तिरछी नज़र : एनआरसी और मैं

असम में एनआरसी की लिस्ट जारी कर दी गई है। 31 अगस्त की मध्य रात्रि को यह लिस्ट जारी कर दी गई। 19 लाख से अधिक लोगों के नाम उसमें से गायब हैं। उनमें हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी। गरीब अधिक हैं, पर कोई कोई अमीर भी है।
भारत में किसी भी काम के होने के दो सर्वमान्य तरीक़े हैं। पहला कानूनी तरीका और दूसरा, ‘दूसरा’ तरीका। कानूनी तरीके का मतलब है कि आप, जैसे इस एनआरसी के मामले को ही लें तो, वे सारे कागजात जमा करा दें, जो आपसे मांगे गये हों। हो सकता है कि आप साठ साल के हों और आपसे आपका जन्म प्रमाणपत्र मांगा जाये। लेकिन आप तो घर में ही किसी दाई द्वारा पैदा किये गये थे और आपका जन्म प्रमाणपत्र आपके मां-बाप ने बनवाया ही नहीं था। उन दिनों गांव-देहात में ये जन्म प्रमाणपत्र बनवाता भी कौन था। आज भी कहां सब लोग बनवाते हैं।
यह भी हो सकता है कि आपके घर में खाने के लाले पड़े हैं लेकिन आपसे कहा जाये कि आप अपने या अपने पूर्वजों के नाम से 1971 से पहले खरीदी गई ज़मीन के कागज़ात दिखायें।
आप निरक्षर हैं, गरीब हैं, स्कूल कभी गये नहीं हैं। पर अब आपसे कहा जा सकता है कि अपनी जन्म तिथि का और इस बात का प्रमाण देने के लिए कि आप असम में ही पढ़े लिखे हैं, स्कूल लीविंग प्रमाण पत्र दीजिए। ऐसे ही आपसे कुछ भी ऐसा मांगा जा सकता है जो अपनी गरीबी, बेचारी या लाचारी के कारण आपके पास न हो।
हो सकता है आपके पास कभी आपका जन्म प्रमाण पत्र, स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट, जमीन की रजिस्ट्री के कागजात रहे भी हों पर लाचारी यह है कि वे बाढ़ में बह गए हों। ये बाढ़ असम में आती भी बहुत है।
वैसे हमारे देश में किसी भी काम को करवाने का एक दूसरा तरीका भी है। और यह तरीका कानूनी तरीक़े से भी अधिक असरदार है। इस तरीक़े में उन सब कागजात की आवश्यकता नहीं होती है, जिन्हें आपसे मांगा जा रहा है। इस तरीक़े में अपनी एप्लिकेशन के साथ कुछ रंगीन कागज़ भी संलग्न करने पड़ते हैं। आठ नवंबर दो हजार सोलह से पहले वे सभी कागज़ सिर्फ हरे रंग के होते थे। अब गुलाबी, हरे, संतरी, नीले, सभी रंगों के होते हैं। उन कागजों को सरकार ही छापती है इसलिए सरकारी कामों को करवाने के लिए वे बहुत ही उपयोगी होते हैं। ये कागज़ बहुत ही करामाती होते हैं और किसी भी काम को, यहां तक कि बिगड़े हुए काम को भी, बना देते हैं। उम्मीद है असम में भी समर्थ लोगों ने अन्य कागजों के साथ इन रंगीन कागजों का भी उपयोग किया होगा। हालांकि इस तरीक़े के उपयोग की शिकायतें अभी मिली नहीं हैं, पर वे शिकायतें मिलती तभी हैं जब रंगीन कागजों का उपयोग होने पर भी काम न हो। इस बेईमानी में ईमानदारी हो तो कोई शिकायत नहीं करता।
असम में एनआरसी के बनाने में बनाने वालों ने बहुत ही एहतियात से काम किया है। जिसके फलस्वरूप एक विधायक भी लिस्ट से बाहर है। एक ऐसे फौजी और उनका परिवार भी लिस्ट में नहीं है जिसने करगिल युद्ध में भाग लिया था। गोया कि कम से कम एक बांग्लादेशी करगिल युद्ध में भारत की ओर से पाकिस्तानी सेना से लोहा ले रहा था। एक भूतपूर्व राष्ट्रपति के रिश्तेदार भी लिस्ट से बाहर हैं। फखरूद्दीन अली अहमद जी को अगर जन्नत नसीब न हुई होती तो वे स्वयं एनआरसी की लिस्ट में अपना और अपनी बेगम का नाम ढूंढ बेदम हो रहे होते। हम भी गर्व से सारे विश्व में घोषणा कर रहे होते कि देखो हमने एक बांग्लादेशी को राष्ट्रपति बना दिया। यह वसुधैव कुटुम्बकम का सबसे बढ़िया उदाहरण होता।
असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) तैयार करनेवाले अधिकारियों ने सूची तैयार करने में बहुत ही होशियारी बरती है। ऐसा लगता है कि कई जगह तो जासूसों की सेवा भी ली गई है। जैसे कई जगह मां-बाप शामिल हैं और चार में से पहला, दूसरा और चौथा बच्चा भी। लेकिन तीसरा बच्चा नहीं। जासूसों ने एनआरसी के अधिकारियों को ख़बर दी होगी कि महिला तीसरा बच्चा पैदा करने बंगलादेश चली गयी थी। ऐसा हिन्दू महिलाओं के साथ भी हुआ है। ऐसा तो सुना जाता रहा है कि धनाढ्य परिवारों की महिलायें डिलीवरी के लिए इंग्लैंड या अन्य विकसित देशों में चली जाती हैं, पर गरीब महिलाएं भी ऐसा कर सकती हैं, यह असम में, एनआरसी लिस्ट जारी होने के बाद ही पता चला है।
हालांकि एनआरसी का यह काम सुप्रीम कोर्ट के आदेश से उसी की निगरानी में हो रहा है पर उसमें विसंगतियां भी बहुत हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस सूची के सार्वजनिक होने के बाद जो इसके पक्ष में थे वे भी विपक्ष में हो गये हैं। जो इसके बहाने से डींगें हांक रहे थे, कि इसको बांग्लादेश भेज देंगे, उसको बांग्लादेश भेज देंगे, उन सबकी बोलती बंद हो गई है। छप्पन इंच की तोंद वाले भी शांत बैठे हैं। सोच रहे हैं कि इस लिस्ट में से बाहर हुए हिन्दुओं को अंदर (लिस्ट के, डिटेंशन कैम्प के अंदर नहीं) कैसे किया जाये।
पर मैं तो तबसे अधिक चिंतित हूँ जबसे दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मनोज तिवारी जी ने कहा है कि दिल्ली में भी एनआरसी लागू किया जाये। मैं ढूंढ ढूंढ कर थक गया पर मुझे न अपने दिवंगत माता पिता का कोई सर्टिफिकेट मिल रहा है और न ही अपना 1971 से पहले का कुछ। दसवीं कक्षा का प्रमाण पत्र है तो सही पर वह भी 1971 के बाद का है। पर एक भरोसा बचा है, गुलाबी, हरे, संतरी और नीले कागजों पर। जहां तक संभव हुआ, वे रंगीन कागज़ मुझे और मेरे परिवार को बांग्लादेश भेजे जाने से बचा ही लेंगे।
(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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