साल 2021: भारत के 'तालिबानीकरण' की परियोजना सरकारी शक्ल लेती दिखी!

हर कैलेंडर वर्ष अपने दामन में तमाम तरह की कड़वी-मीठी यादें समेटते हुए बिदा होता है। ये यादें अंतरराष्ट्रीय घटनाओं को लेकर भी होती हैं और राष्ट्रीय घटनाओं को लेकर भी। राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक, विज्ञान और खेल आदि क्षेत्रों जुड़ी कड़वी-खट्टी-मीठी यादों की वजह से उस साल को याद किया जाता है। कभी-कभी भीषण प्राकृतिक अथवा मानव निर्मित आपदाओं के लिए भी कोई साल इतिहास के पन्नों में यादगार साल के तौर पर दर्ज हो जाता है।
सवाल है कि बीता हुआ साल 2021 किन खास बातों के लिए याद रखा जाएगा या इस वर्ष की कौनसी ऐसी बातें हैं, जिनकी यादें भारतीय इतिहास में दर्ज हो जाएंगी? आज से कुछ सालों बाद जब यह सवाल पूछा जाएगा तो जो लोग इस देश की विविधताओं से, इस देश के स्वाधीनता संग्राम की अगुवाई करने और उसमें कुर्बानी देने वाले महानायकों से और इस देश के संविधान से प्यार करते हैं, उनके लिए इस सवाल का जवाब देना बहुत आसान होगा।
ऐसे सभी लोगों का यही जवाब होगा कि साल 2019 और 2020 की तरह यह साल भी भारतीय संविधान और देश की विविधताओं पर सांप्रदायिक नफरत से भरी विचारधारा के निर्मम हमलों का साल था। इन हमलों से आम आदमी के जीवन की दुश्वारियों में तो इजाफा हुआ ही, देश के संविधान और स्वाधीनता संग्राम के दौरान विकसित हुए वे उदात्त मूल्य भी बुरी तरह लहूलुहान हुए, जो भौगोलिक, सांस्कृतिक और सामाजिक भावनात्मक तौर पर इस देश की एकता और अखंडता बनाए रखने की गारंटी हैं।
यह साल धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या के साथ ही भारतीय अर्थव्यवस्था के अभूतपूर्व रूप से ध्वस्त होने के लिए भी याद रखा जाएगा, जिसके नतीजे के तौर पर जिसके नतीजे के तौर पर देश में गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है। यह बढ़ोतरी किस स्तर तक पहुंच गई है, यह जानने के लिए ज्यादा पड़ताल करने की जरूरत नहीं है। इसकी स्थिति को 'प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ के जरिए बहुत आसानी से समझा जा सकता है। खुद सरकार का दावा है कि इस योजना के तहत 80 करोड़ राशनकार्ड धारकों को हर महीने मुफ्त राशन दिया जा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय बाजार में डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत गिरने का सिलसिला इस साल भी बना रहा और वह सबसे बुरी तरह पिटने वाली एशियाई मुद्रा बन गया। पिछले साल भारत सरकार ने अपना खर्च चलाने के लिए रिजर्व बैंक के रिजर्व कोष से एक बार नहीं, दो-दो बार पैसे लिए थे, इस साल उसने मुनाफे में चल रहे सरकारी उपक्रमों को धड़ल्ले से निजी क्षेत्रों को बेचा।
भारत सरकार भले ही दावा करे कि आर्थिक तरक्की के मामले में पूरी दुनिया में भारत का डंका बज रहा है, लेकिन हकीकत यह है कि वैश्विक आर्थिक मामलों के तमाम अध्ययन संस्थान भारत की अर्थव्यवस्था का शोकगीत गा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनडीपी ने तमाम आंकड़ों के आधार पर बताया है कि है भारत टिकाऊ विकास के मामले में दुनिया के 190 देशों में 117वें स्थान पर है। अमेरिका और जर्मनी की एजेंसियों ने जानकारी दी है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स में दुनिया के 116 देशों में भारत 101 वें स्थान पर है। संयुक्त राष्ट्र के प्रसन्नता सूचकांक में भारत के स्थिति में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है। 'वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक-2021’ में भारत को 139वां स्थान मिला है। 149 देशों में भारत का स्थान इतने नीचे है, जितना कि अफ्रीका के कुछ बेहद पिछड़े देशों का है। इस सूचकांक में पाकिस्तान, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार जैसे छोटे-छोटे पड़ोसी देश भी खुशहाली के मामले में भारत से ऊपर है।
कुछ समय पहले जारी हुई पेंशन सिस्टम की वैश्विक रेटिंग में भी दुनिया के 43 देशों में भारत का पेंशन सिस्टम 40वें स्थान पर आया है। उम्रदराज होती आबादी के लिए पेंशन सिस्टम सबसे जरूरी होता है ताकि उसकी सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। भारत इस पैमाने पर सबसे नीचे के चार देशों में शामिल है। पासपोर्ट रैंकिंग में भी भारत 84वें स्थान से फिसल कर 90वें स्थान पर पहुंच गया है। यह स्थिति भी देश की अर्थव्यवस्था के पूरी तरह खोखली हो जाने की गवाही देती है।
सरकार का कहना है कि कोरोना महामारी ने दुनिया भर की अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया है। लेकिन सच यह है कि भारत की अर्थव्यवस्था के ढहने का सिलसिला कोरोना महामारी के पहले नोटबंदी के साथ ही शुरू हो गया था, जिसे कोरोना महामारी और याराना पूंजीवाद पर आधारित सरकार की आर्थिक नीतियों ने तेज किया है और जिसके चलते देश आर्थिक रूप से खोखला हो रहा है मगर चंद कॉरपोरेट घरानों की संपत्ति में बेतहाशा इजाफा हो रहा है।
वैश्विक स्तर पर भारत की साख सिर्फ आर्थिक मामलों में ही नहीं गिर रही है, बल्कि लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी, मानवाधिकार और मीडिया की आजादी में भी भारत की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग इस साल पहले से बहुत नीचे आ गई है।
बहुत मुमकिन है कि इस पूरे सूरत-ए-हाल से बेफिक्र हिंदुत्ववादी विचारधारा के संगठन और विकास का झांसा देकर सत्ता में आए उनके लोग देश को हिंदू राष्ट्र बनाने के अपने मंसूबे को पूरा करने की दिशा में इस साल को अपने लिए उपलब्धियों से भरा मान लें। वैसे सावरकर-गोलवलकर प्रणित हिंदुत्व की विभाजनकारी विचारधारा को बढ़त तो 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद से ही मिलने लगी थी लेकिन उसके दूरगामी नतीजे 2019 से आना शुरू हुए और साल 2021 में तो वे बहुत साफ तौर नजर आने लगे।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपमानित-लांछित करने और उनके हत्यारे गिरोह को महिमामंडित करने के सिलसिले में भी इस साल अभूतपूर्व तेजी आई और उसने नए आयाम छूए। गांधी जी की हत्या को जायज ठहराया जाने लगा, नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे की मूर्तियां स्थापित होने लगी और उनके मंदिर बनने लगे। यही नहीं, 2014 से शुरू हुए इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए अब देश को 1947 में मिली आजादी को भीख में मिली आजादी बताया जाने लगा है। बताया जा रहा है कि देश को वास्तविक आजादी 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद मिली।
एक ओर यह सब सरकार समर्थक हिंदुत्ववादी संगठनों के तत्वावधान में हुआ तो सरकारी स्तर पर भी साल 2021 में लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने के वीभत्स और डरावने प्रयास देखने को मिले। साल खत्म होते-होते वाराणसी में सरकारी खजाने के 650 करोड रुपए से बने काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडोर के लोकार्पण के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा रचा गया बेहद खर्चीला प्रहसन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
जिस गंगा नदी में कुछ इसी साल कोरोना महामारी के दौरान उचित इलाज और ऑक्सीजन के अभाव में मारे गए असंख्य लोगों की लाशें तैरती हुई देखी गई थीं, उसी गंगा में और उसके तट पर प्रधानमंत्री मोदी ने टीवी कैमरों की मौजूदगी में खूब 'धार्मिक क्रीडाएं’ कीं। पंथनिरपेक्ष संविधान की शपथ लेकर प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए नरेंद्र मोदी इस पूरे प्रहसन में विशुद्ध रूप से एक धर्म विशेष के नेता के रूप में नजर आए, ठीक उसी तरह जैसे अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ कर बनाए जा रहे राम मंदिर के शिलान्यास के मौके पर पिछले साल नजर आए थे। इसके अलावा भी सरकारी तामझाम के साथ प्रधानमंत्री ने कई धार्मिक स्थलों की यात्राएं कीं।
भारत जैसे बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक देश के प्रधानमंत्री का इस तरह एक धर्म विशेष तक सीमित या संकुचित हो जाना संवैधानिक मूल्यों का संविधान की शपथ का मखौल उड़ाना है। यह स्थिति भारत के भविष्य को लेकर चिंतित और परेशान करने वाली है। ऐसी ही परेशान करने वाली घटनाएं हाल के दिनों में उत्तराखंड के हरिद्वार और छत्तीसगढ़ के रायपुर में 'धर्म संसद’ के नाम पर हुए जमावड़े के रूप में हुई, जिसमें देश की मुसलमानों की आबादी मिटाने का संकल्प लिया गया और हिंदुओं से अपील की गई कि वे किताब-कॉपी छोड़ कर हाथों में तलवार लें और ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करें। एक तथाकथित महंत ने कहा कि अगर दस साल पहले वह संसद में होता तो उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को गोलियों से उसी तरह छलनी कर देता जैसा नाथूराम गोडसे ने गांधी को किया था। साधु वेशधारी जिन लोगों ने अपने भाषणों में यह बातें कही, वे सभी अक्सर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिंदू परिषद के मंचों पर भी अक्सर मौजूद रहते हैं और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित भाजपा और आरएसएस के शीर्ष नेताओं के साथ भी उनकी तस्वीरें देखी जा सकती हैं।
हरिद्वार और रायपुर की तथाकथित धर्म संसद में दिए गए भाषणों को सुनने के बाद सवाल उठता है कि क्या दुनिया के किसी भी सभ्य देश में इस तरह की बातों की अनुमति दी जा सकती है? पुलिस प्रशासन की मौजूदगी में इस धर्म संसद में हुए भाषण इस बात का स्पष्ट संकेत है कि भारत का तालिबानीकरण अब एक सरकारी परियोजना की शक्ल लेता जा रहा है।
दुनिया भर में भारत का डंका बजने का आलम यह है कि दुनिया के कई देशों ने हरिद्वार और रायपुर में कथित धर्म संसद में हुए भाषणों पर चिंता जताई है और मालदीव जैसे छोटे से पड़ोसी देश तक में विपक्ष मांग कर रहा है कि भारत से दूरी बना कर रखी जाए, क्योंकि उसका तालिबानीकरण मालदीव के हितों को नुकसान पहुंचाएगा।
देश के विभिन्न इलाकों में मुसलमानों और ईसाइयों के उपासना स्थलों पर, पादरियों और ननों पर तथा दलितों-आदिवासियों पर हिंदुत्ववादी संगठनों के हमले कोई नई बात नहीं है। गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ, राजस्थान आदि राज्यों में इस तरह की घटनाएं होती रही हैं। लेकिन केंद्र इस साल इस सिलसिले में तेजी से उभार आया। मध्य प्रदेश, कर्नाटक और हरियाणा में इस तरह की घटनाएं खूब हुईं। जहां मध्य प्रदेश और कर्नाटक में चर्चों, पादरियों, ननों और मुसलमानों पर हमले की घटनाएं हुईं, वहीं दिल्ली से हरिणाया के गुरू ग्राम में हिंदुत्ववादी संगठनों ने मुसलमानों को जुमे की नमाज पढने से रोका। खुद हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने कहा कि उनकी सरकार मुसलमानों को खुले नमाज पढने की अनुमति नहीं देगी। इस तरह की तमाम घटनाओं को केंद्र सरकार की भी मौन सहमति इसी बात से जाहिर होती है कि प्रधानमंत्री या गृह मंत्री ने न तो इन घटनाओं की निंदा की और न ही राज्य सरकारों को ऐसी घटनाओं पर रोक लगाने के लिए आवश्यक कदम उठाने के निर्देश दिए। कहा जा सकता है कि सरकार की शह पर हिंदुत्ववादी संगठनों का यह रवैया देश को गृहयुद्ध में झोंकने का प्रयास है। इस सिलसिले में बुजुर्ग फिल्म अभिनेता नसीरउद्दीन शाह ने भी इस आशय की आशंका जताई है, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
इस बीत रहे साल में संसद और चुनाव आयोग जैसी हमारी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाओं के पतन का सिलसिला भी पहले से तेज हुआ है। अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय, आयकर आदि सरकारी एजेंसियों का दुरुपयोग तो सरकार ने जारी रखा ही, इसमें पेगासस नामक सॉफ्वेयर से विपक्षी नेताओं, सुप्रीम कोर्ट के जजों, नौकरशाहों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के फोन की जासूसी का एक नया आयाम और जुड़ गया, जिसकी जांच अभी सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में जारी है।
आम आदमी को निराश, परेशान और चिंतित करने वाली तमाम घटनाओं के बीच एक राहत वाली बात यह रही कि एक साल से ज्यादा समय तक हर तरह के सरकारी और गैर सरकारी दमन का सामना करते हुए चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन ने सरकार को अपने कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर कर दिया। सरकार को वे तीनों कृषि कानून वापस लेने पड़े जिन्हें किसान अपने और अपनी खेती के लिए मौत का परवाना मान रहे थे। इसके बावजूद इस समय देश का जो परिदृश्य बना हुआ है, वह आने वाले साल में हालात और ज्यादा संगीन होने के संकेत दे रहा है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं)
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