कंप्यूटर की निगरानी का नहीं आपकी जासूसी का अधिकार हासिल कर लिया है सरकार ने!

पिछले कुछ सालों से यह बहस चल रही है कि राष्ट्रीय सुरक्षा जरूरी है या व्यक्ति के निजी आधिकार। इस बहस का जवाब देते हुए अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला भी दिया कि व्यक्ति के निजी अधिकार मूलाधिकार हैं और हालांकि कुछ मामलों में राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर हस्तक्षेप भी किया जा सकता है, लेकिन ये हस्तक्षेप कितना होगा, इस पर कभी भी कोई एक राय नहीं बन सकी है जिसका फायदा उठाते हुए सरकारें जिस तरह का आदेश निकालती हैं, उससे ऐसा लगता है कि वह व्यक्ति के निजी अधिकार के अंत की तरफ बढ़ रही हैं।
अभी दो दिन पहले ठीक ऐसा ही आदेश जारी किया गया है। गृह मंत्रालय की ओर से जारी 20 दिसंबर, 2018 का आदेश यह कहता है कि इनफोर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट 2002 के सेक्शन 69 के उप-खंड (1) और इनफोर्मेशन टेक्नालॉजी रूल्स 2009 के नियम 4 की शक्तियों का उपयोग करते हुए निम्नलिखित सुरक्षा और खुफिया एजेंसी किसी भी कंप्यूटर में जमा या उसके ज़रिये भेजी गई सामग्री, पैदा की गई सूचना को इंटरसेप्ट कर सकती हैं, निगरानी कर सकती हैं, उनके डेटा को एनक्रिप्ट यानी उसे खोल सकती हैं। इसके लिए दस एजेंसियां अधिकृत की जाती हैं जिनके नाम हैं, इंटेलिजेंस ब्यूरो, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, सेंट्रल बोर्ड एंड डायरेक्ट टैक्सेस (सीबीडीटी), डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस (डीआरआई), सीबीआई, नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए), कैबिनेट सचिव (रॉ), डायरेक्टोरेट ऑफ सिग्नल इंटेलिजेंस (डीएसआई) और कमिश्नर ऑफ पुलिस दिल्ली।
अब यह समझना जरूरी हो जाता है कि आखिरकार इनफोर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट 2002 के सेक्शन 69 के उप-खंड (1) और इंफोर्मेशन टेक्नोलॉजी रूल्स 2009 के नियम 4 क्या हैं? इनफोर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट 2002 के सेक्शन 69 का उप-खंड (1) कहता है कि केंद्र और राज्य द्वारा निर्धारित कोई भी अधिकारी राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता के मद्देनजर किसी भी इलेक्ट्रॉनिक डाटा की जांच परख कर सकती हैं। और इनफोर्मेशन टेक्नोलॉजी रूल्स 2009 का नियम 4 कहता है कि इलेक्ट्रॉनिक डाटा की जांच परख का आदेश केंद्र में गृह सचिव और राज्य में राज्य गृह सचिव द्वारा हासिल किया जा सकेगा।
लेकिन अभी आये आदेश से स्थिति बदल चुकी है। पहले गृह मंत्रालय लोगों के फोन कॉल और ईमेल स्कैन कर सकता था। नये आये आदेश से पहली बार डेटा स्कैन करने, कंप्यूटर में जमा या इससे भेजी गयी सूचना को इंटरसेप्ट करने का अधिकार कई सारी एजेंसियों को दिया गया है। यानी इंटेलिजेंस ब्यूरो, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, सेंट्रल बोर्ड एंड डायरेक्ट टैक्सेस, डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस, सीबीआई, नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी, कैबिनेट सचिव (रॉ), डायरेक्टोरेट ऑफ सिग्नल इंटेलिजेंस और कमिश्नर ऑफ पुलिस दिल्ली विभाग बिना गृह सचिव की अनुमति के ही किसी भी तरह की इलेक्ट्रोनिक सूचना का सर्विलांस कर सकते हैं। सर्विलांस करने के बाद गृह सचिव का काम केवल यह होगा कि वह यह तय करे कि सर्विलांस का मकसद सही था अथवा नहीं। कहने का मतलब यह है कि पहले केवल एक पद था जो सर्विलांस कर सकता था और उसकी जिम्मेदारियां थी। लेकिन अब यह परनाला खोल दिया गया है। अब देश में सरकार के सभी विभाग किसी भी व्यक्ति का सर्विलांस कर सकते हैं। यानी राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में सरकार ने सबको यह इजाज़त दे दी है कि वो व्यक्ति के निजी अधिकारों में हस्तक्षेप करते हुए सीधे तौर पर उसकी जासूसी कर सकें।
गौरतलब है कि 22 दिसंबर 2008 को लोकसभा में बगैर किसी चर्चा के ही इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट से जुड़ा एक संशोधन पास हो गया था। तब कांग्रेस की सरकार थी। लोकसभा ही नहीं जब राज्यसभा में बहस हुई तब एक भी सांसद ने इसके खिलाफ वोट नहीं किया। इसी संशोधन के तहत पहली बार कंप्यूटर में जमा या कंप्यूटर के द्वारा प्रसारित किसी सूचना को ट्रैक करने का अधिकार केंद सरकार को मिला था। यह गंभीर बात तो है लेकिन उस वक्त प्राइवेसी को लेकर वैसी समझ नहीं थी, जैसी आज है।
इसके साथ इस नये आदेश में एक बात यह भी कही गयी है कि सब्सक्राइबर, सर्विस प्रोवाइडर या कोई भी व्यक्ति जिसके अंडर वो कंप्यूटर है, उसे एजेंसियों को सारी जानकारी देनी होगी। नहीं देने पर सात साल तक की जेल हो सकती है. यानी सरकारी तंत्र को यह जरूरत नहीं है कि वह किसी व्यक्ति के कंप्यूटर को हाथ से छूकर उसके डाटा को हासिल करे। सरकारी तंत्र बिना व्यक्ति के जानकारी के रिलायंस,एयरटेल जैसे सर्विस प्रोवाइडर के जरिये किसी भी तरह का डाटा हासिल कर सकती है। अगर सर्विस प्रोवाइडर से जुड़ी कंपनियां डाटा देने में आनाकानी करती है तो उन्हें सज़ा भी दी जा सकती है।
कुल मिलाजुला कर बात यह है कि राज्य के पास राष्ट्रीय सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता का ऐसा तीर है जिसके सहारे वह तकनीक का इस्तेमाल अपने नागरिकों के खिलाफ भी कर सकती है। इस सरकारी आदेश के शब्द अभी हाल में व्यक्ति के निजी अधिकार को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आत्मा का हनन करते हैं। इसलिए यह तय है कि इसका पुरज़ोर विरोध होगा और आने वाले दिनों में इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में भी जाया जा सकता है।
फिर भी तकनीक के जिस युग में हम पहुंच चुके हैं और हमारी जितनी ज्यादा निर्भरता इंटरनेट की दुनिया पर बढ़ती जा रही है, उसके अपने ख़तरे हैं। अगर सरकार या मजबूत संस्थाएं जनता को बताकर सर्विलांस नहीं करने का फैसला नहीं भी लें तो भी इसका मतलब यह नहीं है कि ये संस्थाएं चुपचाप आपके खिलाफ सर्विलांस नहीं करती होंगी, लेकिन खुले तौर पर सर्विलांस में पहुँच जाने का मतलब यह है कि सरकार हमारी माई-बाप हो जाएगी और राज्य के साथ मनुष्यता के विकास की दिशा पूरी तरह से नियंत्रित होने लगेगी।
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