वही प्रतिरोध, वही दमन : सरकारें बदलती हैं, सरकारों का चरित्र नहीं

आपको याद है साल 2011 का उत्तर प्रदेश का भट्टा-पारसौल कांड। बिल्कुल सोनभद्र की तरह तो नहीं लेकिन ग्रेटर नोएडा के इन गांवों में भी किसान अपनी ज़मीन कब्ज़ाने के ख़िलाफ़ डटकर खड़े हो गए थे। सात मई 2011 को भट्टा-पारसौल गांव में जमीन अधिग्रहण के विरोध में पुलिस और किसानों के बीच टकराव हुआ और दो किसानों और दो पुलिसकर्मियों की जान चली गई। इसके बाद बड़ी संख्या में ग्रामीणों पर मुकदमें हुए और जमकर उत्पीड़न हुआ।
उस समय उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार थी और मुख्यमंत्री थीं मायावती।
उस समय कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी पीड़ित किसानों से मिलने भट्टा-पारसौल जाना चाहते थे लेकिन पुलिस-प्रशासन ने उन्हें रोक दिया। बाद में वे छुपकर बाइक से भट्टा पारसौल पहुंचे थे। इसके बाद वे रैली करना चाहते थे लेकिन उन्हें उसकी भी इजाज़त नहीं मिली।
अब सोनभद्र को लेकर लगभग वही दोहराया जा रहा है। आज यहां राहुल गांधी की भूमिका में उनकी बहन और कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी हैं। वे भी सोनभद्र में ज़मीन कब्ज़ाने को लेकर किए गए आदिवासियों के नरसंहार के खिलाफ सोनभद्र जाना चाहती थीं। पीड़ित आदिवासी परिवारों से मिलना चाहती थी, लेकिन पुलिस-प्रशासन उन्हें नहीं जाने दे रहा।
आज उत्तर प्रदेश में किसकी सरकार है- भारतीय जनता पार्टी की और मुख्यमंत्री हैं अजय सिंह बिष्ट यानी योगी आदित्यनाथ।
यानी साल 2011 से 2019 तक उत्तर प्रदेश में कुछ नहीं बदला। बस सरकार बदली। 2011 में बसपा सरकार थी और आज 2019 में भाजपा सरकार।
इस बीच आया साल 2013, जब उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में भीषण दंगे हुए। बड़े पैमाने पर मुसलमानों का कत्लेआम किया गया। उस समय सरकार थी समाजवादी पार्टी की और मुख्यमंत्री थे अखिलेश यादव।
उस समय तमाम दलों के नेताओं ने मुज़फ़्फ़रनगर का दौरा करना चाहा लेकिन उन्हें रोक दिया गया। भाजपा नेता और मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं उमा भारती को भी दंगा प्रभावित इलाकों का दौरा करने की अनुमति नहीं दी गई। और उन्हें मुज़फ़्फ़रनगर से करीब 25 किलोमीटर दूर कैनाल रोड पर सथेरी गांव में रोक दिया गया। इसके बाद उन्होंने भाजपा नेता अनिता सिंह के साथ धरना शुरू कर दिया।
इसी तरह जेडीयू के सांसद अली अनवर अंसारी ने भी दंगा प्रभावित इलाकों में जाना चाहा लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस ने उन्हें रेलवे स्टेशन पर ही हिरासत में ले लिया।
हालांकि सभी मामलों को एक तरह से नहीं देखा जा सकता, लेकिन मौटे तौर पर उस समय भी पुलिस-प्रशासन का यही तर्क था कि क्षेत्र में निषेधाज्ञा यानी धारा 144 लागू है और क्षेत्र की स्थिति को देखते हुए ऐहतियाती तौर पर यह कदम उठाया गया है। और दौरा करने वाले नेताओं का भी यही तर्क था कि वे पीड़ितों से मिलना चाहते हैं। उनका दु:ख-दर्द जानना चाहते हैं।
इसी तरह 2015 में उत्तर प्रदेश के दादरी कांड के दौरान हुआ। दादरी के बिसाहड़ा गांव में गोमांस की अफवाह पर उत्तेजित भीड़ द्वारा बुजुर्ग अख़लाक़ की हत्या कर दी जाती है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल उनके परिवार से मिलने बिसाहड़ा गांव जाना चाहते हैं लेकिन उन्हें गांव के बाहर रोक दिया जाता है।
ये सभी घटनाएं तो हुईं उत्तर प्रदेश की और हमने आपको तीन सरकारों बसपा, सपा और भाजपा का रवैया बताया। कांग्रेस की सरकार उत्तर प्रदेश में लंबे समय से नहीं बनी है, लेकिन उसका इतिहास खंगालेंगे तो एक नहीं कई उदाहरण मिलेंगे जब उन्होंने ऐसी ही किसी घटना के पीड़ितों से मिलने जा रहे राजनीतिक दलों के नेताओं या सामाजिक कार्यकर्ताओं को रोक दिया।
सामाजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को तो देश में कभी भी कहीं भी जाने से न केवल कोई भी सरकार रोक देती है, बल्कि उन्हें तो उत्पीड़न का शिकार भी होना पड़ता है।
अब आपको लिए चलते हैं मध्य प्रदेश और याद दिलाते हैं जून, 2017 का मंदसौर कांड।
मध्य प्रदेश में किसान अपनी मांग को लेकर आंदोलन करते हैं और मिलता क्या है उन्हें पुलिस की लाठियां और गोलियां। उस समय मध्य प्रदेश में भाजपा के शिवराज सिंह चौहान की सरकार होती है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी भट्टा पारसौल की तरह एक बार फिर पीड़ित किसानों से मिलने के लिए मंदसौर जाना चाहते हैं लेकिन उन्हें रोक दिया जाता है।
राहुल राजस्थान-मध्य प्रदेश सीमा स्थित निमोड़ा से बाइक पर सवार होकर किसानों से मिलने निकलते हैं लेकिन इससे पहले की वो मंदसौर पहुंचते उन्हें मध्य प्रदेश पुलिस रोक लेती है और अपनी हिरासत में ले लेती है। इस बीच कांग्रेसियों की पुलिस से झड़प भी होती है।
इसी तरह मृतक किसानों के परिजनों से मिलने जा रहीं सामाजिक कार्यकर्ता और नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर सहित उनके दल के लोगों को माननखेड़ा जावरा-मंदसौर फोरलेन पर रोक दिया जाता है। पुलिस को इनके आने की सूचना पहले ही थी। पुलिस-प्रशासन दल को आगे जाने की अनुमति नहीं देता है। उस समय मेधा पाटकर के साथ जय किसान आंदोलन के प्रतिनिधि योगेन्द्र यादव, आविक शाह, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के प्रतिनिधि स्वामी अग्निवेश, राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के बीएम सिंह, पूर्व विधायक डॉ. सुनीलम और उनके साथ पश्चिम बंगाल, ओडिशा, छत्तीसगढ़, गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के विभिन्न संगठनों के प्रतिनिधि भी थे।
यहां भी निषेधाज्ञा यानी धारा 144 का हवाला दिया जाता है।
तो कहने का कुल मतलब ये है कि सभी सरकारों का रवैया एक सा है। गरीब किसान मज़दूर, दलित, आदिवासियों के लिए भी। आंदोलनकारियों के लिए भी और दूसरे दल के नेताओं के प्रति भी। बस जब वे खुद विपक्ष में होते हैं तब उन्हें गरीब और अन्य लोगों के मानवाधिकार की याद आती है और वे उनका हमदर्द बनने की कोशिश करते हैं, लेकिन सत्ता में आते ही फिर उनका वही रवैया हो जाता है। यानी सत्ता का चरित्र एक ही है। वो चाहे दलित हितैषी होने का दावा करने वाली मायावती सरकार हो या खुद को लोहियावादी कहने वाली अखिलेश सरकार या ‘सबका साथ-सबका विकास और सबका विश्वास’ का नारा देने वाली मोदी और योगी सरकार। दबंगों का साथ देना, गरीब किसान, आदिवासियों की ज़मीन कब्ज़ाना और सारे संसाधनों को पूंजीपतियों के हाथ बेच देना यही इन सरकारों की नीति रही है। कांग्रेस के इतिहास के बारे में तो जैसा ऊपर भी लिखा कि एक नहीं हज़ार उदाहरण मिलेंगे जब गरीब जनता और आंदोलनकारियों को दबाया गया और पीड़ितों से मिलने से रोका गया। जनता के अधिकार कुचलने का सबसे बड़ा उदाहरण तो सन् 1975 की इमरजेंसी ही है। उसके भी बाद प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से ये सिलसिला चलता रहा।
आतंकवाद और अन्य विघटनकारी गतिविधियों की रोकथाम के नाम पर कांग्रेस टाडा (TADA : टेररिस्ट एंड डिसरप्टिव एक्टिविटीज़ एक्ट) लाई तो भाजपा उससे दो कदम आगे बढ़कर 2002 में पोटा (POTA : प्रिवेन्शन ऑफ टेररिज़्म एक्ट) लाई। दोनों का ही कितना दुरुपयोग हुआ, हम भलिभांति जानते हैं।
हाल के ही सालों में छत्तीसगढ़ में गरीब आदिवासियों के खिलाफ सलवा जुडूम से लेकर ग्रीन हंट ऑपरेशन केंद्र में कांग्रेस की मनमोहन सरकार और भाजपा के रमन सिंह की राज्य सरकार के दौरान ही चलाया गया।
इसके अलावा भी कितना कुछ है जो कांग्रेस, भाजपा और अन्य दलों की सरकारों को एक ही कठघरे में खड़ा करता है। इसलिए ऐसी तस्वीरें (रात के अंधेरे में चुनार के गेस्ट हाउस में कार्यकर्ताओं के साथ धरने पर बैठीं प्रियंका गांधी, पीड़ित परिवारों से मिलकर भावुक हुईं प्रियंका गांधी) देखते समय खुद भावुक होने की बजाय हमें तार्किक होकर सोचना होगा कि इसमें कितनी ईमानदारी और कितनी राजनीति (वोटों की) है। (बहुत से ईमानदार और जुझारू नेता पुलिस-प्रशासन को चकमा देकर, बिना प्रचारित किए पीड़ित लोगों के बीच पहुंच भी गए और केवल घटनाओं के बाद ही नहीं घटनाओं से पहले भी वे ऐसी ही तमाम जगह पीड़ित मेहनतकश जनता और आंदोलनकारियों के कंधा से कंधा मिलाकर खड़े रहे हैं और उनके साथ लाठी-गोली खाते रहे हैं।)
इसलिए बड़े-बड़े दलों के ‘बड़े-बड़े नेताओं’ से उनके या उनके दलों के शासनकाल में हुए अत्याचार का हिसाब भी मांगना होगा। हां, रणनीतिक तौर पर विपक्ष की ऐसी सभी ताकतों के साथ ज़रूर खड़ा हुआ जा सकता है और खड़ा होना चाहिए लेकिन उन्हें आईना दिखाना और आश्वासन मांगना भी बेहद ज़रूरी है, क्योंकि अभी आपने देखा होगा कि कुछ ही महीने पुरानी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों में भी गरीब, दलित, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों पर वही पुरानी अत्याचार की कहानी दोहराई जा रही है। भाजपा शासित राज्यों की तरह ही धड़ल्ले से मॉब लिंचिंग हो रही है और मामूली मामलों या इंसाफ की आवाज़ उठाने तक में एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है।
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