उत्तराखंड : मज़दूरों की हड़ताल से पहाड़ भी गरमाए

ट्रेड यूनियनों की हड़ताल का उत्तराखंड में भी असर रहा। राजधानी देहरादून के गांधी पार्क में श्रमिक संगठनों के झंडे लहराये। सत्ता पर काबिज हुक्मरानों तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए विभिन्न बैनरों के तले मज़दूर-कर्मचारियों ने अपनी आवाज़ बुलंद की। केंद्र की नीतियों के खिलाफ नारेबाजी की गई। हड़ताल में बड़ी संख्या में बैंक के कर्मचारी भी शामिल रहे। बैंक इम्पलाइज यूनियन, ग्रामीण बैंक, होटल वर्कर्स यूनियन, डाकघर,आयकर, बीमा कंपनी, बिजली विभाग सहित केंद्रीय श्रमिक संगठनों से जुड़े कर्मचारी हड़ताल पर रहे। देहरादून में श्रमिक संगठनों ने अपनी रैलियां निकालीं और फिर गांधी पार्क में जुटे।
उत्तराखंड बैंक एम्प्लॉइज यूनियन के संयोजक जगमोहन मेहंदीरत्ता ने कहा कि मोदी सरकार की कथनी और करनी में फ़र्क है। सरकार जन-धन योजना के ज़रिये बैंकों को दूर-दूर तक पहुंचाने की बात कर रही है। इसके साथ ही बैंकों का विलय करने की बात भी हो रही है। आउटसोर्सिंग से बैंकों को बंद करने की कोशिश की जा रही है। जगमोहन मेहंदीरत्ता ने कहा कि ये बैंक कर्मचारियों के साथ लोगों के लिए भी नुकसानदेह होगा।
उत्तराखंड संयुक्त ट्रेड यूनियन्स समन्वय समिति ने भी हड़ताल को अपना समर्थन दिया। इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस के प्रांतीय अध्यक्ष हीरा सिंह बिष्ट ने कहा कि उत्तराखंड में कर्मचारियों का सबसे अधिक शोषण है।
पिछले 10-15 साल से 21 हजार से अधिक लोग उपनल (उत्तराखंड पूर्व सैनिक कल्याण निगम) के माध्यम से विभिन्न विभागों में कार्य कर रहे हैं। इन्हें नियमित किये जाने की मांग बहुत दिनों से की जा रही है। नैनीताल हाईकोर्ट ने भी आदेश दिया कि नवंबर 2018 में आदेश दिया था कि उपनलकर्मियों को चरणबद्ध तरीके से एक साल के भीतर नियमित किया जाए। साथ ही उन्हें न्यूनतम वेतनमान जरूर मिले। हीरा सिंह बिष्ट कहते हैं कि सरकार हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीमकोर्ट में अपील करने जा रही है। सरकार का कहना है कि उनके पास कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं। जबकि जो लोग पिछले 15-20 वर्षों से कार्य कर रहे हैं उन्हें नियमित किये जाने का अधिकार है। वे हमेशा नौकरी खोने के डर में जीते हैं। हीरा सिंह बिष्ट ने रेग्यूलर पदों पर ठेकेदारी प्रथा से भर्ती न करने का मुद्दा उठाया और कहा कि जब पद नियमित है तो नियुक्ति भी नियमित होनी चाहिए।
उत्तराखंड के श्रमिक संगठनों की मांग है कि समान कार्य का समान वेतन दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही न्यूतम 18 हजार रुपये वेतन होना ही चाहिए। सुप्रीम कोर्ट भी अपने फैसले में दो बार कह चुका है कि समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाए।
इसके साथ ही सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से पुरानी पेंशन व्यवस्था बहाल करने की मांग भी की गई।
सरकारी अस्पतालों को पीपीपी मोड में निजी हाथों में सौंपने का भी उत्तराखंड में कर्मचारी संगठनों ने विरोध किया है। देहरादून के दोईवाला अस्पताल को जॉलीग्रांट स्थित हिमालयन अस्पताल को सौंप दिया गया है। इसके साथ ही रामनगर, पौड़ी, टिहरी, उत्तरकाशी समेत कई जगह अस्पताल को पीपीपी मोड पर देने का फैसला लिया गया है। प्रांतीय चिकित्सा संघ का कहना है कि दुर्गम क्षेत्र के अस्पतालों को पीपीपी मोड में दिया जाता तो भी ये बात समझ में आती। इससे कर्मचारियों में छंटनी का भय है।
इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस के प्रांतीय अध्यक्ष हीरा सिंह बिष्ट कहते हैं कि फायदे वाले देहरादून एयरपोर्ट को भी निजी हाथों में सौंपने की बात हो रही है। निजीकरण के डर से ही बैंक पहले बी नौ बार हड़ताल कर चुके हैं। रेलवे को निजी हाथों में सौंपने की साजिश की जा रही है। सरकार ने एयर इंडिया के निजीकरण का फैसला किया था। लेकिन पांच लाख से अधिक कर्मचारियों की हड़ताल के चलते उन्हें अपना फैसला वापस लेने पड़ा था। उनका कहना है कि मोदी सरकार ने दो करोड़ लोगों को रोजगार देने की बात कही थी। इसके उलट वर्ष 2017 में एक करोड़ सत्तर लाख लोग बेरोजगार हो गए।
सीपीआई-एमएल के नेता इंद्रेश मैखुरी कहते हैं कि वर्ष 2002 में जब पहली एनडी तिवारी की अगुवाई में राज्य की सरकार बनी तो उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए स्टेट इंडिस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ उत्तराखंड लिमिटेड यानी सिडकुल बनाया गया। इसमें पंतनगर विश्वविद्यालय की हजारों एकड़ जमीन दी गई। ऐसे ही हरिद्वार और देहरादून में सिडकुल बनाये गये। सिडकुल में जो भी फैक्ट्रियां बनीं उनमें श्रम कानूनों के पालन की व्यवस्था दिखाई नहीं देती। चार-पांच हजार रुपये पर लोगों को 12-18 घंटे कार्य करने के लिए मजबूर किया जाता है। जो रोजगार है, वो भी ठेके पर है। जिसमें किसी भी समय लोगों को बाहर निकालने का डर बना रहता है।
मैखुरी कहते हैं कि यूनियन फ्री जोन बनाने पर सरकार का बहुत दबाव है। वे यूनियन नहीं बनाने देते। जिससे मजदूरो के अधिकारों की बात नहीं की जा सके। उनका कहना है कि सरकार, प्रशासन, मालिक और गुंडों का एक पूरा समूह कार्य करता है। आशा-आंगनबाड़ी-भोजना माताएं बेहद मामूली पैसों पर कार्य कर रहे हैं। नए रोजगार के अवसर सृजित करने के आसार नहीं हैं। रिटायरमेंट के बाद अफसरों को रोजगार मिल रहा है लेकिन कर्मचारियों को नहीं। इस तरह उत्तराखंड अफसर रोजगार वाला राज्य बन गया है।
न्यूनतम मजदूरी, रिक्त पदों पर भर्ती, आउट सोर्सिंग और ठेकेदारी प्रथा को बंद करना, नई पेंशन योजना को समाप्त करना जैसी मांगों को लेकर ये हड़ताल की गई है। श्रमिकों-कर्मचारियों की इन मांगों को सुनिश्चित करना वैसे तो सरकार की ज़िम्मेदारी में ही शामिल है। सामाजिक सुरक्षा सरकार की ज़िम्मेदारी है। जिसे पूरा करने के लिए आज कर्मचारी वर्ग सड़कों पर उतरा है। किसान आंदोलन ने राज्य की पांच विधानसभा के चुनाव नतीजों पर अपना असर दिखाया। कर्मचारी आंदोलन से सरकार वो सबक याद कर सकती है।
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