मैंने क्यों साबरमती आश्रम को बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की है?

बापू की विरासत, उनकी विचारधारा और उनकी वसीयत को संरक्षित किये जाने की ज़रूरत है।
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साबरमती आश्रम महज़ बापू और बा का स्मारक ही नहीं है, बल्कि यह आज़ादी को लेकर किये जाने वाले हमारे अनूठे अहिंसक जनांदोलन, यानी सत्याग्रह का भी एक स्मारक है। सत्याग्रह की आत्मा और हृदय साबरमती आश्रम में निवास करते हैं, और यह आश्रम दुनियाभर के लोगों को अपने अधिकार के लिए लड़ने और कभी भी ताक़त के आगे नहीं झुकने के लिए प्रेरित करता है।
बापू के ख़ुद के जीवन और आश्रम के जीवन को नियंत्रित करने वाले दर्शन और विचारधारा सादगी, मितव्ययिता और कम से कम उपभोग के आदर्शों पर आधारित थे। आज के समय में इन सिद्धांतों पर विश्वास कर पाना बहुत मुश्किल है। जब कोई साबरमती आश्रम जाता है, तो यहां की निरा सादगी, मितव्ययिता और कम से कम उपभोग का यह सिद्धांत एकदम साफ़ तौर पर दिखायी दे जाता है। बा और बापू के इस आश्रम में मौजूद सादगी भरा निवास, यानी हृदय कुंज, सादगी, मितव्ययिता और कम से कम उपभोग किये जाने का एक जीवंत उदाहरण है। इसे उसी तरह से संरक्षित किया जाना चाहिए, जिस तरह साबरमती आश्रम के पूरे परिसर को संरक्षित होना चाहिए।
साबरमती आश्रम का इतिहास
साल 1917 और 1926 के बीच बापू ने अहमदाबाद शहर से गुज़रने वाली साबरमती नदी के तट पर एक आश्रम स्थापित करने के इरादे से ज़मीन के टुकड़े ख़रीदे थे। वह शहर के भीड़-भाड़ से दूर रहना चाहते थे और दक्षिण अफ़्रीका के अपने आश्रमों- फ़ीनिक्स और टॉल्स्टॉय आश्रमों की तर्ज पर आश्रमियों का एक आत्मनिर्भर समाज स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने कुछ अपने नाम पर और कुछ अपने भतीजे, ख़ुशालदास गांधी के नाम पर क़रीब 120 एकड़ ज़मीन ख़रीदी थी। इसके बाद उन्होंने 'साबरमती आश्रम ट्रस्ट' के नाम से एक ट्रस्ट का गठन किया, और इसके दस्तावेज़ और पंजीकरण के हस्ताक्षरकर्ता बन गये। इस 120 एकड़ की पूरी ज़ायदाद इस ट्रस्ट के नाम कर दी गयी थी।
बापू यहीं से चंपारण चले गये थे और वहां के ग़रीबों और सताये जा रहे किसानों के हक़ की लड़ाई लड़ी थी। वह साबरमती आश्रम में रहते हुए ही सरदार पटेल की अगुवाई में चलाये जा रहे किसानों के बारडोली सत्याग्रह के साथ शामिल हो गये थे। रॉलेट एक्ट का विरोध यहीं से शुरू हुआ था, यहीं से असहयोग आंदोलन भी शुरू हुआ था और साबरमती आश्रम इसका मुख्य केंद्र बन गया था।
बापू को गिरफ़्तार कर लिया गया और साबरमती आश्रम से चलाये जा रहे राजद्रोह का उन पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें इसके लिए छह साल की क़ैद की सज़ा सुना दी गयी।
साल 1930 में बापू ने यहीं से दांडी कूच की शुरुआत की थी और भारत की आज़ादी हासिल होने तक आश्रम नहीं लौटने का संकल्प लिया था। अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार 1930 के बाद वह इस आश्रम में एक भी रात नहीं ठहरे।
साल 1933 में उन्होंने किसानों और सत्याग्रहियों पर किये जा रहे क्रूर उत्पीड़न और ज़्यादतियों के विरोध में आश्रम को औपनिवेशिक सरकार को सौंप देने का फ़ैसला कर लिया था। बापू ने फ़ैसला किया था कि अगर किसी को बतौर पहले सत्याग्रही सम्मान, अधिकार और आज़ादी के लिए लड़ने के लिए संघर्ष करना पड़े, तो उसे अवश्य ही करना चाहिए; और इसलिए उन्होंने आश्रम को सौंप देने का यह फ़ैसला कर लिया था। लेकिन, अपने सहयोगियों के साथ लंबे विचार-विमर्श के बाद उन्होंने अपना यह विचार बदल लिया था।
साल 1933 में बापू ने फ़ैसला लिया कि इस आश्रम का इस्तेमाल "अछूतों" के उत्थान के लिए किया जायेगा और इसका निरंतर उपयोग उनके कल्याण के लिए किया जाना चाहिए। इसे ध्यान में रखते हुए उन्होंने पहले ही हरिजन सेवक संघ का गठन कर लिया था, इसलिए उन्होंने हरिजन सेवक संघ के अध्यक्ष घनश्यामदास बिड़ला को इस निर्देश के साथ यह आश्रम सौंप दिया था कि संगठन को "अछूतों" को बसाने के लिए इस आश्रम का इस्तेमाल करना चाहिए, और इसकी तमाम गतिविधियां हमेशा उनके उत्थान और कल्याण के लिहाज़ से ही होनी चाहिए। इसके लिए उन्होंने एक शर्त भी रख दी थी: 'जो अछूत नहीं थे, लेकिन जो आश्रम के नियमों और आदर्शों में विश्वास करते थे और वहां रहने की इच्छा रखते थे, उन्हें भी इस आश्रम और इसके परिसर में जब तक वे चाहें, रहने की अनुमति दी जानी चाहिए, इस तरह इस आश्रम को सभी समुदायों और जातियों के हित में बदल दिया जाना चाहिए।”
यही निर्देश हरिजन सेवक संघ के मार्गदर्शक सिद्धांत रहे हैं और अब तक साबरमती आश्रम का उपयोग बापू के इन्हीं अंतिम निर्देशों के मुताबिक़ किया गया है। इसलिए, जहां तक साबरमती आश्रम का सम्बन्ध है,तो बिड़ला को लिखी गयी उनकी चिट्ठी को उनकी इच्छा और वसीयतनामा माना जाना चाहिए और उनका अक्षरश: पालन किया जाना चाहिए।
जब बापू ने इस आश्रम को हरिजन सेवक संघ को सौंप दिया था, तो उन्होंने इसकी पूरी 120 एकड़ ज़मीन भी उसे सौंप दी थी। यही बापू की वसीयत थी। आज़ादी मिलने और बापू की हत्या कर दिये जाने के बाद हरिजन सेवक संघ ने बापू की इस विरासत और आदर्शों के काम को जारी रखने के लिए कई संगठनों और ट्रस्टों का गठन किया था, और आश्रम वाली ज़मीन के ये टुकड़े उन संगठनों और ट्रस्ट को अपने काम को कुशलता से अंजाम देने के लिए उन्हें आवंटित कर दिये गये थे। आश्रम की ज़्यादातर संपत्ति लापरवाही के चलते नष्ट हो गयी, और अब बतौर आश्रम यह ज़मीन लगभग 55 एकड़ में सिमटकर रह गयी है।
हाल ही में गुजरात के महाधिवक्ता ने गुजरात हाई कोर्ट के सामने पेश होकर यह कहा कि आश्रम एक एकड़ के भूखंड पर स्थित है, जिसे लेकर उन्होंने मौखिक रूप से अदालत को आश्वासन दिया कि यह भूखंड पुनर्विकास परियोजना से प्रभावित नहीं होगा। यह दलील अस्वीकार्य है। जब कोई बापू के आश्रम (इस मामले में साबरमती आश्रम) की बात करता है, तो उसे पूरी तरह से बापू के समय में जिस रूप में यह आश्रम था, उसे उसी रूप में कहा जाना चाहिए, यानी 120 एकड़ का वह आश्रम, जिसका एक महान और पवित्र उद्देश्य था, भले ही आज इस आश्रम का अपनी पूरे 120 एकड़ ज़मीन पर कब्ज़ा नहीं है।
पुनर्विकास योजना आश्रम के बुनियादी सिद्धांतों के ख़िलाफ़ है
साबरमती महज़ उस घर से कहीं ज़्यादा कुछ है, जिसमें बा और बापू कभी रहते थे। दुनिया मानती है कि यह वह जगह है, जहां से महानता का स्रोत निकलता है, और वहां जो कोई भी आता है, वह इसी महानता को आत्मसात करने और उसकी भावना से प्रेरित होने के लिए ही आता है।
इस आश्रम के सिलसिले में सरकार की योजनाओं का विरोध करने के कई दूसरे कारण भी हैं, इन कारणों में शामिल हैं-ज़मीन के मालिकाना हक़ का सवाल, निजी पहल के ज़रिये ख़रीदी गयी ज़मीन और यह सब एक पंजीकृत ट्रस्ट में निहित है, जो कि सरकार के स्वामित्व में बिल्कुल नहीं है। इसलिए सरकार के पास इस पर कब्ज़ा करने, इसमें बदलाव लाने या शर्तों को निर्धारित करने का कोई अधिकार नहीं है। क़ानूनी रूप से गठित और सक्षम (कम से कम मुझे आशा है कि वे सक्षम हैं) ट्रस्टियों को इस ट्रस्ट को चलाने को लेकर सरकार के बिना किसी हस्तक्षेप और ज़ोर-ज़बरदस्ती के फ़ैसले लेने देना चाहिए। उन्हें और गांधीवादियों के बड़े समुदाय को ही गांधी से जुड़े किसी भी संस्था, संगठन या स्मारक के भाग्य का फ़ैसला करना चाहिए, निश्चित रूप से सरकार का फ़ैसला नहीं हना चाहिए।
बापू की हत्या के बाद गांधी स्मारक निधि नाम से एक छतरी संगठन का गठन किया गया था।यह संगठन एक राष्ट्रीय संगठन था, जिसे गांधी की विरासत, उनकी विचारधारा और उनके जीवन और उनके काम से जुड़े तमाम प्रतिष्ठानों की रक्षा, प्रशासन और प्रचार करने का काम सौंपा गया था। गांधी स्मारक निधि का एक संस्थापक सिद्धांत यह था कि यह संगठन सभी गांधी संस्थानों, स्मारकों और आश्रमों को सरकारी नियंत्रण और हस्तक्षेप से अलग करेगा। यहां तक कि इस गांधी स्मारक निधि की राशि भी जनता से ही बड़े पैमाने पर एकत्र की गयी थी और इसमें किसी भी तरह का सरकारी अनुदान नहीं,बल्कि निजी स्तर से मिले दान ही शामिल थे।
साबरमती पुनर्विकास परियोजना और इसका ज़रूरत से ज़्यादा बड़ा बजट भी इस आश्रम की लोकनीति के विपरीत है। बापू अगर होते,तो वे कभी भी ख़ुद से जुड़े किसी भी चीज़ पर सरकारी ख़ज़ाने से 1,200 करोड़ रुपये ख़र्च किये जाने की अनुमति नहीं देते। मुझे यक़ीन है कि वह लोगों के पैसे की इस तरह की अशिष्ट बर्बादी के ख़िलाफ़ आमरण अनशन पर चले जाते।
जब भारत की अंतरिम सरकार की पहली कैबिनेट ने शपथ ली थी, तो मंत्रियों ने बापू से मुलाक़ात की थी और कोई संदेश देने के लिए कहा था। बापू ने उन्हें जो संदेश दिया था, वह अब बापू के जंतर के रूप में जाना जाने लगा है,वह जंतर कुछ इस तरह था: "मैं तुम्हें एक जंतर देता हूं: जब कभी तुम्हें संदेह हो या जब तुम्हारा अहम तुम पर बहुत ज़्यादा हावी होने लगे,तो यह कसौटी आज़माओ: जो सबसे ग़रीब और सबसे कमज़ोर आदमी तुमने देखा हो,उसका चेहरा याद करो, और अपने आप से पूछो कि जो क़दम तुम उठाने के बारे में सोच रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा, क्या उससे उसे कुछ लाभ मिलेगा ? क्या वह इससे अपने जीवन और अपने भाग्य पर कुछ क़ाबू पा सकेगा ? यानी क्या उससे उन करोड़ों लोगों को वह स्वराज्य मिल सकेगा,जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त हैं ? तब तुम पाओगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम समाप्त हो रहा है।"
बापू का यह संदेश मानवता के लिए उनकी विरासत है। बापू ने हमेशा उन्हीं लोगों की सेवा और लाभ की बात की और उन्हीं के लिए काम किया, जिन्हें वे 'दरीद्रनारायण' कहते थे। उनका मानना था कि समाज के सबसे ग़रीब और सबसे कमज़ोर तबक़े की सेवा ईश्वर की पूजा के समान है। बापू का जीवन इसी तबक़े की सेवा के लिए समर्पित था। आश्रम की उनकी इस वसीयत में साफ़ तौर पर घोर ग़रीबी में जीने वाले "अछूतों" की सेवा करना, और उनका हित शामिल था।
'पुनर्विकास' और यहां आने वालों के लिए सुविधाओं का निर्माण करने के बहाने आश्रम से गुज़रती हुई सड़कों के किनारे झोंपड़ियों में रहने वाले कई ग़रीबों को वहां से बेदखल कर दिया गया है, उन्हें बिना किसी मुआवज़े या वैकल्पिक आवास के निकाल बाहर कर दिया गया है, उनके छोटे-छोटे और अपर्याप्त सुविधाओं वाले घरों को ध्वस्त कर दिया गया है। उनमें से कई लोग तो दो और तीन दशकों से भी ज़्यादा समय से यहां रह रहे थे। निश्चित रूप से उनके नाम पर उनके आश्रम को 'विश्व स्तरीय' बनाने के बहाने इस तरह की गतिविधियों को बापू कभी मंज़ूरी नहीं देते।
साबरमती आश्रम के भाग्य और मोहनदास करमचंद गांधी,यानी बापू की इस विरासत का फ़ैसला करते हुए पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं सहित इस तरह के कई मुद्दों को ध्यान में रखना ज़रूरी हैं। लेकिन, मेरे लिए जो ज़रूरी है,वह है-बापू की विरासत, उनकी विचारधारा और उनकी वसीयत को संरक्षित किया जाना।
बापू ने 5 अप्रैल, 1930 को लिखा था, "मैं ताक़त के ख़िलाफ़ हक़ की इस लड़ाई में दुनिया की सहानुभूति चाहता हूं।" मेरी भी भारत के सर्वोच्च न्यायालय से यही अपील है।
तुषार गांधी, महात्मा के परपोते, कार्यकर्ता, लेखक और महात्मा गांधी फ़ाउंडेशन के अध्यक्ष हैं।
साभार: लीफ़लेट
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