जनतंत्र का एक और सबक

भारतीय मानस में अवतारवाद कि गहरे तक पैठा है। दुःखों, कष्टों, अपराधों से मुक्ति दिलाने के लिए किसी मसीहा के इंतज़ार में बैठे लोग जरा भी चमक दिख जाने पर उसके महिमा-मण्डन में जुट जाते हैं। भाग्यवाद प्रतिभा को ईष्वर प्रदत्त और त्याग-बलिदान को दैवीय-मूल्य मानता हैं। हमारी शिक्षा-पद्धति में आधुनिकता और वैज्ञानिक-नजरिये के लिए समुचित सम्मान न होने से हमारा अहर्ता-संपन्न शहरी मध्यवर्ग भी मध्ययुगीन मानसिकता के लपेटे में है।
नैतिकताओं की सर्वमान्य परिभाषा या सार्वभौमिक मानदंड तो है नहीं। लिहाजा दुनियादारी में अपनी-अपनी सुविधा से प्रतिभाओं को प्रतिष्ठा और मूल्यों को मान्यता दे दी जाती है। जैसे कि वृद्धों, विधवाओं, लावारिसों या विकलांगों पर परोपकार से लगा कर प्याऊ खुलवाने या सांड छुड़वा़ने जैसे कामों के लिए दान-दक्षिणा देने वाले महाजनों को त्यागी मान लेना। धन हासिल करने के उनके जरियों और तरीकों की वैधता पर सवाल करने का कोई रिवाज़ नहीं है। इसी कारण प्राकृतिक-संसाधनों और उत्पादन के साधनों का बेरहम दोहन करने वाले त्यागियों की सूचियों में हमेशा ऊपर दिखते हैं।
इस पृष्ठभूमि में अपने संसदीय-जनतंत्र और राजनीतिक माहौल को परखना है। हमारे ‘संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक समाजवादी गणराज्य’ को स्थापित हुए चाहे अड़सठ बरस बीत चुके हमारे सत्ता-वर्ग की मानसिकता अब भी राजसी है। जनता औपनिवेशिक-रूढ़ियो के कब्जे में हैं। बहुसंख्यक ग्रामीण समाज तक शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, आवास, भोजन-पानी और परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाएं तक नहीं पहुंची हैं, मगर आधुनिकता की कलगी लगा इठलाते शिक्षित शहरी मध्यम वर्ग की स्थिति क्या है ? जो न तो अपने जनतांत्रिक हकों के लिए सचेत है और ना ही नागरिक जि़म्मेदारियों की परवाह करता है ! अपने मौकापरस्त रवैये को ढांकने के लिए उसने कुछ दुष्मनों की कल्पना कर रखी है। मसलन अनपढ़ और गरीब ग्रामीण जनता और राजनीतिक-भ्रष्टाचार। देष-समाज की बदहाली की सारी जिम्मेदारी उन पर धकेल खुद को बरी मान लेने वाला यही दब्बूपन मसीहा की बांट देखता है।
आजादी-आंदोलन में अनेक कद्दावर नेता रहें। खुद उन्हें अपने अवतार होने का गुमान चाहे न रहा हो, उत्साही अनुयायिओं ने उन्हें महात्मा, लोकमान्य या लोकनायक घोषित कर दिया। बाद का परिदृष्य लेकिन बदलता गया। तमाम क्षेत्रों में जिस तेजी से सामूहिक चरित्र गिरता गया, किसी भी अतिउत्साही-अज्ञानी को बापू की चप्पल या चष्मा पहना देने का रिवाज़ बढ़ता गया।
समय-समय पर ऐसे कथित अवतारों और उनसे लगाई गई उम्मीदों के टूटने के अनेक उदाहरण हमारे सामने हैं। सारी उम्मीदे किसी व्यक्ति में केंद्रित कर देने के नतीजे अक्सर निराषा-जनक रहे हैं। जबरन फुलाये गुब्बारे की हवा कुछ कम होते ही उससे मोहभंग का दौर शुरू होने लगता है। मगर न तो उसमें हवा भरते वक्त और ना ही उसके पिलपिले होते जाने की प्रक्रिया में इस बात पर गौर किया जाता है कि बदलाव के लिए महज व्यक्तिगत ईमानदारी, कर्मठता और सादगी ही काफी नहीं है। परिवर्तन के लिए सुचिंतित विचारधारा और संभावित उपायों की एक ब्ल्यू-प्रिंट की भी दरकार होती है।
हाल के बरसों में अरविेद केजरीवाल इसी तरह उछले। उनकी खासियते वे थी, जिनके पीछे अमेरिकी वैभव का आकांक्षी हमारा शिक्षित शहरी मध्यमवर्ग पागल है। प्रोद्योगिकी के विषिष्ट सुविधा संपन्न शिक्षण-संस्थानों और रसूखदार प्रषासनिक सेवाएं। केजरीवाल आई.आई.टी. से दीक्षित हैं। केंद्रीय राजस्व सेवाओं के आला अधिकारी की नौकरी छोड़ कर वे जनसेवा में आए हैं। मध्यमवर्ग द्वारा निर्मित खांचे के हिसाब से प्रतिभा और त्याग, दोनो का संयोग!
खुद की ईमानदारी और सादगी के उनके घनघोर आत्मप्रचार का जादू न केवल दिल्ली की जनता बल्कि अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं तक के सिर चढ़ कर बोला। सार्वजनिक-जीवन से भ्रष्टाचार समाप्त कर देने का एक ही टोटका है - लोकायुक्त। यह कह कर उन्होंने अपनी छवि चमकायी थी । अण्णा हजारे के चेहरे पीछे उस एकल-मुद्दा आंदोलन को किसने नियंत्रित-निर्देषित किया था, षुरू से ही संदिग्ध था। पहले अण्णा को माया-मण्डित किया गया। हालांकि तथ्य ये थे कि अपनी पंचायत में वे अलोकतांत्रिक और मनमानी न्याय-प्रणाली चलाते रहे हैं। खान-पान संबंधी उनके दकियानुसी आग्रहों को भी सफाई से छिपाया गया था। उनकी ग्रामीण बनक और रालेगण सिद्धी जैसे एक गांव को चमन बना देने की कथाओं के अति बखान से निर्मित उनकी मूर्ति जल्द ही धराषायी हुई।
पहले राजनीति को गरियाते हुए आखिर में सनसनीखेज अंदाज़ में केजरीवाल ने एक राजनीतिक दल बनाया। जिसमें जन-सहभागिता का डंका तो खूब पीटा गया किंतु जो पहले ही दिन से हाईकमान-छाप राजनीतिक संस्कृति की परस्ती में था। अतिवामपंथियों, लोहियावादियों, गांधीवादियों, उदारवाद-समर्थक पत्रकारों से लगा कर दक्षिणपंथी भावनाओं को पोसने वाले मंचीय-कविता के तुकबाजों से सजे उस दल को तब भानुमति का पिटारा कहने पर षहरी मध्यमवर्ग खूब मज्जमत करता था। आजादी की लड़ाई के दौरान बने-संवरे कांग्रेस का हवाला दिया जाता था। जिसमें हर रंग की विचारधारा समाहित थी। दावा था कि यह दल बदलाव का हरकारा होने जा रहा है।
केजरीवाल के पास समस्याओं से निपटने का कोई कारगर वैचारिक खाका नहीं है। महज अच्छी मंषा, आत्मप्रचारित ईमानदारी या सादगी किसी आमूलचूल बदलाव के लिए नाकाफी है। छोटे और अमीर यूरोपीय देषों के विकास-माॅडल पर बेतरह समस्याओं से ग्रस्त विविध-रंगी भारतीय समाज का उद्धार संभव है, यह दावा भी अतिरंजित और अव्यवहारिक है। इन तथ्यों की अनदेखी की जाती रही। दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी को मिला बंपर समर्थन जल्द ही जाया होने लगा। योजनाओं और कामों को लेकर बनाया गया शुरूआती उत्साह न केवल दरकने लगा बल्कि भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, गुटबाजी के आरोपों और समर्थ प्रतिद्वंद्वियों को दरकिनार कर देने, मनचाहे उम्मीदवारों को राज्यसभा भेज देने जैसे भारतीय राजनीति के बदनाम दृष्य भी वहां प्रगट होते गये।
केजरीवाल की बहुप्रचारित स्वच्छ छवि में ताजा दचक लगी है कि उन्होंने शिरोमणि अकाली दल के नेता पूर्व केंद्रीय मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया से लिखित माफी मांग ली है। पंजाब विधान सभा चुनावों के समय उन्होंने मजीठिया पर मादक पदार्थों की तस्करी के संगीन आरोप लगाये थे। जिससे मजीठिया ने उनके विरूद्ध मानहानि का मुकदमा ठोक दिया था। यह माफीनामा इशारा करता है कि आरोप लगाते वक्त केजरीवाल सनसनी फैला रहे थे। उनके पास पुख्ता प्रमाण न थे। केजरीवाल के इस कदम का उनकी पार्टी की पंजाब इकाई और उसके पदाधिकारियों ने खुल कर विरोध किया है। आरोप दाग देने के चलते वे पहले भी मानहानि के मुकदमों और वकील की फीस को लेकर विवादों में रहे हैं।
केजरीवाल का उफान अब उतर रहा है। उनकी चमक बहुत तेजी से फीकी पड़ रही है। अपने जन्म के पांच बरसों में ही वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद बता दिया जाने वाला राजनीतिक-दल पर अस्तित्व का संकट है। ऊंट के बैठने की करवट तो आगामी दिनों में साफ होगी, मगर इस प्रसंग से एक बार फिर आम लोगों के सामने एक सबक ग्रहण करने का मौका है कि जनतंत्र में व्यक्ति नहीं नीतियां और उन्हें लागू करने के तरीके मौजू होते हैं। वोट का उपयोग करते समय इस कसौटी का उपयोग ज़रूर किया जाना चाहिए।
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