बदलाव के मुहाने पर इज़राइल-फिलिस्तीन संघर्ष

एक जाने-माने फ्रेंच दार्शनिक, लेखक और राजनीति कार्यकर्ता पॉल-मिशेल फोकॉल्ट ने 1978 के नवम्बर में तेहरान दौरे के दौरान एक ईरानी नागरिक से अपनी बातचीत के बारे में लिखा है। उस अनजान ईरानी ने टिप्पणी की, “वे कभी हमें अपनी मर्जी से नहीं रहने देंगे। जितना उन्होंने वियतनाम में किया, उससे ज्यादा नहीं करेंगे।”
फोकाल्ट ने इस बातचीत के बाद में लिखा “मैं इसका जवाब देना चाहता था कि वे आपको वियतनाम से भी कम रियायत देने के लिए तैयार हैं क्योंकि आपके पास तेल है, क्योंकि यह मध्य-पूर्व है। आज वे कैंप डेविड के बाद लेबनान पर सीरिया के आधिपत्य के लिए तैयार हैं जहाँ सोवियत का बोलबोला है। लेकिन क्या अमेरिका अपनी पूर्व की स्थिति को छोड़ने पर राजी होगा, परिस्थितियों के मुताबिक उन्हें पूरब से दखल देने या अमन की निगरानी की इजाजत देगा?”
ये शब्द इजरायल की भू राजनीति को प्रदर्शित करते हैं। पश्चिमी एशिया एक सदी से भी ज्यादा समय से विश्व का अवलम्ब रहा है-अर्थात यदि कोई इस बात को ध्यान में रखता है कि औपनिवेशिक शासन हस्तक्षेप के एक व्यापक पैटर्न का हिस्सा था, जो डिज़रायली और ग्लैडस्टोन के युग में वापस चला गया, जब यूरोपीय शक्तियां 18वीं शताब्दी के मध्य में ओटोमन साम्राज्य की सड़ी हुई लाश पर उठ खड़ी हुईं।
बीते कुछ सालों में हमें कहा गया था कि तेल के मामले में आत्मनिर्भरता हासिल करने के साथ अब अमेरिका को फारस के खाड़ी क्षेत्र पर अधिक निर्भर रहने की जरूरत नहीं है। पिछले दिनों भी यही चर्चा थी कि अमेरिका की वैश्विक रणनीतियां फिर से एशिया-प्रशांत पर केंद्रित हो गई हैं। लेकिन वास्तविकता में, पश्चिम एशिया में अमेरिका का सिमटाव-सिकुड़न अकल्पनीय है।
भले ही, अमेरिका खाड़ी के तेल पर निर्भर नहीं रहा जबकि चीन समेत अन्य देश उस पर बुरी तरह निर्भर हैं। फिर भी अमेरिका तेल बाजार को व्यवस्थित रखना चाहेगा। इसके अलावा, हिंद महासागर का समुद्री गलियारा अमेरिका हिंद-प्रशांत रणनीतिक अवधारणा एक प्रमुख सांचा है।
इससे बढ़ कर, पेट्रो डॉलर 1979 से ही विश्व की मुद्रा के रूप में डॉलर का एक स्तंभ बना हुआ है, जब अमेरिका और सऊदी अरब तेल के ठेके में डॉलर के उपयोग पर राजी हुए थे। पेट्रो डॉलर की रीसाइक्लिंग अमेरिकी परिसंपत्तियों के लिए मांग पैदा करती है और इसमें किसी भी तरह का खलल पड़ने से यूएसजी, कम्पनियों और उपभोक्ताओं के लिए उधार लेने की लागत संभावित रूप से बढ़ सकती है, अगर धन के स्रोत का अकाल पड़ जाता है।
यह कहना यहां पर्याप्त होगा कि एक प्रतिद्वंद्वी शक्ति के रूप में चीन का मुकाबला करने के लिए अमेरिका पश्चिम एशिया के द्वारों पर अवश्य ही निगरानी करेगा। ये सभी भू-राजनीतिक परिस्थितियां अमेरिका की पश्चिम एशिया की रणनीति में इजरायल को धुरी बनाता है।
इसी बीच, पश्चिम एशिया की स्थिति जातीय रूप से रूपांतरित हो रही है। इसके तीन मुख्य रुझान हैं : एक, अब्राहम समझौता ने अपना अर्थ खो दिया है। स्पष्ट है कि बिना प्रतिनिधित्व की अरब हुकूमतें “अरब स्ट्रीट” के लिए नहीं बोलतीं। इजरायल के साथ रिश्ते बनाने के लिए अरब सरकारों में भगदड़ की उम्मीद अवश्य नहीं करनी चाहिए। यहां तक कि सऊदी अरब को भी संबंध सुधारने में समय लेगा।
दो, सऊदी अरब संक्रमण के चरण में है। अमेरिका और सऊदी संबंधों में सुधार की प्रक्रिया चल रही है। इसकी अनिश्चितता ने रियाद को कतर, तुर्की, सीरिया औऱ ईरान के साथ अपने रिश्ते सुधारने के प्रति संजीदा कर दिया है। यह यमन में दलदल से खुद को निकालने के लिए रास्तों को खंगाल रहा है। गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल (खाड़ी सहयोग परिषद) क्षेत्रीय मंच सऊदी अरब नेतृत्व का खिदमतगार नहीं रहा।
तीन, सुरक्षा प्रदाता के रूप में अमेरिकी साख घटी है। मात्रात्मक अंतर से, क्षेत्रीय देशों ने अपने संबंधों का विविधीकरण शुरू कर दिया है-वे रूस और चीन की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। कोई भी पश्चिमी देश चीन में उइगर मुस्लिम समस्या या रूस के प्रति प्रतिबंधों के मामले में अमेरिका के साथ अपने को पहचाना जाना पसंद नहीं करता।
अंत में, ईरान बदलाव के मुहाने पर है। उस पर से अमेरिकी प्रतिबंधों का हटा लिया जाना, जिसकी व्यापक संभावना है, क्षेत्रीय संतुलन को केवल ईरान के पक्ष में मोड़ सकता है। ईरान का यह उठान फिलिस्तीनी प्रतिरोध अभियान में गंभीरता देगा।
उपरोक्त पृष्ठभूमि के विरुद्ध जाकर गाजा, यरूशलेम और इजरायल में संघर्ष छिड़ गया। इसके निम्नलिखित दोष उभर कर आए हैं:
• विषम संघर्ष में इजरायल की जबरदस्त सैन्य सर्वोच्चता तेजी से प्रासंगिकता खो रही है;
• इजरायल में राष्ट्रीय एकता और स्थिरता के लिए अंतर-साम्प्रदायिक दंगे शुभ नहीं हैं;
• अंतरराष्ट्रीय राय इजरायल के खिलाफ हो रही है;
• यरूशलेम एक ताजा घाव बना हुआ है; जोर्डन के राजा अब्दुल्लाह के तख्तापलट का विफल प्रयास इस संकट को और बढ़ा देता है;
• फिलिस्तीन कैंप में भी, मोहम्मद अब्बास का नेतृत्व छीज रहा है जबकि फतह को तीन तरफ के विभाजन से जूझना पड़ता है;
• फिलिस्तीनी अथॉरिटी को नियंत्रण में लेने की अमेरिकी-इजरायली-अमीराती योजना को धक्का लगा है, जबकि हमास पीएलओ में एक प्रभुत्वकारी चेहरा बन कर उभरा है, चाहे वह जंग हो या अमन;
• हमास ने प्रतिरोध की शक्ति को आजमा लिया है; ऐसे में हिजबुल्लाह जैसी स्थिति पूरी तरह कल्पनीय है, जहां इजरायल द्वारा ताकत का इस्तेमाल प्रतिरोध को भड़का देगा, जिसकी कीमत अवांछनीय होगी।
इस नाटकीय ढांचे में, बाइडेन प्रशासन फिलिस्तीनियों के साथ अपने पुराने संपर्क संबंधों को फिर से पुनर्जीवित करने लगा है। अमेरिका ने फिलिस्तीनियों की मदद फिर से शुरू कर दी है। निश्चित रूप से अमेरिका के पास सैन्य हस्तक्षेप को सहन करने की क्षमता नहीं है। इस देश की अंदरुनी राय भी मध्य पूर्व में किसी भी नए सैन्य हस्तक्षेप का मजूबती से विरोध करती है। इसलिए राजनयिक उपायों पर जोर दिया जा रहा है।
इस बीच, डेमोक्रेटिक पार्टी के ज्यादातर नेताओं की मजबूत राय फिलिस्तीनियों के प्रति इजरायल के व्यवहारों पर चुप लगाने या माफ कर देने के लिए राजी नहीं है। किन्हीं बिंदुओं पर, बाइडेन प्रशासन अमेरिकी- इजरायली-फिलिस्तीनी संबंधों को नया रूप दे सकता है।
न्यूयॉर्क टाइम्स के स्तंभकार थॉमस फ्रीडमैन ने हाल ही में एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने कहा था कि बाइडेन प्रशासन को इजरायल को यह संकेत देना चाहिए, “ हम फिलिस्तीनी अथॉरिटी को पश्चिमी तट पर एक बनते हुए फिलिस्तीनी देश के रूप में व्यवहार करेंगे, और हम दो-देश के समाधान की वहनीयता को अक्षुण्ण रखते हुए फिलिस्तीनी राज्यत्व को ठोस रूप प्रदान करने के लिए श्रृंखलाबद्ध राजनयिक कदम उठाएंगे...”
वहीं दूसरी ओर, हमास को एक आतंकवादी समूह के रूप में “काली सूची” में डाले रखने के विचार का अब उतना समर्थन नहीं रहा। हमास के भीतर भी रेड लाइनें खींची हुई हैं। दरअसल, राजनीतिक इस्लाम का उसका विचार अमीरात के इस्लाम की अवधारणा और आचरण से सर्वथा भिन्न है। इस बारे में इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप एक टिप्पणी गौरतलब है,
“जबकि हमास ने इजरायल को स्वीकार करने की अपनी तत्परता का संकेत दिया है (यह 2017 में हमास के चार्टर में संशोधन में दर्ज है) और सरकार में काम करने के लिए तैयार हुआ है, जो पीएलओ के सिद्धांतों की पुष्टि करता है (जिसमें पहले के समझौतों और अहिंसा की नीति की स्वीकृति भी शामिल है), यह स्पष्ट रूप से उन शर्तों का समर्थन नहीं करेगा, जो आंदोलन में विवादास्पद बने हुए हैं और ये केवल किसी संभावनाशील समग्र समझौते के संदर्भ में ही प्रासंगिक समझे जाते हैं और जिसमें इजराइल से परस्पर मांग नहीं है।”
हमास चाहता है कि मौजूदा युद्ध विराम बरकरार रहे। लेकिन जब तक फिलिस्तीनी भूभाग पर कब्जा करने और जातीय संहार जारी रहने इजरायल की नीतियां जारी रहती हैं एवं हिंसा जारी रहती है, तो फिलिस्तीन का प्रतिरोध केवल कठोर होगा।
पूर्व अमेरिकी राजनयिक आरोन डेविड मिलर, जो मध्य-पूर्व के मसले पर अमेरिका के रिपब्लिकन और डेमोक्रेट प्रशासनों को सलाह देते रहे हैं, उन्हें हाल ही में यह कहते हुए उद्धृत किया गया है, “बड़ी विडंबना यह है कि एक बार फिर से साफ-सफाई की कवायद होगी। मामले को खंगाला जाएगा और फिर से वही चक्र दुहराया जाता रहेगा। गाजा पुनर्निर्माण के लिए लाखों डालर खर्च किए जाएंगे। लेकिन अपरिहार्य रूप से आने वाले अगले दौर तक यह फिर से बराबर/बर्बाद हो जाएगा।”
नेतन्याहू के रहते इजरायल की प्रतिष्ठापूर्ण स्थिति बहुत कमजोर हुई है। यद्यपि, बाइडेन प्रशासन-दो-देश समाधान को हासिल करने के अपने लक्ष्य के साथ-फिलिस्तीनियों के साथ बातचीत की मेज पर लौट आए हैं, जो उसकी सात साल के अंतराल पर केंद्रीय स्थिति में वापसी है।
लेकिन तब, यकीकन, अमेरिका यहां पहले से भी रहा है। यहीं विरोधाभास है। बाइडेन प्रशासन का संयुक्त राष्ट्र में इजरायल का लगातार ढाल बने रहना, विगत की उसकी भूमिका का दोहराव है, जो फिलिस्तीनी भूमि पर इजराइल के दशकों के चले आ रहे कब्जे को मान्यता देता है। तिस पर भी, यह केवल वाशिंगटन ही है, जो इजरायल को नियंत्रित कर उपयोग में ला सकता है।
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