यूजीसी ख़त्म होने से राजनीतिक नियंत्रण बढ़ेगा

मोदी सरकार विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को समाप्त करने के लिए संसद के आगामी मानसून सत्र में क़ानून लाने जा रही है। वर्तमान में यूजीसी की दो महत्वपूर्ण भूमिकाएं हैं। पहला कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को धन का वितरण करना जो अब मानव संसाधन विकास मंत्रालय के पास चला जाएगा। दूसरी भूमिका एक नियामक के रूप में है जिसका स्थान अब भारतीय उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) ले लेगा। हालांकि इस कमीशन के पास वितरित करने के लिए कोई धन नहीं होगा।
प्रस्तावित संस्था अकादमिक पर राजनीतिक नियंत्रण को बढ़ाएगा। सच्चाई यह है कि फंड का वितरण अब एचआरडी मंत्रालय के पास होगा जो इसका एक स्पष्ट संकेत है। इसके अलावा प्रस्तावित एचईसीआई पूरी तरह से सरकारी नियंत्रित वाली संस्था होगी जो न केवल उच्च शिक्षा की निगरानी करेगा और उच्च शिक्षा संस्थानों को निर्देश देगा, बल्कि इस तरह के निर्देशों का अनुपालन न करने पर सख़्त सजा का प्रावधान होगा जो अब तक असंभव था। इसके अलावा विश्वविद्यालय जो अब तक अपने स्वयं के नए पाठ्यक्रम लागू करने के लिए स्वायत्त रहे हैं उनसे ले लिया जाएगा। अब से सभी नए पाठ्यक्रमों के लिए एचईसीआई की मंज़ूरी लेनी होगी।
आइए एचईसीआई के संगठनात्मक ढ़ांचे से इसकी शुरूआत करते हैं। एचईसीआई में एक अध्यक्ष और एक उपाध्यक्ष होंगे जिसे एक समिति द्वारा चुना जाएगा जिसमें कैबिनेट सचिव और मानव संसाधन सचिव शामिल होंगे। इसके अलावा इसमें बारह सदस्य होंगे जिनमें विभिन्न "सहभागी मंत्रालय", दो सेवारत वाइस चांसलर, एक उद्योगपति और दो प्रोफेसर शामिल होंगे। इस तरह एचईसीआई न केवल सरकार द्वारा नामित संस्था होगी बल्कि इसमें वास्तव में नगण्य शैक्षिक प्रतिनिधित्व होगा। भले ही हम शिक्षाविदों के रूप में वाइस चांसलर को मान लेते हैं, जिनकी इसमें आवश्यकता नहीं है, एचईसीआई में शामिल कुल चौदह में से केवल चार ही शिक्षाविद होंगे। इसलिए एचईसीआई प्रभावी रूप से एक यंत्र होगा जिसके माध्यम से अकादमिक दुनिया जो कुछ होता है वह सरकारी अधिकारियों के समूह द्वारा तय किया जाएगा जो अपने राजनीतिक मालिकों और सरकार द्वारा नियुक्त कुछ अन्य लोगों के प्रति जवाबदेह होंगे। और अगर एचईसीआई सरकार की इच्छाओं के विपरीत काम करती है तो इसके सदस्यों को सरकार द्वारा हटाया जा सकता है। वर्तमान में एक बार जब यूजीसी के सदस्यों को नियुक्त कर लिया जाता है तो उसे सरकार द्वारा हटाया नहीं जा सकता है; प्रस्तावित एचईसीआई क़ानून के इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है।
जैसा कि यह पर्याप्त नहीं था, एक सलाहकार परिषद होगा जिसे एचईसीआई मार्गदर्शन करेगा जिसमें अध्यक्ष के रूप एचआरडी मंत्री होंगे और जो वर्ष में दो बार बैठक करेंगे। दूसरे शब्दों में एचआरडी मंत्री एचईसीआई रचना का निर्धारण नहीं करेंगे बल्कि वास्तव में वे इसके सलाहकार परिषद के अध्यक्ष के रूप में सीधे तौर पर इसके मामलों में दख़ल देंगे। निस्संदेह सलाहकार परिषद में राज्यों का भी प्रतिनिधित्व होगा लेकिन यह एक मामूली है। अगर राज्यों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने की गंभीर इच्छा थी तो उसे एचईसीआई में ही समायोजित किया जाना चाहिए था। इसे मामूली तौर पर शामिल करने का मतलब देश के अकादमिक ढ़ांचे में केंद्र सरकार द्वारा राजनीतिक हस्तक्षेप को केवल छिपाना है।
सच्चाई यह है कि यूजीसी को हालांकि मूल रूप से एक स्वायत्त निकाय के रूप में देखा जाता है जिसमें शिक्षाविद् शामिल होते हैं जिसे सरकार द्वारा स्वीकार्य रूप से नामांकित किया जाता है इसने भी आखिरकार राजनीतिक स्वरूप ले लिया है। बीजेपी सरकार आरएसएस उम्मीदवारों की नियुक्ति पर ज़ोर देती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी साखा क्या हैं। सिर्फ यूजीसी नहीं बल्कि सभी निकायों में सभी महत्वपूर्ण पदों के लिए वह ऐसा करती है। लेकिन ये एचईसीआई राजनीतिक हस्तक्षेप की इस घटना को आधिकारिक रूप से इजाज़त देता है।
एचईसीआई न केवल सरकार द्वारा नियंत्रित संस्था होगा बल्कि इसमें यूजीसी की तुलना में कहीं अधिक शक्तियां होगी। वर्तमान में यदि कोई विश्वविद्यालय यूजीसी के निर्देशों को नजरअंदाज करता है तो यूजीसी केवल उसके फंड को रोक सकता है। लेकिन नए व्यवस्था के तहत यदि कोई संस्थान एचईसीआई की सिफारिशों को नजरअंदाज करता है तो एचईसीआई इसे बंद कर सकता है। और संगीन मामलों में यह दंड की कार्यवाही शुरू भी कर सकता है जिसमें दोषी पक्षों पर जुर्माना या कारावास भी हो सकता है। इस मसौदे के अनुसार, "एचईसीआई के निर्देशों का अनुपालन न करने के नतीजे में आपराधिक प्रक्रिया अधिनियम के तहत जुर्माना या जेल की सजा हो सकती है।"
केंद्र सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में उच्च शिक्षा लाना हालांकि इस कहानी का केवल एक ही हिस्सा है। दूसरा हिस्सा तब स्पष्ट हो जाता है जब हम यूजीसी को खत्म करने के औचित्य पर नज़र डालते हैं, अर्थात् उच्च शिक्षा पर कई विशेषज्ञ समितियों ने पहले ही इसकी सिफारिश की है जिनमें से नवीनतम प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता वाली समिति थी।
सवाल उठता है कि ये समितियां यूजीसी के ख़त्म करने का सुझाव क्यों देती आ रही हैं? ये तर्क आम तौर पर निम्नलिखित रही है: "ज्ञान अर्थव्यवस्था" के विकास की नई स्थिति में देश को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक विशाल विस्तार की आवश्यकता है जिसके लिए सरकार एकमात्र या यहां तक कि मौलिक ज़िम्मेदारी नहीं ले सकती है। इस तरह के विस्तार के लिए निजी संसाधनों का पर्याप्त इस्तेमाल होना चाहिए; और इसलिए एक शीर्ष निकाय की आवश्यकता है जो मान्यता पाने के लिए आवेदन करने वाले निजी संस्थानों की योग्यता पर फैसला करने में यूजीसी की तुलना में ज़्यादा तेज़ी से सक्षम हो। इसलिए प्रस्तावित एचईसीआई की शक्ल में एक नए शीर्ष निकाय की आवश्यकता है। यहां तक कि बीजेपी सरकार का मसौदा क़ानून "यूजीसी के इंस्पेक्टर राज" की चर्चा करते हुए सुझाव देता है कि एचईसीआई ऐसे संस्थानों के प्रति अधिक "उदार" होगा।
ज़ाहिर है जब एचईसीआई उच्च शिक्षा के सार्वजनिक संस्थानों के क्षेत्र में सख्ती से काम करेगा तो यह निजी संस्थानों को तत्परता के साथ मान्यता प्रदान करेगा और ऐसे संस्थानों के साथ इसके संबंधों को सहनशीलता से पहचान किया जाएगा। हालिया कदम "स्वायत्त कॉलेज" को लेकर है जहां वे अपने स्वयं के धन जुटाने वाले लोगों को जो कुछ भी पसंद करते हैं उन्हें कम से कम अनुमति दी जाएगी। यह निजी संस्थानों के प्रति सौहार्दपूर्ण सहिष्णुता के अनुरूप है। और इसका अर्थ है कि इसमें उच्च शिक्षा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निजीकरण शामिल है।
आंदोलन की यह दिशा है जिसे नव उदारवाद बताता हैं; और यही कारण है कि कई समितियां यूजीसी को ख़त्म करने की वकालत करती रही हैं क्योंकि यह संस्था एक भिन्न युग की एक उपज है, स्वतंत्रता के बाद डिरिजिस्ट युग (राज्य द्वारा समाज और अर्थव्यवस्था का नियंत्रण या समर्थन करने वाला समय), जब यह माना जाता था कि सरकार को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में एक प्रमुख भूमिका निभानी है क्योंकि भारत में शिक्षा कैम्ब्रिज या हार्वर्ड में देने वाली शिक्षा से अलग होनी चाहिए थी, और जिसका मतलब कि हमारे देश के लिए एक सामाजिक उद्देश्य को पूरा करना था।
अब कल्पना की जा रही है शिक्षा प्रणाली के भीतर द्वंद्व है। निजी संस्थानों की एक पूरी श्रृंखला होगी जो वाणिज्यिक रेखा पर चल रही होगी जो शिक्षा को एक वस्तु के रूप में बेचेगी; और फिर ऐसे कई संस्थान होंगे जो सरकार से अपने फंड प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन सरकार यह सुनिश्चित करेगी कि कोई "ग़लत" विचार,कोई आलोचनात्मक विचार, कोई स्वतंत्र विचार न उभरे।
वे छात्र जो मानते हैं कि डार्विन गलत थे, प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी थी और भारत के पास पूर्व-ऐतिहासिक काल में हवाई जहाज़ थे इस पर नव उदारवाद ध्यान नहीं देता है। यह रचनात्मक, आलोचनात्मक और स्वतंत्र विचार को केवल मानता है। इसी प्रकार हिंदुत्व तत्व के लिए भी कोई रचनात्मक, आलोचनात्मक,स्वतंत्र विचार अभिशाप है और वे विश्वविद्यालयों में राजनीतिक हस्तक्षेप के माध्यम से इसे दबाने से ज़्यादा कुछ नहीं चाहते हैं।
भारत की उच्च शिक्षा में अब आधिकारिक तौर पर नव उदारवाद और हिंदुत्व के हितों के सम्मिलन का प्रतिनिधित्व करने की तैयारी है। इस प्रवृत्ति का एक स्पष्ट निहितार्थ उच्च शिक्षा के क्षेत्र से दलितों और अन्य वंचित वर्ग को दूर करना है। लेकिन समान रूप से महत्वपूर्ण आशय है विचारों का विनाश।
भारत में डीरिजिस्ट काल (राज्य द्वारा समाज और अर्थव्यवस्था का नियंत्रण या समर्थन करने वाला समय) के दौरान बनी शिक्षा प्रणाली दलित तथा अन्य वंचित सामाजिक समूह के स्पष्टवादी, विचारशील, मेधावी तथा सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध छात्रों के संपूर्ण हिस्से का एक परिणाम था। इसका नेतृत्व यूजीसी द्वारा किया गया था। ये यूजीसी व्यवस्था इस विशेष संस्थान के सभी दोषों के बावजूद क़ानूनी रूप से इसके लिए क्रेडिट का दावा कर सकती है। अब इस प्रक्रिया को खत्म करने का प्रयास हुआ है। इस प्रयास का विरोध किया जाना चाहिए।
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