लखनऊ में ही मौजूद अखिलेश यादव और मायावती के पास वक्त नहीं होता था कि पूरे देश में चल रहे उन आंदोलनकारियों के साथ जुड़ते। हालांकि अखिलेश यादव ने उस समय विधानसभा के विशेष सत्र के दौरान अपने विधायकों के साथ सीएए और एनआरसी के खिलाफ साइकिल यात्रा जरूर निकाली थी। इससे पहले तक वह इस काले कानून का ट्विटर पर ही विरोध कर रहे थे। सालभर पहले उत्तर प्रदेश सहित देश के विभिन्न भागों में इस कानून का विरोध कर रहे लोगों में बहुसंख्य मुसलमानों के होने और राज्य में मायावती व अखिलेश की आंशिक चुप्पी के कारण हिन्दुओं के एक तबके में यह मैसेज गया कि नागरिकता संशोधन कानून सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ है।
वैसे भी बीजेपी की पुरजोर कोशिश रही थी कि सीएए का मसला किसी भी तरह हिन्दू बनाम मुसलमान का हो जाए। उत्तर प्रदेश के दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों की उदासीन चुप्पी से बीजेपी को इसे धुर्वीकरण करने में सफलता भी मिली थी। मीडिया की मदद व विपक्षी दलों के कुछ बड़े नेताओं की चुप्पी की वजह से बीजेपी अपनी इस रणनीति में सफल भी रही है क्योंकि इस प्रदर्शन के दौरान अधिकतर मुसलमानों को ही गिरफ्तार किया गया था। बीजेपी मुसलमानों को गिरफ्तार करके पोलराइज़ हो चुके हिन्दुओं में यह संदेश भी देना चाह रही थी कि इस कानून का सिर्फ मुसलमान विरोध कर रहे हैं।
हकीकत में जिस रूप में इस कानून का उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक विरोध हो रहा था, यह इस बात को साबित करने के लिए काफी था कि इस कानून का सिर्फ मुसलमानों से लेना-देना नहीं है। सीएए और एनआरसी का कम से कम सौ से ज्यादा विश्वविद्यालयों में विरोध हो रहा था। अगर सरकार की इस सांप्रदायिक सोच को समझने की कोशिश करें तो यह बात बड़ी आसानी से समझ में आ सकती है कि जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को छोड़कर देश के किस विश्वविद्यालय में मुसलमान छात्र-छात्राओं की बहुतायत है जिससे कि वे सड़क पर उतर जाएं! इसलिए देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों में हो रहे प्रदर्शन का सीधा सा मतलब यह है कि सरकार पुरजोर कोशिश कर रही थी कि यह मामला हिन्दू-मुस्लिम हो। जिसमें उसे हिन्दी पट्टी में निश्चित रुप सफलता हाथ लगी भी थी।
समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी के नेताओं की सबसे बड़ी परेशानी यही है कि वे संस्कृति के सवाल को ठीक से समझ ही नहीं पा रहे हैं। समाजवादी पार्टी डॉ. राममनोहर लोहिया के सांस्कृतिक कार्यक्रम से आगे जाने की बात को तो छोड़ ही दीजिए, वहां से भी पीछे चली गई है जबकि बीजेपी ने पूरी राजनीति को सांस्कृतिक अमली जामा पहनाकर राजनीति पर कब्जा कर लिया है।
उदाहरण के लिए, डॉक्टर लोहिया का राम मेला, सीता मेला या कृष्ण मेला सांस्कृतिक लामबंदी के लिए किया गया एक बेहतर प्रयास था। जिस समय लोहिया इस तरह के प्रयोग कर रहे थे, उस समय जनता की गोलबंदी के लिए सांस्कृतिक आयोजन द्वारा आम लोगों को अपने साथ जोड़ना भी एक उद्देश्य था। लोहिया के इस सांस्कृतिक आयोजन से मुसलमान नाराज नहीं होते थे, बल्कि दूसरे समुदाय के साथ सामाजिक स्तर पर उनके रिश्ते जुड़ते थे। लोहिया के बाद समाजवादी खेमे ने खुद को पूरी तरह सांस्कृतिक आयोजनों से काट लिया जबकि बीजेपी ने पूरे उत्तर भारत में राम को हिन्दू संस्कृति का महानायक बना दिया।
पिछले साल, 2021 के 31 दिसंबर को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को दिए गए एक साक्षात्कार में अखिलेश यादव से पूछा गया कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि सपा इस मसले का विरोध उस रूप में इसलिए नहीं कर पा रही है क्योंकि उसे लगता है कि 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए दंगे का विरोध करने पर मुसलमानपरस्त पार्टी होने का आरोप उस पर लग गया था? इसके जवाब में अखिलेश यादव कहते हैं, “बीजेपी वैसे षडयंत्रकारी काबिल लोगों से भरी पड़ी है। भारतीय जनता पार्टी कभी भी एक्सप्रेस वे के मुद्दे पर चुनाव नहीं लड़ सकती है। उस पार्टी ने लोगों को शौचालय दिया है, लोग उसके बारे में ही बात कर रहे हैं जबकि हमने लैपटॉप दिया था। लेकिन जनता लैपटॉप के बारे में बात नहीं करती है… हमारी पार्टी किसी भी आंदोलन में पीछे नहीं है। हम सबसे आगे खड़े होकर लड़ाई लड़ रहे हैं।”
अब इस सवाल और जवाब को देखें तो लगता है कि अखिलेश यादव को इस पूरे मामले में वस्तुस्थिति की बिल्कुल जानकारी नहीं है। अगर वे खुद कह रहे हैं कि लोग लैपटॉप नहीं शौचालय के बारे में बात कर रहे हैं तो उन्हें एक राजनीतिक पार्टी के रूप में जनता को समझाना चाहिए कि किस चीज की 21वीं सदी में ज़रूरत है लेकिन यह बताने में उनकी पार्टी पूरी तरह असफल रह जा रही है।
आज जो स्थिति बन गई है उसमें एक राजनीतिक दल के रूप में इसकी सख्त जरूरत है कि जब तक इस मसले को भाजपा सांप्रदायिक रूप दे, इससे पहले इसे जन आंदोलन में तब्दील कर दिया जाए। राजनीति में अवसर तो आते ही रहते हैं, सबसे अहम सवाल यह है कि कौन राजनीतिक दल उस अवसर को अपने हित में कितना बेहतर इस्तेमाल कर पाता है? अभी तक यही लग रहा है कि गोबरपट्टी में इसका सबसे खतरनाक इस्तेमाल भारतीय जनता पार्टी ने किया है जिसके पास कुछ भी नहीं है जबकि मायावती और अखिलेश यादव की चुप्पी ने इस आंदोलन और लोकतंत्र को बहुत नुकसान पहुंचाया है।
पिछले महीने संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने बीजेपी के खिलाफ एकमुश्त समाजवादी पार्टी को वोट दिया है लेकिन अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा नेतृत्व उस समुदाय के हर समस्या यहां तक कि जान माल की हिफाजत न किए जाने के सवाल पर भी चुप्पी साध लेती है। इसी तरह मायावती विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के खत्म हो जाने का सारा दोष मुसलमानों पर मढ़ रही हैं जबकि पूरे चुनाव में वह ब्राह्मण जोड़ों अभियान चला रही थीं। हकीकत तो यह है कि उन्होंने एक बार भी मुसलमानों का नाम नहीं लिया था।
अखिलेश-मायावती जैसे नेता यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि जिस सामाजिक न्याय के नाम पर वे राजनीति करना चाहते हैं उसके रास्ते में सबसे बड़ी बाधा हिन्दुत्व है। और दुखद यह है कि हिन्दुत्व के सामने गोबरपट्टी के सभी नेताओं ने आत्मसमर्पण कर दिया है।
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